श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ (भाग-२८)

यही है गुरुकृपा की महिमा। कि जहाँ पर न हो रत्ती भर भी नमी।
वहाँ पर भी वृक्ष पुष्पित हो उठता है। घना हो उठता है बिना प्रयास के ही॥

इस पंक्ति में वर्णित ‘बिना प्रयास के ही’ यह शब्द काफ़ी महत्त्वपूर्ण है। साईनाथ की गुरुकृपा की महिमा यही है कि जहाँ पर ज़रा सी भी नमी नहीं होती ऐसे स्थान पर भी गुरुकृपा से हरा-भरा घना वृक्ष खिल उठता है और वह भी ‘बिना प्रयास के’ ही यानी भक्त के द्वारा किसी भी प्रकार का प्रयास किए बगैर। हमें ऐसा लगता है कि हेमाडपंत यहाँ पर ‘बगैर प्रयास किए’ ऐसा क्यों कह रहे हैं? प्रयास अर्थात परिश्रम, मेहनत। हेमाडपंत यहाँ पर कह रहे हैं कि बगैर प्रयास किए ही गुरुकृपा तुम्हारी बंजर ज़मीन में भी नंदनवन खिला देती है। फिर हम कहेंगे कि अच्छा है, हमें कुछ करने की ज़रूरत ही नहीं है, बाबा से एक बार कह दिया कि बस हो गया। परन्तु ‘बगैर प्रयास’ का अर्थ यह बिलकुल भी नहीं है। हमें प्रयास नहीं करना पड़ता है, परन्तु ‘सहज-कार्य’ तो करना ही पड़ता है। सहज कर्म का अर्थ मूलप्रेरणा (Basic Intinct) यह नहीं है।

सहज कर्म अर्थात जो कर्म करने के लिए प्रयास करने की ज़रूरत नहीं पड़ती, कोई विशेष कष्ट करना नहीं पड़ता, कष्ट उठाना नहीं पड़ता, ऐसा सहज आसान कर्म। इस प्रकार के सहज कर्म ही जीवन में हरिकृपा प्रवाहित करते हैं। तो इस प्रकार के सहज कर्म कौन से होते हैं? सब से पहला है ‘सद्गुरु-गुणसंकीर्तन’ करना। इसीलिए सभी संतों ने गुणसंकीर्तन के महत्त्व को बार-बार दोहराया है। साईनाथ ने हेमाडपंत से साईसच्चरित लिखवाया वह इसी लिए। गुणसंकीर्तन करना यही सर्वथा ‘सहज’ कर्म है क्योंकि यह करने के लिए ‘प्रयास’ करने की ज़रूरत नहीं पड़ती और यह करने के लिए मेरे पास किसी विशेष गुण के होने की आवश्यकता भी नहीं होती है। इतना सहज आसान है यह गुणसंकीर्तन करना।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईमैं कितना शिक्षित हूँ, मेरी आर्थिक स्थिति कैसी है, मेरे पास कौन-कौन से गुण हैं, क्या मैं वक्तृत्व में पारंगत हूँ, मुझ में कितना बल है, भक्तिमार्ग के प्रवाह में मैं किस पड़ाव तक पहुँचा हूँ आदि किसी भी बात के बारे में यहाँ पर सोचने की ज़रूरत ही नहीं। मैं यदि अनाड़ी हूँ, तब भी, मैं अपनी टूटी-फूटी भाषा में गुणसंकीर्तन कर सकता हूँ, साईनाथ के पवाड़े (यशोगान) गा सकता हूँ। मुझे यदि गाना नहीं आता, मुझे वक्तृत्व करना नहीं आता, फिर भी मैं गुणसंकीर्तन कर सकता हूँ क्योंकि गुणसंकीर्तन करने के लिए ऊपर लिखित किसी भी योग्यता की मुझे आवश्यकता नहीं है, यदि किसी बात की आवश्यकता है तो केवल ‘प्रेम’ की।

हेमाडपंत कहते हैं कि प्रयास से नहीं बल्कि प्रेम से ही सद्गुरु-कृपा जीवन में प्रवाहित होती है। गुणसंकीर्तन में हमें किसी भी प्रकार की शारिरीक, बौद्धिक अथवा मानसिक प्रयास करने की ज़रूरत नहीं पड़ती। बाबा का गुण संकीर्तन करने के लिए अपनी जेब से एक पैसा भी खर्च करने की ज़रूरत नहीं पड़ती। बाबा का गुणसंकीर्तन करना यह हर किसी के लिए बिलकुल आसान है। और इसीलिए इसे अप्रयास कर्म यानी ‘सहजकर्म’ कहा गया है। भगवान के गुण हमारे मन में उतरते रहते हैं, हमारे मन पर अधिकार स्थापित करने लगते हैं और हमारे मन को व्याप्त करने लगते हैं। इस परमात्मा का एक-एक गुण यानी उनका ऐश्‍वर्य। इसी कारण परमात्मा का ऐश्‍वर्य हमारे जीवन में प्रवाहित होता है। इसके साथ ही इन सभी गुणों के अधिनायक कहलाने वाले साईनाथ, ये भगवान अपने-आप ही हमारे जीवन के कर्ता बन जाते हैं और उनकी ही कृपा से हमारे जीवन का नंदनवन बन जाता है। गुणसंकीर्तन के लिए जरूरत होती है केवल पवित्र प्रेम की। साईनाथ के प्रति होनेवाले प्रेम के साथ ही मैं अपने साईनाथ का गुणगान करता रहता हूँ, उनकी लीलाओं का वर्णन करता रहता हूँ और प्रेमस्वरूप श्रीसाईनाथ अपनी कृपा से मेरे प्रारब्ध का नाश करते हैं। हमें जीवन में शांति, तृप्ति, पुरुषार्थ, समाधान आदि का बगीचा पुष्पित करना है तो हमें निरंतर साईनाथ का गुणसंकीर्तन करना ही चाहिए।

श्रद्धावान जब साईप्रेमवश साईनाथ का गुणसंकीर्तन करते रहता है, तब उसके जीवन के सारे कार्य अपने आप ही सुगम एवं सरल हो जाते हैं। बुरा प्रारब्ध अपने-आप ही आसान हो जाता है और जीवन सहज सुंदर बन जाता है। गुणसंकीर्तन से यह सब सहज स्वाभाविक होने का महत् कारण है – ‘पवित्र प्रेम’। गुणसंकीर्तन बारंबार करते रहने से मन में साईनाथ का प्रेम बढ़ते ही रहता है और जितने अधिक प्रमाण में हमारा प्रेम बढ़ता रहता है, उसी अनुपात में ये प्रेमस्वरूप परमात्मा हमारे जीवन में अधिक से अधिक सक्रिय होते हैं, हमारे जीवन में कर्ता बन जाते हैं यानी वे ही हमारे ‘सारथी’ बन जाते हैं। ये साईश्याम, ये साईगोपाल मेरे जीवन रथ के सारथी बन जाये, इसके लिए सब से सहज आसान उपाय अर्थात गुणसंकीर्तन और जिसके जीवनरथ के सभी सूत्र उस साईगोविन्द के ही हाथों में हैं, उस रथ के घोड़े कभी भी बौखलाते नहीं हैं, वह रथ कभी भी मार्गभ्रष्ट नहीं होता है। कलिकाल, प्रारब्ध का नाश, षड्रिपु-अहंकार के शस्त्रास्त्र, पाश मेरा बाल भी बाँका नहीं कर सकते हैं और अंतिम विजय श्रद्धावान की ही होती है।

हेमाडपंत कहते हैं कि बाबा ने ही मुझे इस गुणसंकीर्तन के मार्ग पर चलाया। बाबाने ही मुझे यह सर्वोत्तम सरल सहज सुंदर मार्ग प्रदान किया। इसके लिए मुझे कभी भी प्रयास नहीं करना पड़ा। मैं तो बस केवल सहजता से साईनाथ का गुणसंकीर्तन करता रहा और किसी भी प्रकार का प्रयास किए बगैर ही यानी सहजकर्म करके, गुणसंकीर्तन का सहजकर्म, जो साईनाथ ने ही करवाया, इसी से मेरे जीवन में साईसच्चरितरूपी पेड़ बाबा ने ही खिलाया। आपके समान ही एक सामान्य गृहस्थ रहनेवाले मुझ जैसे सर्वसाधारण योग्यता रखनेवाले मनुष्य के जीवन में यदि यह हो सकता है, तो फिर यह सब आपके जीवन में भला क्यों नहीं हो सकता? आप सभी के जीवन में शांति-तृप्ति-पुरुषार्थ का यह वृक्ष अवश्य खिल सकता हैं। इसके लिए किसी भी प्रकार का ‘प्रयास’ करने की ज़रूरत नहीं है, केवल सहज कर्म रहने वाला गुणसंकीर्तन करते रहिए। कोई सुन या न सुने, आप बस बाबा का गुणसंकीर्तन गाते रहिए। बस् इतना आसान है यह।

काफ़ी क़ठीन लगने वाले किसी गणित को चुटकी बजाकर एक ही पल में जैसे कोई सहज ही हल करके दिखा दे, उसी प्रकार हेमाडपंत इस पंक्ति के माध्यम से हमें महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शन कर रहे हैं। वे कहते हैं कि सहजकर्म को आचरण में उतारने के लिए गुणसंकीर्तन करते रहने से क्या हमें कोई कष्ट होगा? कभी नहीं। जैसे मैं कर सकता हूँ वैसे मैं गुणसंकीर्तन करते ही रहूँगा, बस्। मुझे कभी भी किसी के भी साथ तुलना नहीं करनी हैं। अरे, यह तो बाबा का भजन कितने अच्छे से गाता है! अरे, इसने बाबा का कितना बड़ा मंदिर बनवाया! इसने कितने सारे तीर्थों की यात्रा की है! इस तरह की तुलना हमें नहीं करनी है। अरे, यह तो इतनी उपासना करता है, सेवा, भक्ति, साधना, दान आदि करता है और मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं है। इस तरह से तुलना हमें कभी नहीं करनी चाहिए। बाबा को जिससे जो करवाना होता है उससे वे वह करवा लेते हैं।

मैंने इनमें से कुछ भी नहीं किया है और कर भी नहीं सकता हूँ, मैं सामान्य साधारण मानव हूँ, यह कहकर मन को छोटा करने की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि गुणसंकीर्तन यह राजमार्ग, सब से सहज, आसान, सुंदर मार्ग है। और इसे स्वयं साईनाथ ने ही हम सब के लिए प्रकाशित किया है और यह गुणसंकीर्तन ही सही मायने में ‘रामरसायन’ है, हमारे जीवन में ‘राम’ को लाने के लिए, राजाराम को प्रगट करने के लिए।

जिनके पास रामरसायनरूपी गुणसंकीर्तन है उनके पास संपूर्ण विश्‍व का सर्वोत्तम खज़ाना है, उसी के पास पूर्णत: श्रीराम हैं। सीतामाई, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, हनुमंत, सुग्रीव, अंगद, बिभीषण इन महान भक्तों से लेकर हर एक वानर सैनिक तक सभी के आचरण में एक ही तत्त्व विशेष रूप में निरंतर दिखायी देता है और वह है राजा राम का गुणसंकीर्तन। हमें भी वानरसैनिकों के, अयोध्यावासियों के इसी मार्ग का स्वीकार करना है। यह गुणसंकीर्तन कठिन नहीं है, यह बिलकुल ही सहज, आसान, सुंदर एवं सरल मार्ग है। हेमाडपंत यही बात हम से सुस्पष्ट रूप में कह रहे हैं।

कोई आगे चलकर बनायेगा मठ। कोई देवालय तो कोई घाट।
हम पकड़ेंगे सीधी बाट (राह)। चरित्र-पाठ श्री साई का।

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