श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ (भाग-०१)

पढ़ा हमने गत अध्याय में। दिया संपूर्ण अनुमोदन साई ने।
कहा मेरी पूरी अनुमति है। चरित्र-लेखन करने के लिए॥

तृतीय अध्याय के आरंभ में हेमाडपंत हमें द्वितीय के विषय का स्मरण कराते हुए यह बता रहे हैं कि बाबा ने हेमाडपंत को चरित्र-लेखन करने की अनुमति देते हुए कहा, ‘‘मेरी ओर से तुम्हें पूर्णत: अनुमति है। तुम खुशी-खुशी चरित्र लेखन का कार्य शुरु कर दो। तुम अपना कार्य करो, मन में यत्किंचित् भी संकोच मत करना कि यह इतना बड़ा कार्य कैसे होगा। मेरे वचन पर पूरा विश्‍वास रखकर मन का निर्धार कर लो। मेरी लीला का लेखन करने से अविद्या दोषों का निराकरण होगा और जो भी कोई पूर्ण श्रद्धा एवं भक्तिभाव के साथ इन कथाओं का श्रवण करेगा, उसकी आसक्ति दूर हो जायेगी। अर्थात् वह श्रद्धावान साईचरणों में एकनिष्ठ होकर अपनी स्वयं की गृहस्थी एवं परमार्थ को आनंदमय बना सकेगा। इस साईसच्चरित का श्रवण करने से भक्ति प्रेमामृत की लहरें उमड़ पड़ती हैं और इस चरित्रग्रंथ में डूबकी लगाने पर यानी इन कथाओं का चिंतन करने पर हर बार बोधरत्न हाथ लगेंगे।’’

चरित्र लेखन का कार्य

बाबा ने हेमाडपंत को दिया हुआ यह आश्‍वासन हमारे लिए काफी महत्त्वपूर्ण है। श्रवणसागर में डूबकी लगाना यानी श्रवण, मनन, चिंतन और निदिध्यास के द्वारा बोधरत्न प्राप्त करना और मुख्य तौर पर उसे अपने आचरण में उतारना। ये कथाएँ केवल सुनना और उन्हें भूला देना ऐसा नहीं करना चाहिए। इस कथासागर में ‘डूबकी’ लगानी चाहिए। इसका अर्थ हमें इन कथाओं का स्मरण रखना चाहिए। हमें बार-बार उन्हें याद करते रहना है, उनका चिंतन करना है और इस चिंतन से समय-समय पर जो बोध होगा, उसी के अनुसार साईं जैसा चाहते हैं वैसा आचरण करने के लिए हमें निरंतर प्रयत्न करते रहना है। जो इस तरह बारंबार डूबकी मारते रहता है, वह इस भवसागर में कभी डूबता नहीं हैं।

इस अध्याय में हम आगे चलकर रोहिले की कथा से संबंधित चर्चा तो करेंगे ही परन्तु इसके साथ ही ‘साई उवाच’ अर्थात् बाबा के मुख से निकले वचन, जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं, वे हेमाडपंत ने इस अध्याय में दिए हैं और जो इस अध्याय की विशेषता है, उनका भी अध्ययन करेंगे। इसीलिए आरंभ में ही बाबा के उद्गार से हेमाडपंत हमें श्रवण के प्रति, चिंतन के प्रति सावधान कर रहे हैं। पुन: अध्याय के अन्त में भी श्रवण, चिंतन, निदिध्यास का महत्त्व वे बता ही रहे हैं। इस अध्याय में आनेवाली रोहिले की कथा जिस तरह से महत्त्व रखती है, उसी तरह साईमुख से निकले बोल को परखकर, उस पर मनन, चिन्तन, करना भी उतना ही अधिक महत्त्वपूर्ण है। बाबा के मुख से निकले हर एक बोल को हमें अत्यन्त प्रेमपूर्वक हृदय में धारण कर लेना चाहिए।

हम फजूल की बातों का व्यर्थ ही मनन, चिंतन करते रहते हैं। और साईनाथ से विमुख हो जाते हैं। हम जिसका चिंतन करते हैं, वैसी ही हमारे मन की आकृति बन जाती है, क्योंकि उस वस्तु के अथवा उस व्यक्तिविशेष के गुणधर्म उसके चिन्तन के साथ हमारे मन में प्रवाहित होते रहते हैं। इसी कारण किसी और का चिंतन करने की अपेक्षा बाबा का चिंतन करना यह अधिक महत्त्व रखता है। बाबा के सगुण रूप का ध्यान करना हमारे मन को कठिन लग सकता है, इसीलिए श्रवण का यह आसान मार्ग हेमाडपंत के माध्यम से ये साईनाथ हमें दिखा रहे हैं। बाबा क्या कहना चाहते हैं, क्या कहते हैं इसका यानी ‘साई उवाच’ का चिंतन बारंबार करते रहने पर धीरे-धीरे बाबा के बोलों सहित ये साईनाथ ही हमारे मन में उतरते रहते हैं और हम में उचित परिवर्तन अपने-आप ही कर देते हैं। कौन क्या कहता है, इसकी अपेक्षा ‘मेरे साईनाथ क्या कहते हैं’ यह हमारे लिए अधिक महत्त्व रखता है।

बाबा की ओर से अनुज्ञा प्राप्त होते ही हेमाडपंत का मन नि:शंक हो जाता है। और बाबा के ‘वचन’ को शिरोधार्थ मानकर, प्रमाण मानकर अब बाबा ही मुझसे यह सब करवा लेंगे, इस बात से वे निश्‍चिन्त हो जाते हैं। हेमाडपंत यहाँ पर अत्यन्त सुंदर शब्द स्वयं की भूमिका के बारे में उपयोग में लाते हैं – ‘वेठीचा बिगारी’ यानी बंधवा मजदूर। श्रीसाईसच्चरित लेखन का कार्य करने में मैं भी बंधवा मजदूर ही हूँ, कर्ता-करविता यानी करने-करानेवाले मेरे साईनाथ ही हैं। स्वयं को बंधवा मजदूर कहकर उन्होंने स्वयं के पास कर्तृत्व, किसी भी प्रकार का श्रेय न लेते हुए, अपनी इस स्वयं की ‘मैं तो केवल बाबा की आज्ञा के अनुसार बाबा के द्वारा दिया गया काम करनेवाला हूँ’ इस भूमिका को मज़बूत बनाया। इस भूमिका का ध्यान उन्हें हमेशा ही रहा यही हम साईसच्चरित में देखते हैं। हम भी जब भक्तिसेवा में शामिल होते हैं। उस समय हमें भी हेमाडपंत की ही तरह स्वयं की बंधवा मजदूर की भूमिका को समझकर इस भूमिका का ध्यान रखना चाहिए। हेमाडपंत ने स्वयं की भूमिका का पूरा अहसास रखकर ही श्रीसाईसच्चरित लेखन का आरंभ किया है।

सुनकर नि:शंक हो गया मन। साईचरणों में किया नमन।
फिर इस चरित्रलेखन का। साईस्मरण के साथ आरंभ किया॥
अनुमति के शब्द आते ही साई के होठों पर। वे ही हैं कार्य पूरा करने में समर्थ ।
किया शुभारंभ साईचरित्रलेखन का। मैं तो केवल आज्ञा का गुलाम॥

यहाँ पर हमें पता चलता है कि हेमाडपंत अब ‘भक्त’ की भूमिका से ‘दास’ की भूमिका में पदार्पण कर जाते हैं। बंधवा मजदूर अर्थात बाबा का अनन्य दास। हेमाडपंत हमसे यहाँ पर यही कह रहे हैं कि हर किसी को अपने जीवन में इसी तरह प्रगति करनी चाहिए। ‘भक्त’ से लेकर ‘दास’ तक का यह प्रवास करना चाहिए। भक्त से दास बन जाना यानी सकाम भक्ति से निष्काम भक्ति तक का सफर करना। बंधवा मजदूर यानी वह खरीदा हुआ गुलाम, जो बगैर किसी पैसे आदि की अपेक्षा के जीवनभर अपने मालिक का काम करते रहता है और उसका मालिक उसे जिस हाल में भी रखेगा, वह उसी हाल में रहता है। अब वैसे देखा जाय तो बंधवा मजदूर की प्रथा खत्म हो चुकी है और वह उचित भी है। मनुष्य का किसी अन्य मनुष्य को बंधवा मजदूर बनाकर रखना सरासर गलत है, क्योंकि इसमें इन्सानियत नहीं होती। यदि बंधवा मजदूर बनना ही है तो केवल भगवान के बनना है, क्योंकि प्रभु के यहाँ बंधवा मजदूर बनकर काम करना काफ़ी आनंददायी होता है। इस भगवान के दास्यत्व में ही पूर्ण स्वतंत्रता होती है, सच्ची खुशी मिलती है।

भक्त यानी ऐसा नौकर, जो अपने भगवान को ही अपना मालिक मानता हैं; परन्तु वह उनसे कुछ अपेक्षा रखता है, क्योंकि वह पूरी तरह निष्काम नहीं हुआ रहता है। वह भगवान से प्रेम करता तो है, परन्तु उस में सकामता होती है और इसीलिए ‘भगवान मुझे यह दे, वह दे’, ‘इस मुसीबत को दूर कर दे’ आदि कहकर वह कामनापूर्ति हेतु ही भक्ति करता है। यह भी सच है कि किसी गलत रास्ते का इस्तेमाल करने की अपेक्षा भगवान की ही भक्ति करना हमेशा अच्छा ही होता है। हम सामान्य मनुष्य होने के कारण यकायक निष्काम दासत्व का अंगीकार नहीं कर सकते हैं। दास यानी जिसने अपना सब कुछ भगवान को ही समर्पित कर दिया है वह। स्वयं को भगवान का दास मानने वाला और बिना किसी भी अपेक्षा के मैं भगवान के लिए और क्या कुछ करत सकता हूँ, इस का ध्यान रखते हुए आचरण करनेवाला और भगवान के प्रति अपने प्रेम को और भी बढ़ाते रहनेवाला ही भगवान का दास है। इस प्रकार के दास की ये साईराम कभी भी उपेक्षा नहीं करते हैं। साईराम के इस वचन का हमें सदैव स्मरण रखना चाहिए।

आज हम भक्त हैं, कोई बात नहीं, परन्तु हमारा ध्येय इस भगवान का, इस साईनाथ का दास बनने का यानी सद्गुरुतत्त्व का बंधवा-मजदूर बनने का ही होना चाहिए। हेमाडपंत यहाँ पर हमसे यही कह रहे हैं और यही साईराम का अभिवचन भी है- ‘मैं कदापि तुम्हारा त्याग नहीं करूँगा’। परन्तु उनके इस वचन को हमारे जीवन में प्रवाहित होने के लिए उनका बंधवा मजदूर बनना यही मेरी ज़रूरत होनी चाहिए।

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