श्रीसाईसच्चरित: अध्याय-२ (भाग-५६)

‘हेमाडपंत’ की कथा एक अन्य मर्म को भी उद्घाटित करती है और वह मर्म है, सद्गुरु अपने भक्तों में उचित परिवर्तन कराने के लिए ही लीला करते हैं, भक्तों के मन को बदलने के लिए ही सद्गुरु इस प्रकार की लीला करते हैं। सबसे बड़ा चमत्कार कौनसा? तो मानवी मन को बदलना, और केवल बदलना ही नहीं बल्कि मन का रूपांतरण चित्त में करना, मन को सर्वोच्च उत्क्रान्त स्थिति में ले जाना।

उचित परिवर्तन

सबसे अधिक मुश्किल कार्य है, मनुष्य के मन को बदलना, उसके मन में परिवर्तन करना, इस बात से हम सब निश्‍चित रूप से सहमत होंगे ही। अपनी आदतों को हम नहीं बदल सकते हैं, अपने मन की वृत्ति को हम नहीं बदल सकते हैं। उलटे जितना मन की किसी वृत्ति को हम दबाकर रखने की कोशिश करते हैं, उतनी ही तेज़ी से वह वृत्ति उछलकर हमारे सामने आती है।

हमें गुस्सा बहुत आता है इसलिए हम यह निश्‍चय करते हैं कि आज से मुझे जब अधिक गुस्सा आयेगा तब मैं एक से सौ तक गिनती बोलना शुरू कर दूँगा और स्वयं को गुस्सा नहीं आने दूँगा। आरंभिक समय में कुछ समय तक हमें इस कार्य में सफ़लता भी मिल सकती है, परन्तु इसी दौरान जब भी मुझे गुस्सा आता है, उसे दबाकर रखने के बावज़ूद भी एक दिन अचानक वह गुस्सा उबलकर बाहर आ जाता है और वह भी पहले की अपेक्षा अधिक प्रखरता के साथ। काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं मत्सर ये षड्रिपु हों अथवा कोई अन्य वृत्ति हो, उनका दमन करने की हमारी कोशिश सफ़ल नहीं होती। हमारी कुछ आदतें होती हैं और वे आदतें ही हमारी प्रगति में बाधा उत्पन्न करती रहती हैं। हम यह बात भली-भाँति जानते हैं परन्तु जानकर भी अनजान बनते रहते हैं। यही मानवी मन की शोकान्तिका है।

ऐसे इस मन को उचित दिशा प्रदान करने का कार्य केवल ये साईनाथ ही कर सकते हैं। मन तो मेरा रहता है परन्तु वह मेरी बात किसी भी कीमत पर सुनने को तैयार नहीं रहता है। जिस तरह कोई भेड़िया किसी खेत की फ़सलें तहस-नहस करना जानता है, कोई भी कितना भी उसे खदेड़ दे, परन्तु वह बारंबार उस खेत की ओर आते ही रहता है, बिलकुल उसी तरह हमारा मन भी पुन: पुन: उन्हीं विषय-वासनाओं की ओर, उस बाह्य प्रवृत्ति की ओर दौड़ते रहता है। हम चाहे कितनी भी कोशिशें क्यों न कर लें, मग़र फ़िर भी वह अपनी आदत नहीं छोड़ता है। इसका कारण यह है कि हमारी बुद्धि की अपेक्षा हमारा मन अधिक ताकतवर साबित होता है। उसका बल अधिक होता है। इसीलिए वह हमारी बात नहीं सुनता है।

मन और बुद्धि इनके बीच इसी तरह वाद-विवाद निरंतर चलते रहता है। तिखी वस्तु सामने होती है और हमें यह भी पता है कि पिछली बार तीखा खाने पर मुझे अम्लपित्त (अ‍ॅसिडिटी) की का़फ़ी तकलीफ़ भी हुई थी। इस अनुभव के कारण समझदार होनेवाली बुद्धि मन को सतत सावधान करती रहती है कि चाहे कितनी भी लार टपकती है, टपकने दो, लेकिन जान लो कि यह पदार्थ हमारे लिए हानिकारक है।

पर मन तो मन ही है। उसने भला कब किसी की सुनी है जो अब सुनेगा?

वह उस पदार्थ को खा ही लेता है। परिणामस्वरूप तकलीफ़ तो हमें उठानी ही पड़ती है। मन का पक्ष एवं बुद्धि का पक्ष ऐसे ये दो पक्ष सदैव हमारे अपने अन्त:करण में वादविवाद करते ही रहते हैं। इसके साथ ही सुमति और कुमति के बीच भी वाद-विवाद चलता ही रहता है। सुमति कहती है कि ये साईनाथ साक्षात् ईश्‍वर हैं, मुझे इन्हीं की शरण में जाना है, तुरन्त ही कुमति कहती हैं कि ये भी तो एक मनुष्य हैं, इन्हें गुस्सा आता है, ये हम मनुष्यों की तरह आचरण करते हैं, इन्हें भी ज़ुकाम-खाँसी होती है। ये दौड़-धूप करके दुकान में जाकर अनाज़ लेकर आते हैं। कहने का तात्पर्य यह हैं कि ये तो पूर्णत: मानवी गुणों से लिप्त हैं फ़िर भला ये भगवान कैसे हो सकते हैं?

मन में भी इसी तरह का द्वंद्व चलता रहता है। संकल्प-विकल्प, इच्छा-अनिच्छा ये तो मन का मूल द्वंद्व है ही। इस प्रकार के सभी द्वंद्वों में हमारी ऊर्जा का़फ़ी बड़े पैमाने पर खर्च होती रहती है। मन में अनेक विचारों की लहरें उ़ठती रहती हैं। एक लहर उ़ठती है और पास आती है, इसी के पीछे-पीछे दस लहरें और भी आ पहुँचती हैं। मन में विचारों के बादल मंड़राते रहते हैं, मन बेचैन हो जाता है।

कभी-कभी तो इन विचारों के दंगे में बुद्धि सुन्न पड़ जाती है, किसी भी प्रकार का निर्णय लेने की शक्ति ही इसमें नहीं रहती है। यह करूँ कि वह करूँ? एक ही समय पर दो जगहों से नौकरी के लिए कॉल आ जाता हैऔर दोनों ही अच्छी लगती हैं। फ़ीर आखिर मुझे कहाँ जाना चाहिए, किसे चुनना है यही समझ में नहीं आता है।

एक ही समय पर दो स्थानों से रिश्ता आ जाता है। परन्तु अपनी संतान के जीवन का सवाल है। इसीलिए मन दुविधा में पड़ जाता है कि किसे हाँ कहना है यही समझ में नहीं आता। कभी-कभी तो ऐसा होता है कि जिस रिश्ते को अच्छा समझकर हाँ कहा था, वहीं पर आगे चलकर पछताने की नौबत आ जाती है। सामनेवाले लोग अच्छे सज्जन दिखाई देते हैं, भक्तिमार्गी दिखाई देते हैं, लेकिन बाद में पता चलता है कि यह तो केवल उनका दिखावा है, उनका असली चेहरा शादी के बाद सामने आने लगता है।

‘चमकनेवाली हर चीज़ सोना नहीं होती’ यह कहावत तो हमने सुनी ही है। ‘किसी व्यक्ति के माथे पर तिलक है, गले में माला है, साईनाथ का नाम ले रहा है, शिरडी भी जाता है’ इतना दिखायी देने पर हमें यह निष्कर्ष तक नहीं पहुँचना चाहिए कि वह साईनाथ का सच्चा भक्त है। बाबा के पास हर प्रकार के लोग आते रहते हैं, यह बात तो हम साईसच्चरित में पढ़ते ही हैं। बाबा पैसा देते हैं यह सुनकर पैसों की लालच में आनेवाले भी थे ही। इसीलिए किसी पर भी विश्‍वास करके हमें गलत निष्कर्ष तक नहीं पहुँचना चाहिए, वरना आगे चलकर पछतावा करना पडता है।

ये साईनाथ अपने भक्त को जब वह कोई गलत कार्य करने जा रहा होता है उसी समय उसे सावधान कर देते हैं। दामुअण्णा घाटे का सौदा करने निकलते हैं, तब उन्हें बाबा ने उसी समय परावृत्त कर दिया। भक्त को अनुचित मार्ग का चुनाव करने से रोकनेवाले, सही व़क्त पर सावधान करनेवाले साईनाथ अपने भक्त को गलत दिशा में जाने से रोकने के लिए उसके मार्ग में रुकावट बन जाते हैं। ऐसे में हम कभी-कभी बाबा के साथ ही वाद-विवाद करने लगते हैं। बाबा के साथ प्यार से रूठना, झगड़ना और नाराज़ होना अलग बात है, क्योंकि वह अपने पिता के साथ किया हुआ संवाद है। मग़र अपने मन के विरुद्ध घटित होने के कारण बाबा के साथ वाद-विवाद करना गलत ही है। साईनाथ के साथ वाद-विवाद करना मेरे लिए का़फ़ी घातक होता है। क्योंकि बाबा तो कभी भी बुरा नहीं मानेंगें, उन्हें मेरे हित के लिए जो करना है वह तो वे करेंगे ही, लेकिन सद्गुरु के साथ बहस करने से मैं स्वयं उनकी कृपा का स्वीकार करने में अक्षम बन जाता हूँ।

यह सब कुछ जानने के बावजूद भी मैं यदि बाबा के साथ वाद-विवाद करने वाला हूँ तो मुझ जैसा अभागी और कौन हो सकता है! क्योंकि बाबा की बात न सुनने के कारण मैं स्वयं ही अपना नुकसान करते रहता हूँ। इसीलिए यहाँ पर हमें इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि हमें बाबा के साथ कभी भी वाद-विवाद नहीं करना चाहिए। बाबा से वाद-विवाद करना यह एक बहुत बड़ा प्रज्ञापराध है।

वाद-विवाद यह सदैव घातक ही होता है, फ़ीर चाहे वह किसी भी प्रकार का क्यों न हो! हमें इस वाद-विवाद के झमेले से दूर रखने के लिए ही बाबा ने हेमाडपंत से इस अध्याय को लिखवाया है। हेमाडपंत नामकरण की लीला के द्वारा बाबा ने हेमाडपंत में कितना आमूलाग्र बदलाव किया है, यही हम यहाँ पर देखते हैं। एक छोर से दूसरे विरुद्ध छोर तक हेमाडपंत के मन को बाबा ने इस लीला के द्वारा परिवर्तित कर दिया। ‘वादविवाद’ यह एक छोर है, वहीं ‘केवल साईनाथ के साथ अखंड संवाद’ यह दूसरा छोर है।

इस घटना के समय हेमाडपंत का मन वाद-विवाद को पसंद करनेवाला, वाद-विवाद में रुचि रखनेवाला था। वहीं, बाबा के द्वारा हेमाडपंत यह नामकरण किये जाते ही हेमाडपंत पूरी तरह निरहंकारी हो गए। एक पल में ही वाद-विवाद की कुमति खत्म हो गई, केवल साईनाथ के साथ अखंड संवाद शुरू हो गया और इस संवाद से ही यह श्रीसाईसच्चरित प्रकट हुआ।

जिस मुख से वाद-विवाद की भाषा बोली जा रही थी, उसी मुख से श्रीसाईसच्चरित की पंक्तियाँ प्रस्फ़ुटित होने लगीं। यह सब कुछ केवल एक साईनाथ ही कर सकते हैं। केवल एकमात्र मेरे ये बाबा ही मेरे मन को, स्वभाव को और मुझे भी पूरी तरह बदलकर मेरे मन को परिवर्तित कर सकते हैं और मुझे जैसा होना चाहिए वैसा ही बना सकते हैं। हमें भी हमारे अपने जीवन में ‘ऐसा ही’ बनना चाहिए और हम यदि ऐसा बनना चाहते हैं तो हमें भी हेमाडपंत की ही तरह साईनाथ के प्रत्येक शब्द को आज्ञा मानकर अपने प्राणों से भी अधिक उस आज्ञा का ध्यान रखना चाहिए, जी जान से उस आज्ञा का पालन करना चाहिए।

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