श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-१०३

‘तुम कहीं भी कुछ भी करो, परन्तु इतना सदैव स्मरण रहे कि तुम्हारी कृतियों की पूरी की पूरी खबर ‘मुझे’ तत्क्षण मिलती ही रहती है।’ यह कहने के पश्‍चात् बाबा आगे ‘ऐसा मैं’ कौन हूँ यह भी स्पष्टरूप में बतलाते हैं।

यहाँ पर निदर्शित जो ‘मैं’ हूँ। वह हूँ सभी का अन्तर्यामी।
वही हूँ मैं हृदयस्थ सर्वगामी। हूँ मैं स्वामी सभी का॥

चराचर में भी सबाह्याभ्यंतर मैं। संपूर्ण चराचर में व्याप्त होकर भी वैसा ही हूँ।
यह सकल सूत्र है ईश्‍वरी। सूत्रधारी हूँ मैं उसका॥

तात्पर्य यह है कि बाबा यहाँ पर स्वयं अपना परिचय इन पंक्तियों के माध्यम से दे रहे हैं।

‘मैं कौन हूँ?’

मैं ‘अनल हक नहीं, मैं यादे हक हूँ।’

वैसे भी यह बात तो बाबा बारंबार कहते थे, यह बात तो हम सभी जानते हैं। यहाँ पर बाबा स्पष्ट रूप में परमेश्‍वर एवं परमात्मा इन संकल्पनाओं को स्पष्ट करके बतला रहे हैं। बाबा अन्तर्यामी हृदयस्थ परमात्मा हैं, यह तो हमने देखा है। इसके साथ ही बाबा कहते हैं कि यह संपूर्ण विश्‍व जिस परमेश्‍वरी सूत्रों के आधार पर चलता है उसी परमेश्‍वर का मैं सूत्रधारी हूँ, सूत्र उन परमेश्‍वर का है, मैं बस सूत्रधार हूँ।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईबाबा यहाँ पर अपनी पहचान स्पष्ट रूप में करवा रहे हैं। वे दत्तगुरु, वे परमेश्‍वर इस विश्‍व के मूल आधार हैं, उन्हीं दत्तगुरु की इच्छा से परमेश्‍वर की इच्छा से एवं उनके नियमों से ही यह विश्‍व चलता है। परमेश्‍वरी सूत्रों के अनुसार ही इस संपूर्ण विश्‍व का कारोबार चलता है। मैं उस परमेश्‍वर का, दत्तगुरु का आज्ञांकित हूँ, मैं उनके सूत्रों के अनुसार ही इस विश्‍व का कारोबार चलता हूँ। इसी लिए सर्वसमर्थ परमेश्‍वर दत्तगुरु ही विश्‍व के मूल आधार हैं और मैं केवल सूत्रधार हूँ, उनका प्रतिनिधि हूँ।

दत्तगुरु परमेश्‍वर ये अवर्चनीय एवं अनाविष्कृत हैं अर्थात् हम सामान्य मानव उन्हें उस दत्तगुरु को कभी भी देख नहीं सकते हैं। क्योंकि वे कभी भी सगुण रूप धारण नहीं करते हैं। उनकी इच्छा से ही उनका प्रेम ‘परमात्म’-स्वरूप में इस विश्‍व में आकृति धारण करता है और यह भर्गस्वरूप, प्रेमस्वरूप परमात्मा ही श्रीदत्तगुरु की आज्ञा से, इच्छा से एवं नियमों के अनुसार इस विश्‍व के सूत्रधार हैं। पवित्रता अधिष्ठित सत्य, प्रेम एवं आनंद ये एकत्रित रूप में इस विश्‍व के सूत्र हैं अर्थात् ‘पावित्र ही सर्वोच्च प्रमाण हैं।’ यही इस विश्‍व का सूत्र है। श्रीरामरसायन ग्रंथ में श्रीअनिरुद्धजी ने यही स्पष्ट किया है।

इसी लिए हमें अपना लक्ष्य सदैव परमात्मा की ओर ही रखना चाहिए। केवल ये परमात्मा साईनाथ ही हमारे समुद्धारकर्ता हैं, इनके बगैर हमारा और कोई नहीं है। परमेश्‍वर दत्तगुरु को देखना यह हमारे बस की बात नहीं है। हमें केवल उस परमेश्‍वर के सूत्र सत्य, प्रेम एवं आनंद का, पावित्र्य का सदैव ध्यान रखकर दत्तगुरु के प्रप्रौत्र होनेवाले इस परमात्मा की भक्ति अधिकाधिक करनी चाहिए।

जिसका ध्यान और कहीं भी न भटककर केवल इस साईनाथ के चरणों में ही टीका हुआ है, वही इस मोहमाया के जंजाल में बगैर फँसे आराम से उस पार जा सकता है। साईनाथ कहते हैं – ‘ध्यान बनाये रखता है जो मेरी ओर। नहीं उसे कभी कोई भी भय।’ इससे हमजान सकते हैं कि जिसे बाबा का विस्मरण हो जाता है, वह मोहमाया के जंजाल में फँस जाता है।

बाबा के प्रति ध्यान लगाये रहनेवाले भक्त के जीवन में कभी भी किसी भी विपरित परिस्थिति का भय नहीं रहता। परन्तु जिसे बाबा का विस्मरण हो जाता है, उसे मोह-माया के जंजाल में फँसकर ठोकरें खानी ही पड़ती हैं। हमें दुख क्यों भुगतना पड़ता है, इस बात का उत्तर स्वयं बाबा हमें यहाँ पर देते हैं। बाबा का ‘स्मरण’ न रहा, हमें उनका ‘विस्मरण’ हो गया तो जान लो कि जीवन का रूपांतरण ‘रण’ में हो ही गया। साई का विस्मरण हो चुके जिसके जीवन में रण उठ खड़ा होता है, उसे जीते जी ही मौत की यातनाएँ भुगतनी पड़ती हैं। साई के स्मरण का ‘स्म’ जीवन से निकल जाने के पश्‍चात् बाकी रह जाता है केवल ‘रण’ और आगे चलकर ‘मरण’।

हमारे जीवन में, मन में अकसर ‘रण’ ही चलता रहता है। हमारा जीवन अकसर रणग्रस्त ही रहता है। इसका एकमात्र कारण है, साईनाथ का विस्मरण। बाबा का ध्यान तो हमारी ओर बना ही रहता है, इसी स्मरण से ही बाबा का स्मरण हमारे मन में अपने आप ही बना रहता है। और फिर रण का भोग हमें कभी भी भुगतना नहीं पड़ता है। श्रीसाईनाथ की अखंड स्मृति ही भक्ति है और साईनाथ की विस्मृति जब मुझे होती है, वही माया कहलाती है।

बाबा का स्मरण सदैव मेरे जीवन में बना रहे इसके लिए मुझे क्या करना चाहिए? जीवन में रण न छिड़ कर मेरा ‘उद्धार’ हो इसके लिए मुझे क्या करना चाहिए?

इस बात का उत्तर इसी अध्याय में हेमाडपंतजी ने पहले ही दे रखा है। ‘श्रीसाईनाथ का गुणसंकीर्तन’, ‘श्रीसाईनाथ का नामसंकीर्तन’ करने के उद्देश्य से हेमाडपंत ने श्रीसाईसच्चरित लिखने का निर्धार किया और श्रीसाईनाथ का गुणसंकीर्तन करने से अपने आप साईनाथ का स्मरण हमें रहता है।

हमें इस बात का विचार करना चाहिए कि हेमाडपंत से बाबा ने ‘श्रीसाईसच्चरित’ यह ग्रंथ स्वयं ही लिखवाया और वह भी इसलिए कि इससे हमारा स्मरण समृद्ध हो और रण उत्पन्न ही न हो। बाबा ने हमारी खातिर इतने प्रयास किए, इतना सुंदर ग्रंथ स्वयं ही हमारें हाथों में दिया तो फिर उसका पठन, चिंतन, मनन करना हमें इतना मुश्किल क्यों लगता है?

बाबा ने यहाँ पर हमारे लिए स्वयं ही सेतु का निर्माण कर रखा है। हमें केवल इस सेतु पर से आनंदपूर्वक चलते जाना है, पर यह भी हमसे नहीं होता है? ठीक है, बाबा स्वयं हमसे कह रहे हैं कि तुम्हारे साथ सदैव मैं होता ही हूँ, तुम्हारा सारा भार मैंने उठा रखा है, तुम सारी चिंता छोड़कर केवल प्रेमप्रवास करो। परन्तु हमसे यह भी क्यों नहीं हो सकता है? सच में, बाबा ने स्वयं परिश्रम करके हमारे लिए इतना सब कुछ आसान कर रखा है, फिर भी यदि हमारी ओर से एक कदम भी बढ़ाने की तैयारी नहीं होगी तो फिर हमारे समान अभागे हम ही हो सकते हैं।

बाबा ने ‘मैं कौन’ हूँ यह भी बतला दिया। तुम मोह-माया के जंजाल में फँसकर तकलीफें उठाते हो यह भी बतला दिया, उससे बचने के लिए क्या करना चाहिए यह भी बतला दिया और हम सब के लिए पिपिलिकापथ भी निर्माण करके खुला कर दिया, बाबा स्वयं ही हमारे साथ मार्गदर्शन करते हुए चल रहे हैं। इतना सब कुछ बाबा हमारे लिए निरपेक्ष प्रेम से कर ही रहे हैं, फिर भी यदि हम उदासीनता दिखलाते हैं तो हमारा विकास कैसे होगा? श्रीसाईनाथ का यह पिपिलिकापथ ही हमारा समुद्धार करनेवाला है। केवल यही एकमात्र साईनाथ हमारा समुद्धारकर्ता है, इससे अधिक आसान करके देनेवाला और कोई भी नहीं है।

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