श्रीसाईसच्चरित : अध्याय २ (भाग- ७)

चाहा करना स्वरूप निर्धार। मौन हो गये यहाँ वेद भी चार।
तुम्हारे इस रुप का विचार। कर सकूँ मैं कैसे॥

हे साईनाथ, तुम्हारा स्वरूप कैसा है इसका वर्णन करते समय ये चारों वेद भी मौन धारण कर लेते हैं, वे भी तुम्हारे रुप को नहीं जान पाते हैं फ़ीर मेरे जैसे को भला कैसे पता चल सकता हैं? हेमाडपंत स्वयं अपनी मर्यादा की सीमा में रहकर ही यह साईसच्चरित लिख रहे हैं। साथ ही वे यहाँ पर यह भी स्पष्ट कर रहे हैं कि इसका अर्थ यह भी नहीं है कि बाबा को जानना ही संभव नहीं। इसीलिए बाबा के बारे में कुछ बोलना ही नहीं, बाबा के स्वरूप का निर्धार नहीं हो सकता है, इसलिए बाबा की भक्ति-सेवा मैं कैसे करूँगा ऐसा कहकर चुपचाप बैठे न रहकर, ‘मैं’ कुछ कर रहा हूँ, ऐसी भी मनोवृत्ति न रखकर बाबा ही मेरे मन की इच्छा पूरी करने के लिए मुझे यह सेवा करने का सामर्थ्य प्रदान कर रहे हैं, इस भाव से कार्यरत रहना चाहिए।

मर्यादा

भक्त जो सेवा करने की इच्छा रखता है, वह बाबा स्वयं ही प्रेरणा एवं सामर्थ्य देकर उससे करवा लेते हैं, भक्त केवल ‘निमित्त’ मात्र होता है। इसीलिए मुझे जो सेवा करने की इच्छा होती है, उसके बारे में बाबा को बतलाना चाहिए, प्रार्थना करनी चाहिए फ़ीर बाबा भक्त की इच्छा पूरी करते ही हैं। जो कोई भी इस प्रकार की भक्ति-सेवा की उचित इच्छा रखता है, उसकी इच्छा बाबा पूरा न करें ऐसा हो सकता है क्या? हेमाडपंत कहते है कि जो इस भगवंत के चरित्र को लिखने की इच्छा से कार्यरत रहते हैं, उनके ऊपर भगवान का प्रेम रहता ही है, तो फ़ीर मैं अपने कार्यपूर्ति के लिए मन में भय क्यों रखूँ? मेरे मन में जिस उद्देश्य से सत्य, प्रेम, आनंद को लेकर इस प्रकार की पवित्र भावना उत्पन्न हुई है इससे यही साबित होता है कि, निश्‍चित ही उस स्फ़ूर्तिदाता भगवंत की ही यह इच्छा है और उनका यह कार्य पूरा करवाने के लिए वे समर्थ हैं। मेरे बाबा अपना काम तो पूरी लगन के साथ करते ही हैं। मुझे ही अपना ‘बस्ता’ रखने का काम पूरे विश्‍वास के साथ करना चाहिए। मैं यदि ‘मूर्ख’ भी हूँ तो क्या हुआ मैं अपने साई का तो हूँ और साई के भक्तिमार्ग पर चलने का प्रयास भी कर रहा हूँ, इसीलिए मेरे साई मेरा ध्यान रखने के लिए समर्थ हैं, ही।

सारांश ये साई स्वयं करवायें। निज चरित्र मूर्खसे लिखवायें।
वही जाने इस कथा की महानता। गौरवगान करें जो, आदरसहित॥

यहीं पर हमें जानना चाहिए कि, मैं यदि जड़बुद्धी भी हूँ, मैं यदि मूर्ख भी हूँ, मैं कैसा भी हूँ, परन्तु मैं अपने इस साई के सामने झूठा मुखौटा लगाकर उनके शरण में नहीं आया हूँ, मैं अपने बाबा का ही हूँ। मैं यदि अपने इस साईनाथ का हूँ, तो मुझे किसी भी प्रकार की हीन भावना रखने की आवश्यकता नहीं है। भक्तिमार्ग में हमें यही सीखना चाहिए कि हम यदि साईनाथ के भक्तिमार्ग पर हैं तो मुझे किसी भी प्रकार की हीन भावना रखने की ज़रूरत नहीं है। मैं सामान्य मनुष्य हूँ, मुझ में दोष तो होगा ही, परन्तु मैं यदि बाबा की सेवा-भक्ति में रहकर अपने-आप को सुधारने की कोशिश करता हूँ तो मेरे बाबा मुझे अपनी इच्छानुसार जैसा वे चाहते हैं, वैसा बनाने के लिए, मेरे दोषों का निरसन कर मेरा विकास करने में सक्षम हैं। मुझे सचमुच अपने बाबा के प्रति अभिमान होना चाहिए।

हम तो बस यूँ ही ‘मुझ में ये कमी हैं, मुझ से यह गलती हुई’ इस प्रकार की हीन भावना रखकर स्वयं को छोटा मानते रहते हैं। इसके बिलकुल विपरीत में हमें अपने बाबा के प्रति अभिमान होना चाहिए। मैं चाहे जैसा भी हूँ, पर हूँ तो अपने बाबा का ही मेरे बाबा तो ‘ग्रेट’ हैं। मेरे बाबा सर्वसमर्थ हैं मुझे इस बात का अभिमान होना चाहिए। हमारी आदत इतनी बुरी रहती हैं कि, स्वयं अपने आप को हम हीन मानते हैं और अपने आप को कोसते रहते हैं। परन्तु इससे हम स्वयं अपना ही नुकसान करते रहते हैं। इसके बजाय यदि हम साईनाथ पर अभिमान रखते हैं तो मुझे भी सामर्थ्य प्राप्त होगा और धीरे-धीरे हमारी गलतियाँ भी कम हो जायेंगी। यदि हम स्वयं ही अपने प्रति हीन भावना रखते हैं तो दूसरे लोग भी हमें कमज़ोर समझते हैं, हमारा उपहास करते हैं। और यदि हम अपने बाबा के प्रति अभिमान रखते हैं तब हम स्वयं ही लोगों के सामने छाती ठोककर कह सकते हैं कि, मैं अपने बाबा का हूँ। और मेरे बाबा मुझे समर्थ बना ही रहे हैं। परन्तु तुम लोग बाबा की भक्ति को ठुकराकर मेरा उपहास उड़ाकर स्वयं अपने लिए गड्ढ़ा खोद रहे हो। तुम मुझे जो चाहे कहो मुझे इसकी कोई परवाह नहीं है। मेरे बाबा क्या कहते हैं, यह बात मेरे लिए अधिक महत्त्वपूर्ण हैं और इसीलिए तुम्हारे हँसनेसे, चिढ़ाने से, निंदा करने से, मज़ाक उड़ाने से मुझे कोई फ़र्क नही पड़ता है।

उल्टे तुम्हीं देवों को मानते नहीं, तुम्हीं नास्तिकता का पत्थर उठाकर अपने सिर पर पटकते रहते हो और दूसरों का दोष निकालकर अपने खुद के दोषों को अनदेखा का देते हो, स्वयं ही अधोगति की दिशा में प्रयास कर रह हो। तुम पहले अपने आप को देखो तुम्हारे पैरों तले की ज़मीन खीसक रही है उसे देखो। मेरी चिंता करने के लिए मेरे साईनाथ समर्थ हैं। तुम मेरा मज़ाक उड़ाते हो, मुझ पर हँस रहे हो कोई बात नहीं मुझे तुम्हें महत्त्व देने की ज़रूरत नहीं है, परन्तु तुम यदि मेरे साईनाथ के खिलाफ़ एक भी गलत शब्द का उपयोग किया तो मुझसे बुरा कोई न होगा। मुझे कोई यदि कहता है तो मैं सहलूँगा लेकिन यदि मेरे साई के प्रति बोलता तो? मैं कभी भी बर्दाश्त नहीं करूँगा यह जबाब हमें देते आना ही चाहिए। इसी लिए हेमाडपंत आगे साईसच्चरित में कहते हैं कि इस तरह के नास्तिक जो भगवान की निंदा करते हैं उनकी परछाई से भी दूर रहना चाहिए। यदि हम और कुछ नहीं कर सकते हैं तो कम से कम इतना तो हम कर ही सकते हैं।

अपने भगवान की निंदा कभी भी सहन नहीं करनी चाहिए। मेरे ये साईनाथ मेरे भगवान ही हैं, कोई माने या न माने। इसी लिए इस साईनाथ के बारे में यदि कोई कुछ सही गलत बोलता है तो हमें तुरंत ही उसका जवाब देते आना चाहिए और इसके साथ ही हमारे देश की न्यायसंस्था के अनुसार ही कार्यवाही करने में पिछे नही हटना चाहिए। बाबा के पैरों की धूल बनने की भी जिसकी औकात नहीं है ऐसे निंदकों को उनकी जगह दिखा देनी चाहिए। बाबा के प्रति कुछ कहनेवाले आखिर ये होते ही कौन हैं? हम यदि और कुछ नहीं कर सकते हैं तो कम से कम जहाँ पर मेरे साईनाथ की निंदा चल रही है अथवा निंदा करने वाले लोग हैं तो उस स्थान से तुरंत ही मुझे चले जाना चाहिए। ऐसे लोगों का हमें मुँह भी नहीं देखना है।

स्वयं को कभी भी हीन नहीं समझना चाहिए कारण यदि हम साईभक्त हैं तो स्वाभाविक हैं कि हम उत्कृष्ट मार्ग के पथिक हैं। निश्‍चित ही हम उत्तम श्रद्धावान हैं। दोष किसमें नहीं होता? हर किसी में दोष होता ही है इसीलिए मुझ में दोष है तो मैं अन्य भक्तों की बराबरी में बहुत ही निम्न स्तर रखता हूँ। यह सोच बिलकुल गलत है। उलटे हम अपने दोषों को दूर करने के लिए उचित मार्ग का अनुकरण कर रहे हैं इस बात की खुशी होनी चाहिए। हम बाबा की भक्ति में हैं। हमें हमेशा सकारत्मक दृष्टिकोन ही रखना चाहिए। मुख्य बात तो यह है कि मेरे बाबा ‘ग्रेट’ हैं ही। वे मुझे पूर्णत्व प्रदान करेंगे ही इसी निष्ठा के साथ बाबा के प्रति हमारे मन में अभिमान होना चाहिए।

हेमाडपंत के इस बोल से हमें यही मर्म समझ में आता हैं। वे स्वयं कहते हैं कि मैं जैसा भी हूँ, पर मेरे साईनाथ तो सर्व समर्थ हैं ही और वे ही अपना यह कार्य निश्‍चित ही मुझसे पूरा करवा लेंगे। इस बात का मुझे पूरा विश्‍वास है। हम जब भक्ति-सेवा करते हैं तो सोचते हैं क्या यह काम मैं कर सकता हूँ? हम इसे पूरा कर पायेंगे क्या? यह मेरे बस की बात है क्या? इन प्रश्‍नों में उलझने की बजाय हमें अपना काम पूरी ईमानदारी के साथ करते रहना चाहिए। जो श्रद्धावान अपने प्रयास में कोई भी कसर नहीं रखता है, उसे पूर्णत्व प्रदान करने में साईनाथ समर्थ हैं ही।

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