श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ (भाग-३७)

असो टाळोनि भंवरे खडक। सागरीं नावा चालाव्या तडक।
म्हणोनि जैसे लालभडक। दीप निदर्शक लाविती॥
तैशाचि साईनाथांच्या क था। ज्या गोडीने हिणवितील अमृता।
भवसागरींचे दुस्तर पंथा। अति सुतरता आणितील॥

जिस तरह सागरी प्रवास में
जहाज पत्थरों से टकराकर
टूटने न पाये और वह जल समाधि से भी बच जायें
इसीलिए दीपस्तंभ की योजना की जाती है;
उसी तरह साईनाथ की कथाएँ भी
जिस मधुरता के साथ अमृत का वर्षाव करती हैं,
भवसागर के दुष्कर पथ पर भी
अपने आप ही सहजता आ जाती है॥

हेमाडपंत साईसच्चरित का, साईनाथ की कथाओं का महत्त्व अत्यन्त सुंदर शब्दों में हमें बता रहे हैं। जिस तरह से सागरी प्रवास में जहाज चट्टानों से टकराकर टूटने न पाये और जहाज भी जलसमाधि से बच जाये इसीलिए दीपस्तंभ की योजना की गई होती है। जहाँ पर दीपस्तंभ, वहाँ पर बड़ा पत्थर भी होता है, जिससे टकराकर जहाज टूट सकती है, इस बात का अहसास होते ही सहज ही नाविक दूर से ही उस दीपस्तंभ को देखकर अपनी-अपनी नौका को दूर से ही घुमाकर आगे निकल सकते हैं, बिलकुल वैसे ही, भवसागर में जीवननौका का प्रवास सुरक्षित रहे एवं उस पार निश्‍चित समय पर आराम से सुखरूप पहुँचा जा सके इसके लिए साईनाथ की कथाएँ दीपस्तंभ के समान ही कार्य करनेवाली हैं।

मान लो यदि कोई कहता है कि हम बारिकी के साथ ध्यान रखकर उस पत्थर को देख लेंगे और अपनी नौका को घुमा लेंगे, तो? तो इसमें हमें तीन बातों पर ध्यान देना होगा।

१) दिन में हम दूर से ही उस पत्थर को देख सकते हैं परन्तु रात्रि के अंधकार में एवं जहाज के दीपक वहाँ तक पहुँच ही नहीं सकते हैं। ऐसे में हमें क्या करना चाहिए? मान लो दीपों के प्रकाश में हम पत्थर को देख लेते हैं, तो फिर आगे की बातों पर भी ध्यान देना चाहिए।

२) मान लो कि दिन के उजाले में अथवा रात्रि के समय जहाज में होनेवाले दीप के आधार पर हमने पत्थर देख लिया, परन्तु वह इतनी दूरी से हमारे दृष्टिपथ में आया कि जब वह हमें दिखाई दिया, उस वक्त हमने अपने जहाज की गति को कम करके उसके घुमाने से पहले ही यदि हम उससे जा टकराये तो?

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईअकसर हमारे जीवन में भी ऐसा ही कुछ होता है। कई बार हमें अपने जीवन में एक पड़ाव आने पर इस बात का पता चलता है कि सामने काफ़ी बड़ा संकट खड़ा है, सामने आनेवाले खतरे का अहसास स्पष्ट रूप से होने लगता है, परन्तु हम कालचक्र की गति के आगे हतबल हो जाते हैं और हम सीधे जाकर उस संकट से टकरा जाते हैं। हम यूँ ही कहीं पैसा इन्व्हेस्ट करते हैं या किसी की आर्थिक सहायता करते हैं ताकि वह किसी भी समय मुसीबत में हमारे काम आ सके। जहाँ इन्व्हेस्ट करते हैं, उस जगह पर हमारे जान-पहचान के लोग भी हैं, यह सब सोच-समझकर हमने बड़ी ही समझदारी से पैसे का व्यवहार किया। परन्तु कुछ समय पश्‍चात् हमारी समझदारी के बावजूद भी इस बात का पता चलता है कि हमारे पैसों के डूब जाने की संभावना है, यह सुनते ही हम तुरन्त वहाँ जाकर अपना पैसा वहाँ से उठा लेना चाहते हैं। तब वहाँ पता चलता है कि ये पैसे हमें एक साथ नहीं मिलेंगे बल्कि थोड़े-थोड़े करके ही एक-एक किस्त के अनुसार हम उसे निकाल पायेंगे। एक दो बार पैसे मिलने के बाद पता चलता है कि ये पैसे अब फिरसे कब मिलेंगे इस बात का कोई पता नहीं, मिलेंगे भी या नहीं यह भी निश्‍चित नहीं है। बस इसी चिंता को लेकर जीना पड़ता है। हमें पता होता है की आगे पत्थर है और हमारे जीवन की नौका उससे टकरानेवाली है, फिर भी हम उसे रोक पाने में असमर्थ होते हैं।

दूसरा उदाहरण यह है कि मोहमाया के चक्कर में हम फँसे रहते हैं। इस भवसागर के प्रवास में ‘मोह’ नामक यही वह पत्थर है, जो हमारी नौका को ठोकर मारकर डूबा देता है। सामने पैसे होते हैं, लेकिन वे स्वयं के न होने के बावज़ूद भी यदि किसी को उसका मोह हो जाता है। साथ ही हमें इस बात का अहसास भी होता है कि उस पैसे को चुरा लेने से अथवा अवैध रूप से हासिल कर लेने पर हमें आज या कल काल-कोठरी की हवा खानी पड़ेगी इस बात का पता भी हमें होता ही है, परन्तु हम अपने मन को बदल नहीं पाते हैं। हमारे सामने मोहरूपी पत्थर है, इस बात का पता तो हमें होता है परन्तु अपनी नौका को घुमा लेने में मनुष्य असमर्थ होता है। और उस मोहरूपी पत्थर से वह जाकर टकरा ही जाता है। गलत मार्ग से हासिल किये जानेवाले उस पैसे के कारण न्याय की मार आज नहीं तो कल खानी ही पड़ती है, परन्तु इसके साथ ही कीर्ति, यश, चरित्र इस प्रकार की अनेक बातों पर कलंक का टिका भी लग जाता है। तात्पर्य यह है कि यह मोह ही हमें ले डूबता है। इसीलिए यह दूसरी बात अधिक महत्त्वपूर्ण है। वह इसलिए कि यदि हमें पत्थर दिखाई देता भी है फिर भी हम उसके दिखाई देने पर अपनी नौका के वेग को काबू में रख सकते हैं क्या? मन यह ऐसे प्रचंड वेग की नौका है कि जिस पर काबू कर पाना अच्छे-अच्छों के बस की बात नहीं थी, फिर वहाँ पर हमारे जैसे समान सामान्य मनुष्य का क्या कहने, हमें इस मोहरूपी पत्थर पर टकराने से बचानेवाली हैं, इस साईसच्चरित की कथाएँ। श्रीसाईसच्चरित की कथाओं का पठन, मनन, चिंतन आदि के द्वारा अपने मन को मोह से बचाने के लिए साईसच्चरित के सैंतालीस अध्याय की साँप-मेंढ़कवाली कथा हमें यही सीख देती है। मोह के कारण मनुष्य का कितना नुकसान होत है, यह हम इस कथा के द्वारा जान सकते हैं। पुन: पुन: उस कथा का प़ठन करने से, चिंतन एवं निदिध्यास के द्वारा हम अपने मन को मोह से दूर रखने में समर्थ बनते हैं और यह करवाते हैं श्रीसाईनाथ। सोलहवे एवं सतारहवें अध्याय की कथाएँ हमें यही संदेश देती हैं कि लोभ-मोह के कारण ही मैं कैसे अपने श्रेय के प्रति पराङ्मुख हो जाता हूँ और अपने इस साईनाथ से दूर चला जाता हूँ। उसी तरह साईनाथ की हर एक कथा में एक अद्भुत भक्ति है, जो हमारे मन को मर्यादाशील भक्ति के मार्ग पर दृढ़ करती हैं एवं दीपस्तंभ के समान ही काफ़ी दूर से ही कहाँ पर पत्थर है, उसे दिखाकर हमें उस दिशा से जाने से रोकने का काम करती है और उचित दिशा में ले जाती है। जैसे माँ परीक्षा के समय टी.वी. देखने का, समय बर्बाद करने का, गलत चीजें खाने का मोह रखनेवाले बच्चे के एवं मोह के बीच दीवार बनकर खड़ी हो जाती है। समय पड़ने पर उसकी पिटाई भी करती है और बच्चे को पढ़न के लिए बिठाती है। बिलकुल वैसे ही ये साईनाथ श्रद्धावान को कभी भी गलत दिशा में नहीं जाने देते। इसके लिए वे कोई भी लीला करके भक्त के प्रवास को सुखरूप बनाते हैं। साईनाथ की ये कथाएँ हमारे लिए इतना महत्त्व आखिर क्यों रखती हैं? इसका उत्तर यह है कि स्वयं साईनाथ ही हमारी जीवननौका के खेवैय्या बन जाते हैं, इसीलिए हमारे लिए भय का कोई कारण ही नहीं रह जाता है।

३) तीसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पानी के गहराई में छिपे हुए नज़र में न आनेवाले परन्तु जहाज से टकरानेवाले पत्थर! हमारे जीवन में भी हमारा प्रारब्ध इसी प्रकार छिपे हुए पत्थरों अर्थात पाषाणों की श्रृंखला के रूप में घातक साबित होते हैं। प्रारब्धरूपी ये छिपा हुआ पत्थर हमें दिखाई देना नामुमकीन होता है। परन्तु वह हमारे अरमानों की नौका को तोड़कर डूबाते ही है। इन पत्थरों से बचना मनुष्य के बस की बात नहीं। प्रारब्ध का नाश केवल साईनाथ की कृपा ही कर सकती हैं। साईसच्चरित की कथा अर्थात साक्षात् साईकृपा ही होती है और यही कृपा दीपस्तंभ बनकर हमें सावधान करती है साथ ही प्रारब्ध का नाश भी करती है। जो पत्थर टूटने जैसे नहीं होते हैं वहाँ पर यह कृपा दीपस्तंभ बनकर खड़ी हो जाती है। इस पत्थर के न टूटने का कारण हरिकृपा असमर्थ है, ऐसा किसी को भी नहीं समझना चाहिए, बल्कि इस पत्थर के न टूटने के कारण यही होता है कि हम ही साईनाथ की कृपा का स्वीकार करने में कम पड़ रहे हैं, हम ही अवरोध उत्पन्न करते हैं, इसीलिए वह नहीं टूट पाता है अन्यथा साईनाथ की कृपा जिसे न तोड़ सके ऐसा कोई पत्थर हो ही नहीं सकता है। साईनाथ की कृपा एक ही क्षण में पलभर में ही बड़े से बड़े पत्थर को भी चकनाचूर कर सकती है और वह करती भी है। प्रश्‍न केवल यही होता है कि उनकी कृपा का स्वीकार करने के लिए हमारी कितनी तैयारी है, हम प्रयास कितना करते हैं। साईनाथ की कथाएँ ही साक्षात् साईकृपा है। इसीलिए जितना अधिक ये कथाएँ हम अपने दिल के गहराई तक उतारते चले जायेंगे, उतनी ही अधिकाधिक साईकृपा अपने आप ही हमारे जीवन में प्रवाहित होती रहेगी।

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