श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ (भाग-२५)

मुझे अच्छा लगे या ना लगे। तुम जो चाहते हो वही हो।
यही माँग करते हुए। जीभ मेरी न लड़खड़ाने पाये॥

‘मुझे क्या पसंद है और क्या नापसंद है’ इसकी अपेक्षा ‘मेरे इस साईनाथ को क्या पसंद है और क्या पसंद नहीं है’ यही मेरे लिए अधिक महत्त्व रखता है। मुझे जो पसंद है वह मेरे लिए उचित होगा ही ऐसा नहीं कहा जा सकता है। शायद वह घातक भी हो सकता है।

अकसर हम अपने व्यावहारिक जीवन में भी बिलकुल यही अनुभव लेते रहते हैं। परन्तु उससे कुछ सीखते नहीं हैं। जिसे मधुमेह होता है, उसे मीठा ही खाना पसंद होता है। जिसे आम्ल-पित्त की तकलीफ होती है, उसे अकसर तीखी चीजें पसंद होती हैं। जिनका वजन अधिक होता है, उन्हें अकसर तली-छनी हुई चीजें अच्छी लगती हैं। इन सभी बातों का विचार करने पर इस बात का पता चलता है कि उस व्यक्ति को जब पता चलता है कि इन चीजों के कारण ही उसे इस तकलीफ से गुज़रना पड़ रहा है, तब उसे इस बात का अहसास होता है कि मेरी पसंद के कारण ही मैं इस बीमारी का शिकार हुआ हूँ।

हम अपनी बेटी की शादी करने के लिए लड़का देखते हैं। यदि कोई पसंद आ जाता है तो हम जो जानकारी मिली है, उससे सन्तुष्ट होकर उसके बारे में अधिक पूछताछ नहीं करते हैं। ऐसे में यदि कोई उसके खिलाफ जानकारी देता भी है तो हम उसे अनसुना कर देते हैं और उस रिश्ते के लिए हामी भर देते हैं। परन्तु आगे चलकर कुछ समय पश्‍चात् हमें इस बात का अहसास होता है कि जो रिश्ता हमने पसंद किया था, वह योग्य नहीं था।

हमें बस किसी की बातचीत करने की पद्धति पसंद आ जाती है और वही बात हमारे मन में जगह बना लेती है। देखते ही देखते हम उसके साथ भागीदारी में व्यवसाय शुरू कर देते हैं, परन्तु कुछ ही महीनों में इस बात का अहसास हो जाता है कि जो हमें उस विशेष व्यक्ति में अच्छा लगा था, वह मेरी समझ का दोष था।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाई

कच्ची उम्र होने पर भले-बुरे की पहचान कर पाना मुश्किल होता है। ऐसे में पढ़ाई करना पसंद नहीं होता, फिल्में अच्छी लगती हैं, स्वयं को अभिनेता-अभिनेत्री बनने की इच्छा होती है। ऐसे में अपने पास क्षमता न होने पर भी अभिनय क्षेत्र में बगैर किसी से राय लिए, बगैर किसी की बात सुने युवक ‘हिरो’ बनने चल पड़ते हैं और जब अपनी गलती का अहसास होता है उस समय हाथ से समय के साथ साथ काफी कुछ निकल चुका होता है। ना शिक्षा पूरी हो पाती है ना अन्य कुछ। अभिनेता अथवा अभिनेत्री बनने की क्षमता न होने के बावज़ूद भी केवल ‘पसंद’ है इसलिए हम उसे करने को तैयार हो जाते हैं, तब यही होता हैं।

युवावस्था में सामने वाला व्यक्ति कभी अच्छा लगने लगता है। यह सच में ‘प्यार’ है अथवा केवल शारीरिक आकर्षण है, क्या वह व्यक्ति भी सच में मुझ से प्यार करता है, क्या यह समय इस तरह की बातों में उलझने का है आदि बातों का विचार करना अधिक महत्त्व रखता है। कभी-कभी होता यह है कि हम बाहरी दिखावे में आकर गलत निर्णय कर बैठते हैं और आगे चलकर जीवनभर पछताने की यानी पश्‍चात्ताप करने की नौबत आ जाती है।

पसंद-नापसंद यह तो मन की वृत्ति होती है और उस पर पूर्णत: विवेकबुद्धी का अंकुश होना यही अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात है। हमारे जीवन में आनेवाले पल में क्या होनेवाला है इसके बारे में हम कुछ भी नहीं जानते हैं। मेरे लिए उचित क्या है और अनुचित क्या है, इस बात का फैसला करना कभी-कभी मेरे लिए मुश्किल होता है, क्योंकि मेरी बुद्धी उस समय कम पड़ जाती है।

सोचसमझकर निर्णय लेना कर एक के लिए आवश्यक ही है। सोचिए कि कल यदि मेरी वार्षिक परीक्षा है और मुझे क्रिकेट का काफ़ी शौक है और ऐसे में वर्ल्ड कप की फायनल मैच चल रही है। मन में इच्छा होने के कारण मन की दौड़ तो फायनल मैच देखने की होगी और यहीं पर पूर्ण रूपेण विवेकबुद्धी से काम लेना जरूरी है। विवेकबुद्धि के कारण ही मेरे लिए उचित क्या है और अनुचित क्या है इसका मुझे पता चलता है। इसीलिए उचित को चुनना यह मेरी पहली ज़िम्मेदारी होगी। ऐसे में मैं साईनाथ से विनति करता हूँ कि बाबा आज मैं मैच देखता हूँ, क्योंकि यह मुझे अच्छा लगता है, कल जो मेरी परीक्षा होनेवाली है, उसे आप सँभाल लेना तो ऐसे में क्या होगा? इस तरह से भक्तिमार्ग की विडंबना करना बहुत बड़ा अपराध है। निश्‍चित ही बाबा का सटका (साई के पास रहनेवाले दंड को वे सटका कहते थे) खाना पड़ेगा।

कई बार ऐसा होता है कि हम अपनी जिम्मेदारी को झटक देते हैं, अनदेखा कर देते हैं और भगवान की आँखों में धूल झोंकने की कोशिश करते हैं। परन्तु ऐसा करना सर्वथा गलत है। हमारा जन्म मानव योनि में हुआ है, हमारे पास इतनी स्पष्ट बुद्धि तो होती ही है कि हम अच्छे बुरे को पहचान कर सकें, फिर हमारे अख्तीयार में आनेवाली बातों की ज़िम्मेदारी हमारी ही हुईना! इसमें हमें उचित मार्ग पर चलने के लिए लगनेवाली जो ताकत है, जिस मनोबल की ज़रूरत है; उसे देने के लिए, सभी प्रकार की सहायता देने के लिए हमारे अपने साईनाथ तत्पर ही हैं, परन्तु कर्मस्वातंत्र्य का उचित उपयोग करने की जिम्मेदारी मेरी ही है।

साईनाथ के पारतंत्र्य का स्वीकार करना यानी साई की आज्ञा क पालन करना यही कर्मस्वातंत्र्य का उचित उपयोग करना है। इसका पता हमें तब चलता है जब जीवन में ऐसी घटनाएँ घटित होती हैं कि जिसके कार्यकारण भाव की जानकारी हमें प्राप्त ही नहीं हो सकती हैं, ऐसे में हमारे जीवन रथ का सारथी हमारे श्रीकृष्ण ही होना ज़रूरी है इस बात का अहसास होता है।

‘तुम जो चाहते हो वही हो’ यह कहना यानी अपने जीवनरथ का सारथी बनने के लिए श्रीकृष्ण से प्रार्थना करना है। इस साईनाथ के हाथों में सभी सूत्र सौंप देना ही समझदारी है। इनके हाथों में मेरे रथ का सारथ्य यदि है तो ही मैं जीवन में विजयी हो सकता हूँ, यही गीता हम से कहती है। हेमाडपंत भी यहाँ पर हमसे यही कह रहे हैं की इस साईनाथ की इच्छा में ही रहो, इन्हीं को तुम अपने जीवन रथ का सारथी बनाओ। तुम अपने स्वयं के कर्मस्वातंत्र्य का उपयोग करके रथ चलाने की कोशिश मत करना; क्योंकि कुशल, निष्णात, अमोघ सारथ्य केवल एकमात्र ये साईनाथ ही कर सकते हैं।

श्रीकृष्ण के कहेनुसार केवल बाण चलाना यह जिस तरह अर्जुन का काम था, उसी तरह हमारे साथ भी होना चाहिए। ‘श्रीकृष्ण जैसा कहेंगे, वही और उसी प्रकार से’। मुझे क्या लगता है, मुझे क्या अच्छा लगता है, क्या अच्छा नहीं लगता इससे मेरा कुछ भी लेना-देना नहीं है। श्रीकृष्ण की जो इच्छा है वैसा ही हो, अर्जुन का यह निश्‍चय हमारे जीवन में भी उतारना चाहिए। अर्जुन को भी आरंभ में यही लगता था कि सामने लड़ने वालों में ये मेरे गुरु हैं, मेरे पितामह हैं, मेरे ही चचेरे भाई हैं, इनके साथ मैं कैसे लडूँगा? उन्हें भी यह पसंद नहीं था। इसी विषाद में वे अपना धनुष्य गांडीव नीचे रख देते हैं, कमजोर पड़ जाते हैं; परन्तु श्रीकृष्ण ने उन्हें उनके कर्तव्य का, कर्म का अहसास करवाया, उनकी ‘पसंद-नापसंद वाली’ मन की वृत्तियों को मात देकर उनके अंदर के श्रद्धावान को जागृत किया और ‘मामनुस्मर युद्ध्य च’ कहकर उनसे पुरुषार्थ करवाया। पसंद-नापसंद ये सभी हमें पुरुषार्थ से परावृत्त करते रहते हैं और इसीलिए हमारे पास श्रीकृष्ण का सारथी के रूप में होना आवश्यक है।

भगवद्गीता के आरंभ में अर्जुन की स्थिति एवं हमारे जीवन के रणसंग्राम की हमारी स्थिति बिलकुल एक जैसी ही है। युद्ध आरंभ होने से पहले की अर्जुन की स्थिति देखने जाए तो कोई भी यह कह सकता था कि अब ये युद्ध नहीं कर सकेंगे। शौर्य, पराक्रम, वीरता इन सब का अंश भी धनुष्य-बाण का त्याग कर देनेवाले, कंठ सूख चुके, पूरा बदन कंपयामान हो रहे अर्जुन के पास नहीं रह गया था। हमारे जीवन में भी हमारी परिस्थिति भी कुछ ऐसी ही होती है।

जहाँ पर बिलकुल भी स्निग्धता नहीं होती, वहाँ की ज़मीन पर नंदनवन का खिलना तो दूर की बात है, एक साधारण पौधे का उगना भी संभव नहीं होता है। ऐसा ही कुछ हुआ होता है अर्जुन के साथ, हमारे साथ! हमें तो रणभूमि में सीधे खड़े रहना भी नहीं आता, इस कदर हम अंदर से टूट जाते हैं। ‘मैं यह युद्ध नहीं लड़ सकता’ ऐसा मुझे लगता है। फिर ऐसा व्यक्ति रणभूमि में पराक्रम क्या दिखलाएगा! बिलकुल वैसे ही हमें लगता है कि प्रयास करना भी मेरे लिए संभव नहीं होगा।

परन्तु यहीं पर हमें भी यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि हमारी परिस्थिति चाहे कितनी भी बिकट क्यों न हो चुकी हो, परन्तु हम यदि इस साईनाथ को अपना सारथी मानते हैं, सखा मानते हैं, तो फिर हमें घबराने की, हताश होने की कोई ज़रूरत नहीं है। ये मेरे सखा, मेरे सद्गुरु साईनाथ मुझे विजयी करेंगे ही। चाहे कितना भी बड़ा युद्ध क्यों ना हो, कितना भी बड़ा संकट क्यों न हो और मैं कितना भी अक्षम क्यों न हो जाऊँ, मग़र फिर भी मेरे सारथी साईनाथ का होना ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है और वे सारथी उसी के बनते हैं, जो उनकी बात पूरी तरह से सुनता है।

अर्जुन इस शब्द का अर्थ है ऋजुता को धारण करने वाला अर्थात श्रीकृष्ण की हर एक बात को अच्छी तरह से सुननेवाला, उनकी बातों का शत प्रतिशत पालन करनेवाला। अर्जुन यदि जिज्ञासापूर्वक अपनी जानकारी हेतु अनेक प्रश्‍न भी श्रीकृष्ण से पूछते हैं, मग़र फिर भी अंत में वे वही करते हैं, जो श्रीकृष्ण कहते हैं। हमें भी यही सीखना है कि ये साईनाथ जो कह रहे हैं उसी में मेरी भलाई है। वही मैं करूँगा; फिर चाहे जो भी हो जाये। ऐसे श्रद्धावान के जीवन के उस बंजर मरुस्थल को भी नंदनवन वे बनायेंगे ही। हेमाडपंत हमें यही बात तो बतला रहे हैं।

यही है गुरुकृपा की महिमा। कि जहाँ पर न हो रत्ती भर भी नमी।
वहाँ पर भी वृक्ष पुष्पित हो उठता है। घना हो उठता है बिना प्रयास के ही॥

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