श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-४३

भक्तिभाव के साथ कथाएँ पढते ही। सहज साई का ध्यान होगा।
सगुण रूप आँखों के समक्ष दिखाई देगा। साई की आकृति चित्त में दृढ़ हो जायेगी॥

अमृत भी जिनके सामने फीका पड जाता है, जो दीपस्तंभ की तरह मार्गदर्शन करती हैं, जो भवसागर के प्रवास को भी सुकर बनाती हैं, जो पापों के ढेर जलाकर राख कर देती हैं, जो परमार्थ का आसान साधन हैं, जो श्री साईनाथ का सामीप्य प्रदान करती हैं ऐसी श्री साईनाथ की ये कथाएँ जो भी कोई भक्तिभावपूर्वक, प्रेमभाव के साथ पढेगा, श्रवण करेगा, उनका वर्णन करेगा, उसे श्रीसाईनाथ का सहज ही ध्यान प्राप्त होगा, श्रीसाई का सगुण रूप मन के समक्ष दिखायी देता रहेगा और साथ ही श्रीसाईनाथ की सगुण आकृति चित्त में दृढ़ हो जायेगी।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईअर्थात् श्रीसाईनाथ की कथाओं के वाचन, मनन, श्रवण, चिंतन, स्मरण, निदिध्यास के द्वारा रससाधना घटित होगी और उसी के अनुसार चित्त में श्रीसाईनाथ की आकृति अत्यन्त दृढ़तापूर्वक समा जायेगी।

हम सभी यह जानते हैं कि साईनाथ के सगुणध्यान से ही हमारा मन उत्क्रान्त होकर हमारे मन का रूपांतरण चित्त में होता है, इसी चित्त में श्री साईनाथ की आकृति दृढ़ हो जाती है और ङ्गिर श्री साईनाथ का अखंड सामीप्य प्राप्त होता है। मूलत: हर किसी के चित्त में ये भगवान तो रहते ही हैं, केवल उस चित्त में होनेवाले मूलस्वरूप पर हमने ही अनेक जन्मों में अनेक प्रकार के आवरण चढ़ा रखे होते हैं, इसी लिए हमें अंतरात्म-स्वरूप के, आत्माराम के दर्शन नहीं हो पाते और ‘ये भगवान कैसे हैं’ यही समझ में नहीं आता है। इसी लिए ये आत्माराम सगुण साकार होकर हमारे सामने प्रकट होते हैं और उनके सगुण ध्यान के मार्ग से हम पुन: अपने चित्त में उनके सगुण ध्यान के मार्ग पर चलते हुए उनकी आकृति को दृढ़ कर सकते हैं। इस सगुण साकार की आकृति को अपने चित्त में दृढ़ करने की क्रिया में ही धीरे-धीरे सारे बाह्य आवरण, सारी दीवारें टूट कर गिर पड़ती हैं और जिस क्षण यह आकृति चित्त में दृढ़ रूप में समा जाती है, उसी क्षण पहले से ही चित्त की गहराई में होनेवाली परमात्मा की आकृति दृढता के साथ एकरूप एकाकार हो जाती है और ‘तत्त्वमसि’ अर्थात ‘हे भगवन्, वह तो तुम ही हो’, ‘जैसे तुम सगुण साकार स्वरूप में बाहर हो बिलकुल उसी तरह तुम मेरे अंदर भी हो’, ‘जैसे साईराम के रूप में आप मेरी नज़रों के सामने हो; ठीक उसी तरह आत्माराम स्वरूप में आप चिदाकाश में भी हो’ यह पहचान भक्त को प्राप्त हो जाती है।

सद्गुरुतत्त्व का स्वरूप कैसा है?

‘अंतर्यामी सत्-चित्-सुख। बहार सद्गुरु द्विभुज समुख॥

दत्तबावनी की यह पंक्ति हमें इसी सत्य से परिचित करवाती है। ‘अंतर में जो समाये हैं वे कैसे हैं’ इसकी पहचान सद्गुरु का सगुण साकार स्वरूप ही कराता है। ये साईनाथ ही हमें स्वयं ही स्वयं के अंतर्यामित्व की पहचान करवाते हैं। इसीलिए श्रीसाईनाथ का सगुण ध्यान करना अत्यन्त आवश्यक है।

वैसे हम जब कभी भी आँखें मूँदकर ध्यान करने की कोशिश करते हैं, तब बिलकुल थोड़ी ही देर में हमारा मन कहीं और ही भटकने लगता है। बाबा के सगुण ध्यान में हम मन को एकाग्र नहीं कर पाते हैं। तो क्या हम साईनाथ का सगुण ध्यान नहीं कर पायेंगे? इसीलिए तो इन कथाओं का सहज एवं आसान मार्ग बाबा ने साईसच्चरित के माध्यम से दिया हैं। साईनाथ की कथाओं का श्रवण, वर्णन, मनन आदि के द्वारा बारंबार हमारा मन उन घटनाओं को देखता रहता है, मन उसमें रममाण होते रहता है और बारंबार श्रीसाईनाथ कर्ता के रूप में हर एक कथा के माध्यम से हमारे मानसपटल पर सक्रिय होते रहते हैं। कथा चाहे जो भी हो। उन सभी कथाओं में साईनाथ तो होते ही हैं और इसीलिए हर एक कथा हमारे समक्ष घटित होती रहती है और हर बार उस संपूर्ण कथा के अन्तर्गत ये साईनाथ हमारे मन के समक्ष कर्ता के रूप में प्रत्यक्ष सक्रिय रूप में होते ही हैं।

कहने का तात्पर्य यह है कि इन कथाओं के कारण हमारा मन अन्य सभी प्रकार की विषय-वासनाओं से अपने आप ही परावृत्त होकर साईनाथ की लीलाओं में मग्न हो जाता है। इन कथाओं में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इन कथाओं से कभी भी मन ऊबता नहीं है। हर किसी को बचपन से ही कहानी कहने, सुनने का आकर्षण होता ही है। रामकथा आज हजारों वर्षों से सम्पूर्ण भारतवर्ष में अखंड रूप में चलती चली आ रही है, परन्तु हर बार वह उतनी ही सुंदर एवं मनमोहक होती है। इसे देखने-सुनने से मन कभी भी ऊबता नहीं है। श्रीसाईनाथ की कथाओं में भी हमारा मन अपने आप ही रममाण हो जाता है और सहज ही साई का ध्यान होने लगता है। जानबूझकर यदि हम ध्यान करना चाहते हैं तो हमारा मन नहीं लगता है, परन्तु इन कथाओं के द्वारा सहज ही हमें श्री साईनाथ का ध्यान लग जाता है, बारंबार श्री साईनाथ का सगुणरूप मन पर अपनी छबी अंकित करते रहता है, साथ ही मन की गहराई तक समाते चला जाता है।

हमारे मन का मुख्य गुणधर्म यह है कि हम जिसका विचार करते हैं, उसकी आकृति को मन धारण करता रहता है और उन्हीं गुणों से मन भरता चला जाता है। श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रंथराज में श्री अनिरुद्धजी ने यह स्पष्ट रूप में कहा है कि बाह्यमन से अन्तर्मन की ओर जो विचार बारंबार भेजा जाता है, वही विचार अंतर्मन मन में दृढ़ होता रहता है और वह काफ़ी विशालरूप धारण कर लेता है। इसी सिद्धान्त के अनुसार जब हम साईनाथ की कथाओं का बारंबार स्मरण करके साई के गुणरूप को बाह्यमन से अंतर्मन की ओर भेजते हैं, उस वक्त अन्तर्मन में श्री साई का सगुणरूप दृढ़ होता चला जाता है और साईनाथ की कर्ता भूमिका में हमारे चित्त में दृढ़ होती रहती है। यह इन कथाओं का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण लाभ है। इसी कारण हमारे जीवन में भी ये साईनाथ कर्तारूप में सक्रिय हो जाते हैं और एक बार यदि श्रीसाईनाथ के हाथों में हमारे जीवन के सारे सूत्र आ जाते हैं, तब हमारे जीवन में दुख-संकट आदि के आने का सवाल ही कहाँ उठता है?

इन साईकथाओं से ही हमारे मन में सद्गुरु श्रीसाईनाथ की भक्ति दृढ़ होती चली जाती है, हमारी गृहस्थी भी सुखदायक हो जाती है और साथ ही हमारा परमार्थ भी साध्य हो जाता है। सद्गुरु श्री साईनाथ के प्रेम का उदय होता है। हमारी बुद्धी निर्मल होकर मन सदसद्विवेक की आज्ञा में रहता है। हम सभी को श्री साईनाथ की ‘रससाधना’ का सहज एवं आसान मार्ग प्राप्त हो, इसी लिए सद्गुरु श्री साईनाथ ने हेमाडपंत जी को निमित्त बनाकर श्रीसाईसच्चरित की रचना की है। बाबा का यह उपकार, यह ऋण कभी भी चुकाया नहीं जा सकता है। इन कथाओं को सहज सुंदर एवं आसान बनाकर बाबा ने हमें प्रदान किया है। तो फिर हमें अन्य किसी मार्ग को खोजने की ज़रूरत ही क्या है? अड़चन चाहे कितनी भी बडी क्यों न हो, परन्तु वह साईनाथ के सामने कोई मायने नहीं रखती हैं और श्रीसाईसच्चरित की कथाओं का यह मार्ग हमारे जीवन में उठनेवाले हर एक प्रश्‍न का समाधान बड़ी आसानी से करता है। जो भी श्रद्धावान गुणसंकीर्तन के इस मार्ग से होते हुए अपने जीवन में मार्गक्रमण करता है, उसके जीवन में उसके सामने कभी भी कोई भी संकट आ ही नहीं पायेगा; क्योंकि उसके आगे-पीछे, चारों ओर अगर कोई होता है तो वे हैं हमारे प्यारे-दुलारे श्रीसाईनाथ! और उनके होते हुए कोई दुष्प्रवृत्ति हमारे पास आने की जुर्रत कर ही नहीं सकती।

Leave a Reply

Your email address will not be published.