श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ (भाग-२३)

यही है गुरुकृपा की महिमा। कि जहाँ पर न हो रत्ती भर भी नमी।
वहाँ पर भी वृक्ष पुष्पित हो उठता है। घना हो उठता है बिना प्रयास के ही॥

हमारा मन शंका-कुशंका, तर्क-कुतर्क, अहंकार, षड्रिपु आदि से इतना अधिक रूक्ष (रूखा) बन चुका होता है कि ऐसे रूक्षस्थान पर भक्ति तो क्या, किसी भी बीज का अंकुरित होना, वृक्ष का खिल उठना यह भी असंभव है। सद्गुरु के प्रति अविश्‍वास, अश्रद्धा होने के कारण, विकल्पग्रस्तता के कारण हम मन से अधिक रूक्ष यानी रूखे हो जाते हैं और फिर ऐसे रूक्ष-रूखे जीवन में केवल दो ही बातें हो सकती हैं।

१) मृगतृष्णा
२) रेत के महल

हमारे मन के ‘रूखे’ रेगिस्तान पर कल्पना नाम की रेत उसे अधिक रूखा बनाने का काम करती है। कल्पना का अर्थ है – वास्तविकता को छोड़कर, सत्य से विमुख रहनेवाली फलाशा। और फिर इस कल्पनारूपी रेत के कारण हमारे मन में या तो मृगतृष्णा उत्पन्न होती है या फिर फिर रेत के महल ही अस्तित्व में रह सकते हैं। इन दो बातों के अलावा अन्य कुछ भी अस्तित्व में आ ही नहीं सकता है। इसी कल्पना के कारण हमारा मन मृगतृष्णा के समान काल्पनिक सुख के पीछे भागते रहता है। और आगे चलकर पता चलता है कि यह मृगतृष्णा कभी खत्म नहीं होती, बस बढ़ती ही जाती है, जो केवल मायावी होती है और उसमें सुख नहीं, केवल सुख का आभास ही होता है। वास्तव में वह केवल दुख ही होता है, जिसे पाने की लालसा में हम सुधबुध खो बैठते हैं।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईएक ओर ऐसी स्थिति मन में होती है, वहीं दूसरी ओर कल्पना के रेत का महल जो एक हवा के झोके से ही ढह जाता है। कल्पनारूपी रेत का महल यानी मन की चंचलता। मन कभी भी एक पल के लिए भी किसी एक विचार में स्थिर नहीं रह सकता है। निरंतर हमारे मन में विकल्प उठते ही रहते हैं और इसके साथ ही कल्पनाएँ भी, जो अकसर गलत ही होती हैं। इससे कुछ भी फलीभूत नहीं होता। एक कल्पना देखते ही देखते एक ऊँचा पहाड बन जाती है और कभी दूसरी कल्पना दूसरा पहाड खड़ा कर देती है। पहली कल्पना का पर्वत गायब हुआ न हुआ कि दूसरी कल्पना का टीला उठकर खड़ा हो जाता है, फिर उसके बाद तीसरा इसी प्रकार से यह शृंखला चलती ही रहती है। कल्पनाओं के महल बनाते रहने के अलावा हमारे पास और कुछ नहीं रह जाता है, साथ ही मन की सारी शक्ति भी व्यर्थ में ही खर्च होती रहती है।

इसी तरह हमारा यह ‘रूखा’ मन प्रारब्ध की आग में जलकर राख बनते रहता है। ऐसे में हमारे मन के रूखे मरूस्थल में आखिर कुछ उगेगा भी तो वह कैसे? विकासरूपी वृक्ष का कोई भी बीज यहाँ पर अकुंरित हो ही नहीं सकता है। परन्तु साईनाथ की अकारण करूणा को तो देखिए! यह इस साईनाथ की ही अपरंपार कृपा है कि वे इस तरह की रूखी ज़मीन में भी भक्ति का वृक्ष खिलाने का काम भी पलक झपकते ही कर दिखाते हैं। केवल साईनाथ के पास ही यह सामर्थ्य है, केवल वे ही यह काम करत सकते हैं। साईबाबा के बारे में हमारे मन में बहुत बार इस तरह के विचार आते हैं कि बाबा दक्षिणा क्यों माँगते हैं, कभी हम से नाराज़गी क्यों दिखाते हैं, हमें हमारी इच्छा के अनुसार वहाँ से निकलने की आज्ञा क्यों नहीं देते हैं। साईनाथजी के बारे में अनेक विकल्प हमारे मन में आते रहते हैं, मग़र इसके बावजूद भी वे हम पर ज़रा सा भी क्रोध नहीं करते, वे तो हमारा भला ही करते हैं। हमारा उद्धार हो, हमारी प्रगति हो इस उद्देश्य से हमें ऋणमुक्त करने के लिए वे हमसे दक्षिणा माँगते हैं। दक्षिणा माँगते समय वे ये नहीं सोचते कि लोग क्या कहते होंगे। वे किसी भी बात की परवाह किए बगैर स्वयं जननिंदा आदि सहकर हमारी भलाई की ही खातिर भिक्षा, दक्षिणा आदि माँगते रहते हैं। क्या और कोई भी ऐसा हो सकता है? कोई भी नहीं। यह काम केवल मेरे साईनाथ ही हमारे प्रति होनेवाले प्रेम की खातिर ही करते रहते हैं।

मैं कितनी भक्ति करता हूँ, मैं कितनी सेवा करता हूँ, ऐसा कहने से पहले मेरे इस साईनाथ ने मेरे मन की रूखी ज़मीन पर नंदनवन खिलाने के लिए कितनी कोशिशें कीं और कर ही रहे हैं, इस बात के अहसास के साथ ‘बाबा ही मेरे लिए निरंतर प्रयास करते रहते हैं’ ऐसा कहना चाहिए। फिर मैंने कितना कुछ किया और करता हूँ’ यह विचार भी मन में नहीं आयेगा। साईनाथ मेरे मन के रूखे मरूस्थल में नंदनवन खिलाने में समर्थ हैं ही, परन्तु मुझे इसके लिए अपने इस मन को ‘दक्षिणा’ के रूप में बाबा को अर्पण करने आना चाहिए।

आद्यपिपा श्री. सुरेशचन्द्र दत्तोपाध्ये हमें यह दिशा अपने अभंग के माध्यम से दिखाते हैं।

पिपा कहें मेरे बंजर मन में। इन्होंने ही खिला दिया बगीचा।
इनका बगीचा इन्हें ही सौंपकर। पिपा बाग बाग हो गया ॥

हेमाडपंत हम से यही कह रहे हैं कि इस सद्गुरु साईनाथ की महिमा तो देखिए! इन्होंने बंजर, रूखे ऐसे इस मन में भक्ति का घना वृक्ष ही खिला दिया। इसके लिए भक्त को किसी भी प्रकार का प्रयास नहीं करना पड़ा है, सब कुछ इस साईनाथ ने ही किया। इसीलिए हेर्माडपंत ने ‘अप्रयास’ इस शब्द का उपयोग किया है। इसका अर्थ यही है कि बाबा ही सब कुछ करनेवाले हैं।

यह पढ़ने के बाद यदि मैं ऐसा सोचूँ कि बाबा ही सब कुछ करते हैं तो फिर मैं क्यों करूँ तो ऐसा कहना सर्वथा गलत ही है। मुझे अपने मन को उनके चरणों में अर्पण करना ही है। साईनाथ ने जो वृक्ष बढ़ाया है, जिस नंदनवन को पुष्पित किया है, उसे उपासना एवं सेवा नामक खाद-मिट्टी-पानी आदि डालना और उसकी देखरेख तो मुझे ही करनी है। बाबा हम से कहते हैं – ‘तुम ज़ोर लगाओ’। इसका अर्थ भी यही है कि तुम केवल मेरी आज्ञा के अनुसार भक्तिमार्ग पर चलते रहो, उपासना और सेवा आदि की खाद-मिट्टी-पानी डालते रहो, बाकी सारी बातों का ध्यान रखने के लिए मैं समर्थ हूँ ही।

बाबा ने हमारे मरुस्थल को हरा-भरा बगीचा बना दिया है, उस बगीचे को हरा-भरा बनाये रखने के लिए खाद-पानी कैसे प्राप्त करना है, इस बात की भी सारी जानकारी भी साईसच्चरित में स्पष्ट रूप में दी है। उपासना एवं सेवा इन दोनों को साथ में करते हुए पिपीलिका मार्ग पर चलते हुए प्रवास करना यही सत्कर्म उस बगीचे को हरा भरा एवं फला फूला रखता है। उपासना एवं सेवा करने की ताकत साईबाबा ही देते हैं। हमारे कुशल-मंगल की ज़िम्मेदारी वे स्वयं पर ले लेते हैं। उसी तरह हमारे इस पुष्पित बगीचे को सुंदर बनाये रखने की ज़िम्मेदारी भी मैं ही उठाऊँगा यह अभिवचन भी साई ही देते हैं। तो फिर अब कम से कम बाबा के कहेनुसार केवल प्रतिदिन उसमें पानी ड़ालना, समय-समय पर खाद-मिट्टी डालना, क्या इतना भी हम नहीं कर सकते हैं।

सही मायने में यदि देखा जाए तो हमारा काम कितना आसान है, कम है, फिर भी इतना करने में भी हमें कष्ट महसूस होते हैं। यदि दिल से हम सोचकर देखें तो पता चलता है कि बाबा हमारे लिए कितना अधिक कष्ट उठाते हैं और हम खुद के लिए कुछ भी नहीं करते हैं।

बाबा अपने लिए तो कुछ भी करने के लिए हम से नहीं कहते हैं। हम अपने स्वयं के विकास के लिए यदि थोड़ा-बहुत परिश्रम नहीं करना चाहेंगे तो कैसे होगा? हेमाडपंत यहाँ पर हमें इस बात का अहसास करवाते हैं कि बाबा की कृपा की महिमा देखिए! भक्तवत्सल साईबाबा के दिन-रात होते रहनेवाले परिश्रम देखिए, असंभव को संभव बना देने का बाबा का सामर्थ्य देखिए और इसके पश्‍चात् हमें क्या करना है वह भी सोचिए।

मुझे सचमुच कोई भी कष्ट नहीं उठाने हैं, मुझे तो बस उठकर बैठना ही है। साईनाथ की उपासना और सेवा अपनी पूरी क्षमता के साथ करते रहना, बस इतना ही हमारा सहज और आसान काम है। इसके पश्‍चात् हमारे मन के मरूस्थल का, रूखी ज़मीन का रूपांतरण नंदनवन में करने का काम इस साईनाथ का ही है और केवल वे ही यह काम कर सकते हैं।

अब हमें ही इसका फैसला करना है कि साईबाबा को दक्षिणा के रूप में अपना मन ही अर्पण करके जीवन में नंदनवन पुष्पित करवाना है या ‘मैं’ ‘मैं’ करते रहकर मन को रूखा मरूस्थल बनाकर वहाँ पर मृगतृष्णा की तलाश में जीवन भर भागते फिरना है। अब हमें ही इसका फैसला करना है कि साई के चर्णों में अपना घर बनाना है या रेत के महल बनाकर कल्पना में जीवन जीता है, जिन्हें मिटाने के लिए हवा का एक झोंका ही काफ़ी है। क्या करना है, इस बात का निर्णय मुझे ही लेना है।

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