श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-२ (भाग- ४४)

जिनकी कृपा से प्राप्त हुआ यह सत्संग। पुलकित हो उठा मेरा अंग-प्रत्यंग।
उनका वह उपकार अव्यंग। बना रहे अभंग मुझ पर॥

श्रद्धावान का सबसे बड़ा गुणधर्म है ‘कृतज्ञता’। हेमाडपंत में यह गुणधर्म प्रखर रूप में दिखाई देता है और वह भी जान बूझकर दिखावे के लिए नहीं है, बल्कि उनमें यह भाव सहज ही जागृत है। बाबा का दर्शन पाकर, पहली मुलाक़ात में ही, साई-चरणधूलि का लाभ मिल जाने के कारण ही हेमाडपंत की स्थिति अष्टभाव जागृत होनेवाले श्रद्धावान के समान हो चुकी है। यहीं पर उनके मन से कृतज्ञता-भाव उमड़कर प्रवाहित होने लगा है। यहाँ पर उनकी कृतज्ञता दो स्तरों पर व्यक्त हो रही है।

१) साईनाथ के प्रति कृतज्ञभाव।

२) नानासाहब चांदोरकर और काकासाहब दीक्षित इन दोनों भक्तश्रेष्ठों के प्रति कृतज्ञता।

ऊपर लिखित पंक्तियों का सरलार्थ देखा जाये तो हमें यह विदित होता है कि इसमें हेमाडपंत काकासाहब और नानासाहब इन दोनों के प्रति कृतज्ञताभाव व्यक्त कर रहे हैं, परन्तु इसी के साथ ही वे साईनाथ के प्रति भी कृतज्ञभाव यहीं पर व्यक्त कर रहे हैं । बाबा की इच्छा एवं कृपा से ही मुझे शिरडी तक बाबा ले आये और साई ने ही मुझे चरणधूलि-भेंट का स्वर्णिम अवसर प्रदान किया। यह सब साईनाथ की ही कृपा है। साईनाथ की इच्छा से ही सच्चिदानंदस्वरूप साईराम का सत्संग प्राप्त हुआ, उनका दर्शन हुआ। इससे मेरा अंग-अंग पुलकित हो उठा, मुझे इतनी खुशी हुई कि आनंद मेरे मन में समा नहीं पा रहा था। बाबा का यह ऋण यूँ ही मुझपर अभंग बना रहे क्योंकि बाबा का यह ऋण उतारा जा सकनेवाला ऋण नहीं है। इस ऋण से कोई भी कभी भी मुक्त नहीं हो सकता है। बाबा के ऋण में ही सदैव रहना मुझे अच्छा लगेगा। अन्य किसी के प्रारब्ध के ऋण में रहने की अपेक्षा बाबा के ऋण में रहना ही मुझ जैसे के लिए श्रेयस्कर होगा।

कृपाकाकासाहब दीक्षित एवं नानासाहब चांदोरकर इन दोनों मित्रों के बारे में भी हेमाडपंत के मन में इसी प्रकार का भाव है। मेरे इन दोनों मित्रों का भी ऋण मुझ पर है ही, क्योंकि इन दोनों ने ही मुझे शिरडी की राह दिखलायी, इन दोनों ने ही मेरे मन में बाबा के प्रत्यक्ष दर्शन का उत्साह जगाया। कल तो नाना ने शिरडी जाने के लिए मुझसे वचन (प्रॉमिस) भी ले लिया। मैंने ही मन में विकल्प आ जाने के कारण शिरडी आना टाल दिया था। यदि नाना ने मुझ से आग्रह न किया होता तो क्या मैं यहाँ तक पहुँच पाया होता? काकासाहब एवं नानासाहब इन दोनों के कारण ही मुझे बाबा के बारे में पता चला और वह भी इतनी अच्छी तरह से कि मेरे मन में बाबा से मिलने की चाह उत्पन्न हुई।

‘सुसंगति सदैव होती रहे, सुजन-वाक्य (सज्जन-वाक्य) कानों में पड़ता रहे’ यह उक्ति यहाँ पर सिद्ध होती है। नास्तिकों की संगति सदैव क्यों टालनी चाहिए, इसका उत्तर भी मिलता है। आगे साईसच्चरित में हेमाडपंत कहते हैं कि नास्तिकों की परछाई भी शरीर पर नहीं पड़ने देनी चाहिए। सुसंगति सदैव होती रहे तथा सुजनों के वाक्य भी कान में पड़ते रहने चाहिए, इसका यही अर्थ है कि हमें सदैव श्रद्धावानों की संगति ही मिलनी चाहिए और श्रद्धावानों के वचन ही सदैव कानों में पड़ने चाहिए। हेमाडपंत को इस बात की खुशी है कि मैंने दीक्षित और चांदोरकर जैसे सुजन लोगों के साथ दोस्ती की है। श्रद्धावानों की संगति के कारण, श्रद्धावानों के साथ होने वाली दोस्ती के ही कारण मुझे उचित मार्ग प्राप्त हुआ। मैं देवयानपंथ पर आगे बढ गया।

हम भी यदि चाहते हैं कि हम कभी राह से न भटके तो हमें भी सदैव देवयान-पथिकों की अर्थात श्रद्धावानों की ही संगति करनी चाहिए। अंग्रेजी भाषा में एक कहावत है कि मनुष्य की पहचान उसके संगति से होती है। जिसकी संगति में हम रहते हैं, उन्हीं की तरह हम बनते हैं अर्थात दोस्ती का असर हम पर पड़ता ही है चाहे वह अच्छा हो या बुरा। इस बात को ध्यान में रखकर हमें सदैव श्रद्धावानों के साथ ही दोस्ती करनी चाहिए। वही अकसर हितकारी होती है। श्रद्धावानों से की गई दोस्ती यह हमें परमात्मा की दिशा में ले जाती है। वहीं दुराचारी, नास्तिकों की संगति यह हमें राम से विमुख कर देती है, राम से दूर ले जाती है। दीक्षित एवं चांदोरकर जैसे श्रद्धावानों के साथ रहनेवाली दोस्ती के कारण ही हेमाडपंत साईबाबा तक जा पहुँचे। हम भी श्रीसाईसच्चरित के साथ दोस्ती करके श्रीसाईचरणों तक पहुँच सकते हैं। साईसच्चरित का लगातार अध्ययन, पठन, चिंतन, मनन करना ही श्रद्धावानों से दोस्ती करना कहलाता है। यहाँ पर हम सीखते हैं कि दोस्ती कैसे लोगों के साथ करनी चाहिए, संगति कैसे लोगों की करनी चाहिए। इन सब बातों को भली-भाँति सोचसमझकर करना चाहिए। हेमाडपंत के कहेनुसार श्रद्धावानों से दोस्ती करने से हमारा परमार्थ एवं गृहस्थी दोनों ही सुखमय बन जाते हैं। इसीलिए श्रद्धावानों के साथ दोस्ती करनी चाहिए और सदैव साईनाथ के गुणसंकीर्तन में तल्लीन रहना चाहिए और विशेष तौर पर बाबा के ऋणों का स्मरण सदैव रखना चाहिए। साईनाथ का हर एक सच्चा श्रद्धावान ही मेरा सच्चा साथी है। ये साईनाथ के सच्चे श्रद्धावान ही मेरे सच्चे सगेसंबंधी हैं।

हेमाडपंत यही बात कहते हैं-

जिनके द्वारा प्राप्त हुआ परमार्थ मुझे। वे ही हैं सच्चे आप्त-भ्राता।
हितैषी नहीं है कोई दूजा उनके समान। ऐसा ही दिल से मैं मानता हूँ॥

जिनके कारण मुझे परमार्थ प्राप्त हुआ, वही मेरे सच्चे आप्त हैं वे ही मेरे सच्चे बांधव हैं। उनके समान सगे-संबंधी दूसरा कोई हो ही नहीं सकता है, यही मैं पूरे निश्‍चयपूर्वक मानता हूँ। मेरे सच्चे संगी-साथी काका एवं नाना के समान श्रद्धावान साईभक्त ही हैं, जिन्होंने मुझे साईभक्ति की राह दिखलाई। यही मेरा पूर्ण निर्धार है।

हमें हेमाडपंत की इस पंक्ति से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शन प्राप्त होता है कि हमारे सच्चे सगे-संबंधी कौन हैं? हमें जन्म के अनुसार, प्रारब्ध के अनुसार जो भले सगे-संबंधी प्राप्त हुए हैं, उनके साथ हमें प्रेमपूर्वक व्यवहार करना चाहिए। हमें अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, परन्तु इसके साथ ही उनमें से जो लोग श्रद्धावान नहीं होंगे, परमात्मा के भक्तिमार्ग के सच्चे सेवक नहीं होंगे, उनकी संगति से हमारा कोई विकास नहीं होगा, यह भी हमें ध्यान में रखना चाहिए। ‘जो इस परमात्मा का श्रद्धावान नहीं है, वह मेरा कोई भी नहीं हो सकता है।’ यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तत्त्व हेमाडपंत यहाँ पर स्पष्ट करते हैं।

काका एवं नाना के बारे में जिस तरह इस वचन का उच्चारण हेमाडपंत कर रहे हैं, बिलकुल उसी तरह साईनाथ के प्रति भी यह बात उतनी ही सच है। ये साईनाथ ही मुझे, ‘परमार्थ किस तरह साध्य करना है, गृहस्थी एवं परमार्थ को एक ही समय सुखमय किस तरह बनाना है’, इस बात का यह प्रत्यक्ष मार्गदर्शन करते हैं। बाबा के कारण ही ‘सारा संसार’ सुखमय बन गया है और इसीलिए केवल साईबाबा ही मेरे सच्चे आप्त हैं, वे ही मेरे माता-पिता हैं, मेरे बंधु हैं, मेरे सगे संबंधी हैं, मेरे प्राणप्रिय हैं, सच्चे मित्र केवल एकमात्र वे  साईनाथ ही हैं, यह मेरा पक्का इरादा है। यही हेमाडपंत का दृढ़ भाव है।

‘मेरा-मेरा’ कहकर जिन्हें हम अपना मानते हैं, वे ही मेरी ज़रूरत के समय पर दगा दे देते हैं। जिन्हें हम अपना आप्त मानकर चलते हैं, वे ही हमें दगा दे जाते हैं। हम दूसरों के साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करेंगे, किसी के साथ बुरा व्यवहार नहीं करेंगें। हमें मानवों को जोड़ने का प्रयास करना है, तोड़ने का नहीं। परन्तु ‘जो इस साईनाथ का, इस परमात्मा का विरोध करता है, वह मेरा कोई भी नहीं हो सकता है’ यह तत्त्व हमारे जीवन की नींव होनी चाहिए।

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