श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ (भाग-३२)

‘अंधे की गऊओं की रक्षा भगवान करते हैं।’ ‘जिसका कोई नहीं है उसके रखवाले श्रीराम हैं।’ इन वाक्यों को तो हमने सुना ही होता है। अंधे मनुष्य के पास आँखें न होने के कारण उसके गऊओं की रखवाली वह स्वयं नहीं कर सकता है, इसीलिए उस के गऊओं की रखवाली स्वयं भगवान करते हैं। यह तो हुआ इसका सरलार्थ।

साथ ही इसका भावार्थ भी जानना चाहिए। किसी व्यक्ति के लिए कोई विशिष्ट कार्य करना आवश्यक है, लेकिन उसमें उसे करने की क्षमता नहीं है। ऐसे में यदि उस व्यक्ति का अपने ईश्‍वर पर पूरा विश्‍वास होगा, तो भगवान उस व्यक्ति के लिए स्वयं उसके उस कार्य को पूरा करते ही हैं। जिस कार्य को कोई भोला भाविक यदि शक्ति की न्यूनता के अभाव में नहीं कर पाता है, उसकी सहायता साईनाथ करते हीं हैं। परन्तु यहाँ पर भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए की भगवान अंधे की सहायता करते हैं; जिनकी आँखें हैं उन्हें अपनी आँखों का उपयोग करना ही चाहिए, फिर उनकी क्षमता के परे यदि कुछ हो तो भगवान उसका ध्यान रखेंगे ही।

हम आँखें होते हुए भी यदि हाथ पर हाथ रखे बैठे रहेंगे और कहेंगे कि मैं भगवान की भक्ति करता हूँ, भगवान ने हमें आँखें दी हैं, हृष्ट-पुष्ट शरीर दिया हैं, इसीलिए मुझे अपना कार्य निश्‍चित रूप में करना ही हैं। मान लो यदि मेरे उस कार्य में अचानक कोई रोड़ा ड़ालता है, बाधा उत्पन्न हो जाती है तो निश्‍चित ही भगवान मेरी सहायता करेंगे, परन्तु मेरा कार्य मुझे ही करना है।

अंधे मनुष्य के गऊओं की रखवाली तो भगवान करते हैं, इसमें कोई शक नहीं है। मानव के लिए ज्ञात एवं अज्ञात इस तरह के दो प्रदेश होते हैं। मानव के आकलन की सीमा में रहने वाला प्रदेश यानी ज्ञात प्रदेश; वहीं, मानव के आकलन की सीमा के परे रहने वाला प्रदेश यानी अज्ञात प्रदेश।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईमेरे लिए जो अज्ञात है, उस प्रदेश का खयाल भगवान रखते ही हैं। इसमें कोई शक नहीं है, परन्तु मुझे ज्ञात रहनेवाले प्रदेश में मुझे सावधानी बरतनी ही चाहिए। इतना तो मुझे करना ही हैं। एक सामान्य उदाहरण के आधार से भी हम यह समझ सकते हैं। मान लो कि मैं बीमार पढ़ जाता हूँ। मेरे पेट में दर्द शुरु हो जाता है। पहले तो मैंने कुछ घरेलू उपाय कर देखें, इलाज भी शुरू कर दिया, लेकिन पेट दर्द कम नहीं हुआ; ऐसे में मैं कहता हूँ कि मैं बाबा की भक्ति करता हूँ, अब बाबा ही देखेंगे उन्हें तो सब पता है। हाँ, बाबा जरूर देखेंगे, परन्तु कब? जब यदि में किसी दुर्गम स्थान पर रहता हूँ, जहाँ पर किसी भी प्रकार की वैद्यकीय सेवा उपलब्ध नहीं हैं तब।

यदि मैं ऐसी जगह हूँ जहाँ मेरे लिए सारी सुविधायें उपलब्ध हैं तो मुझे अपना इलाज करवाना ही चाहिए। मुझे अपना इलाज करवाने के लिए जो भी खर्च आयेगा, अन्य किसी सहायता की ज़रूरत पड़ेगी, उसका ध्यान रखने के लिए मेरे साई समर्थ हैं ही। यदि मेरी तकलीङ्ग जानलेवा है और इस बात का ज्ञान मुझे नहीं है, तब भी उस जानलेवा बीमारी से मुझे बचाने के लिए मेरा साई समर्थ है।

जहाँ पर मैं चौकन्ना रह सकता हूँ वहाँ पर मुझे अपनी बुद्धी का उपयोग करके निर्णय तो लेना ही चाहिए। इसके पश्‍चात् जो बात मैं नहीं जानता, मुझे जिसका ज्ञान नहीं है, उसकी चिंता करने के लिए साई समर्थ ही है।

अब इस उदाहरण में भी ज्ञात और अज्ञात प्रदेश किस तरह हैं देखिए! मैं यह बात जानता हूँ कि पेटदर्द के लिए वैद्यकीय उपचार उपलब्ध हैं यानी मैं इस बात की जानकारी रखता हूँ कि कहाँ पर इसका इलाज मैं करा सकता हूँ तो यह ज्ञात प्रदेश हो गया। परन्तु मैं यह नहीं जानता हूँ कि आखिर पेटदर्द किस कारण से हो रहा और इसका क्या नतीजा निकल सकता है यानी इस बात से मैं अनजान हूँ अर्थात् मैं उस बारे में अंधा हूँ यानी यह मेरे लिए अज्ञात प्रदेश है।

ज़ाहिर है कि बाबा अंधे की गऊओं को सँभालते ही हैं, इस बात का अर्थ यहाँ पर स्पष्ट है और वह यह है कि वैद्यकीय इलाज करवाना यह मेरा काम है, साईनाथ के द्वारा दी गयी बुद्धि का उपयोग करके उचित उपचार करवाना यह मेरा कर्तव्य है। लेकिन ऐसा न करते हुए यदि मैं कहता हूँ कि बाबा ही सब कुछ संभाल लेंगे, मैं कुछ नहीं करूँगा तो यह बात सर्वथा गलत है। यदि मेरी भक्ति उच्च कोटी की है तो बात और है। परन्तु मैं यदि एक सामान्य गृहस्थाश्रमी मनुष्य हूँ और अपनी योग्यता भी मैं जानता हूँ। मैं अपनी योग्यतानुसार जितना मुझे करना चाहिए उतना यदि करता हूँ और जो मैं नहीं जानता हूँ, जो मेरी क्षमता से परे है, उसका ध्यान मेरे साईबाबा रखेंगे ही, यह मेरा भरोसा होता है, तब बाबा मेरी रक्षा करते ही हैं।

अकसर होता यह है कि हम हमेशा उलटा ही व्यवहार करते हैं। वैद्यकीय उपचार, जो हमें करवाना चाहिए वहाँ पर हम अपनी आँखें बंद कर लेते हैं और पेटदर्द क्यों हो रहा है, यह ठीक भी होगा या नहीं इन जैसी मेरे लिए अज्ञात रहने वाली बातों के झमेले में पड़ कर चिंता करते रहते हैं। उपचार करने के स्थान पर व्यर्थ की चिंता में समय गवाते हैं। मेरे हाथ में जो है वह मुझे करना ही चाहिए। जैसे परीक्षा में बैठना है तो परीक्षा की तैयारी तो मुझे करनी ही है। परन्तु वहीं मैं नहीं करता। परीक्षा में मुझे इतने अंक प्राप्त होंगे, फिर मैं यह करूँगा, वह करूँगा आदि बातों की कल्पना में खो जाता हूँ या परीक्षा के परिणाम की चिंता करने लगता हूँ। पढ़ाई करना मेरा काम है, इसके बाद क्या होना चाहिए यह मेरे साईनाथ देख लेंगे। इसकी चिंता करने की मुझे कोई ज़रूरत नहीं है।

जो भी कार्य हो, उसे अपनी क्षमता के अनुसार यानी इस विषय में मैं कितना ज्ञान रखता हूँ, इस विषय में कहाँ पर कितना अंधा हूँ, इस बात का पूरा ध्यान रखकर मैं यदि अपना काम करता हूँ तब उस कार्य के अज्ञात प्रदेश की चिंता साईनाथ करते ही हैं। जो भी कोई अपना स्वयं का कार्य सतर्कता के साथ करता है और जो स्वयं के अंधत्व को कबूल कर लेता है अर्थात जिस बात की जानकारी मुझे नहीं है उसे कबूल कर लेता है, उसकी गऊओं की सुरक्षा ये साईनाथ करते ही हैं। साईनाथ की भक्ति एवं सेवा इस कार्य को यदि मैं पूरी क्षमता के साथ करता हूँ तो जो मुझे पता नहीं अथवा मेरी क्षमता से परे है, उसका ध्यान अकसर साईनाथ रखते ही हैं।

साईनाथ ने हमें अच्छी खासी आँखें देने के बावजूद भी हम अपनी आँखें बंद रखेंगे, नींद का मजा लूटते रहेंगे और बाबा हमारी गऊओं का ध्यान रखेंगे ऐसा कहना सर्वथा गलत ही होगा।

सोनेवाले की आँखें और अंधे की आँखों में का़ङ्गी अंतर होता है। अंधेपन का नाटक करके मैं दूसरों को धोखा दे सकता हूँ परन्तु बाबा तो सब कुछ जानते हैं। कौन सच में अँधा है और कौन आँखों के होते हुए भी अंधा बनकर दूसरों को फँसा रहा है, यह भी बाबा जानते ही हैं।

अकसर हमारा यही कहना होता है कि यह कैसे हुआ? बाबा ने मेरा नुकसान क्यों होने दिया? मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ? पर ऐसे समय में हमें हमेशा एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि जिस तरह से यह सब कुछ हुआ है, वह सब हमारी ही गलती के कारण हुआ है, क्योंकि हमारे समझदार होने के बावजूद भी, बाबा के द्वारा सामर्थ्य दिया गया होने के बावजूद भी हमने इन सब का उपयोग नहीं किया और इसीलिए यह सब कुछ हुआ है।

बाबा ने मुझे दृष्टि प्रदान की है और उसका उपयोग न करते हुए हम आँखें बंद करके चलते हैं और इस कारण यदि गड्ढे में गिर जाते हैं या ठोकर लग जाती है और अपनी गलती कबूल करने के बजाय हम बाबा को ही दोष देते हैं, तो यह सर्वथा अनुचित ही है। बाबा ने मेरी गऊओं का ध्यान क्यों नहीं रखा, यह पूछना ही सर्वथा अनुचित होगा। बाबा ने मुझे जब अच्छी-खासी आँखें दे रखी हैं तो मुझे उन्हें खुली रखकर ही चलना चाहिए या नहीं? बाबा अंधे की लाठी ज़रूर बनते हैं, अंधेपन का नाटक करनेवालों की लाठी नहीं बनते, यह बात हमें हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए। हर किसी को कर्मस्वातंत्र्य है परन्तु हम उसका उपयोग कैसे करते हैं, यह हर एक व्यक्ति पर निर्भर करता है।

मैं खाई में कूद पडूँगा और बाबा दौड़कर मुझे बचाये ऐसा यदि मैं कहता हूँ तो क्या यह उचित होगा? सामने खाई दिखायी दे रही है और मैं भली भाँति यह जानता हूँ कि यदि मैं इसमें गिर पड़ा तो मर जाऊँगा, तो फिर उस खाई में कूदना यह क्या उचित होगा? निश्‍चित ही नहीं। इसके विपरित यदि मैं रास्ते पर सावधानीपूर्वक चलते हुए अचानक मेरा पैर ज़मीन पर ऊपर नीचे पड़ जाता है, तब ऐसे में मुझे बचाने के लिए बाबा समर्थ हैं।

भविष्यकाल के गर्भ में जो कुछ भी छिपा हुआ है, जिसके बारे में मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं हैं, उससे मुझे बचाने के लिए, मेरी सुरक्षा करने के लिए बाबा समर्थ हैं, पर कब? जब भविष्यकाल के प्रति अंध रहनेवाला, परन्तु वर्तमान में फूक-फूंककर कदम उठानेवाला मैं बाबा की भक्ति करते हुए बाबा के द्वारा प्रदान की गई दृष्टि का उपयोग वर्तमान में भली-भाँति कर रहा हूँ, तब ही। भविष्यकाल के प्रति अंध रहनेवाला परन्तु वर्तमानकाल के प्रति जागरूक रहनेवाला मैं यदि बाबा के द्वारा प्रदान की गई दृष्टि का उपयोग ठीक से कर रहा हूँ तब ही जाकर मैं अनुभव करूँगा कि भविष्यकाल के प्रति अंध होनेवाले भक्त का परिपालन करके के लिए बाबा समर्थ ही हैं और वे अपने भक्त की रक्षा करते ही हैं। पर यदि हम भविष्यकाल की ओर देखते रहें और वर्तमानकाल के प्रति आँखें बंद रखें तो कैसे चलेगा?

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