श्रीसाईसच्चरित : अध्याय २ (भाग- २३)

माधवराव जब द्वारकामाई की सीढ़ी पर खड़े थे, तभी हेमाडपंत ने उनसे बाबा से अनुज्ञा प्राप्त करने को कहा। हेमाडपंत की प्रबल इच्छा देखते ही साई ने माधवराव के रूप में उनकी इच्छापूर्ति का साधन मुहैया कराया। साईकृपा से उन्हें मार्ग तक नहीं जाना पडा, बल्कि मार्ग ही उन तक स्वयं चलकर आ गया। सद्गुरु की ज़रूरत ही क्या है? इस प्रश्‍न का उत्तर साईसच्चरित में इस तरह कदम कदम पर हमें मिलता है। सद्गुरु साईनाथ की भक्ति का अत्यन्त अद्भुत ऐसा वैशिष्टय इस कथा में हमें यहाँ पर दिखाई देता है।

सद्गुरु साईनाथ की भक्ति भक्तिमार्ग को छोड़कर अन्य मार्गों में साधक को अपनी इच्छापूर्ति का मार्ग स्वयं ढूँढ़कर निकालना पड़ता है और उस मार्ग पर ध्यान से चलने का परिश्रम करना पड़ता है। परन्तु जहाँ पर ये सद्गुरु साईनाथ प्रतिष्ठित हैं, उस मर्यादाशील भक्ति के क्षेत्र में आनेवाले श्रद्धावान को मार्ग ढूँढ़ना नहीं पड़ता, बल्कि सद्गुरु ही उस श्रद्धावान के विकास का मार्ग उसके समक्ष लाकर रख देते हैं। इतना ही नहीं बल्कि स्वयं सद्गुरु साईनाथ श्रद्धावानों के साथ उस मार्ग पर चलते रहते हैं और उस राह को ही समर्थ रूप में प्रेमप्रवास बना देते हैं। सद्गुरु ही श्रद्धावानों को उस मार्ग पर समर्थ रूप में चलने के लिए आवश्यक लगनेवाला बल देते रहते हैं, दिशा दर्शाते रहते हैं।

इस कथा के आरंभ में ही हमें इस कथा की इस महत्त्वपूर्ण बात का पता चलता है कि सद्गुरु साईनाथ हमारे जीवन में यदि नहीं होंगे तो क्या होगा। इस बात पर जब हम गौर करेंगे तब हमें पता चलेगा कि स्वयं के विकास की इच्छा पूरी करने के लिए हमें स्वयं ही अपने बलबूते पर कोशिश करनी होगी। अनेक मार्ग ढूँढ़ने पड़ेंगें, अनेक स्थानों पर ठोकरें खानी होंगी। इसके पश्‍चात् मान लीजिए कि हमें कोई मार्ग अपना सा लगता है और हम उस पर चलने लगते हैं फ़िर भी आगे चलकर वह मार्ग यदि गलत साबित होता है तो पुन: हमें अपना मार्ग ढूँढ़ना पड़ेगा। उस मार्ग में ढ़लान होने के कारण या किसी कारणवश हमारा पैर फ़िसलकर हम किसी खाई में जा गिरे तो? अथवा घास-फ़ूस से ढ़की हुई किसी दलदल में अनजाने ही हमारा पैर चला गया तो? अथवा आगे चलते हुए उसी मार्ग में हमारा सामना खूँखार जानवरों से हो जाये तो? या उस मार्ग में चलते-चलते आगे पानी की एक बूँद भी नसीब न हो तो? खाने के लिए अनाज़ का एक दाना भी न मिले, ना ही छाया के लिए कोई वृक्ष है, यदि ऐसी स्थिति आ जाती है तो? अथवा वह मार्ग घने जंगल तक चला जाये और उसी में राह भटक जाये तो? इस प्रकार के न जाने कितने ‘तो’ हमारे जीवन में आ सकते हैं। अर्थात सद्गुरु साईनाथ हमारे जीवन में यदि नहीं होंगे, तो हमारे लिए उचित मार्ग ढूँढ़ना ही कितना मुश्किल होगा! यहाँ पर यह जानने से हमारा विश्‍वास दृढ़ हो जाता है।

वहीं, जब साईनाथ हमारे जीवन में सक्रिय रूप में रहते हैं, तो ऐसे में भक्त को कहीं जाने की ज़रूरत ही नहीं होती, ना ही उसे कुछ ढूँढ़ना पड़ता है, क्योंकि साईनाथ ही उसके लिए योग्य विकास-मार्ग तैयार रखते हैं। इस मार्ग पर चलने के लिए भक्त को केवल पहला कदम उठाने का ही श्रम करना पड़ता है। इसके पश्‍चात् साईकृपा से वह मार्ग ही भक्त को उसकी मंज़िल तक पहुँचा देता है। जिस तरह रेलगाड़ी में चढ़ने तक ही हमें श्रम लेना पड़ता है, मंजिल तक पहुँचाने का काम वह रेलगाड़ी स्वयं ही करती है। यही कार्य साईनाथ के भक्तिरथ का भी है।

वैसे देखा जाये तो यह कहावत सिद्ध है कि ‘प्यासे को कुए के पास जाना पड़ता है और उसके लिए पहले कुआँ ढू़ँढना पड़ता है। परन्तु हमारे साईनाथ के श्रद्धावानों के पास तो विकास गंगा ही दौड़ी चली आती है एवं श्रद्धावान की प्यास ही नहीं बल्कि उसकी सारी इच्छाएँ वह पूरा करती है। केवल पीने के लिए ही नहीं बल्कि स्नान करने के लिए, प्रेमप्रवाह में डूबे रहने के लिए साईचरण की गंगा ही श्रद्धावानों की ओर प्रवाहित होते हुए चली आती है। यह सब इस साईनाथ की ही लीला है! ‘इतना आसान बना दिया जीवन । बैठे-बैठे ही भगवान मिल गए।’ आद्यपिपा की ये पंक्तियाँ हम से यही कहती हैं।

हेमाडपंत के इच्छापूर्ति का मार्ग इसी प्रकार साईकृपा से उन तक चलकर आया। माधवराव का उसी समय पर द्वारकामाई में आना अर्थात हेमाडपंत के इच्छापूर्ति का मार्ग ही मानों द्वारकामाई में चलकर आ गया हो। हमारे जीवन में भी यदि हमारी साईनाथ के प्रति निष्ठा प्रबल है तब हमारे विकास का मार्ग भी ये साईनाथ हमारे समक्ष लाकर रख देते हैं। हम श्रद्धावानों को मार्ग कैसे मिलेगा इस बात की चिंता करने की आवश्यकता ही नहीं कारण हमारे साईनाथ तो विकास का पूरा का पूरा मार्ग स्वयं हमारे समक्ष लाकर रख देते हैं। इसीलिए यदि हम साईनाथ पर दृढ़ निष्ठा रखते हैं तो साईनाथ हमारे लिए विकास का मार्ग प्रशस्त करेंगे ही, इस बात का विश्‍वास कर हमें सबूरी रखनी ही है। मेरी इच्छा उत्कट नहीं है, मेरी श्रद्धा प्रबल नहीं हैं इसीलिए मार्ग अभी तक दृष्टिपथ में नहीं आ रहा है। मैं अपनी पूरी क्षमता के साथ, अधिक प्रेमपूर्वक एकनिष्ठा से अपने साईनाथ को पुकारूँगा तो वे मार्ग मेरे सामने लाकर रखने में समर्थ हैं।

यहाँ पर एकनिष्ठता सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण गुणधर्म हैं। चाहे जो भी हो जाये ये ही केवल ये ही मेरा उद्धार करेंगे मैं बाबा के चरण नहीं छोडूँगा। इनके अलावा और कोई भी मेरा नहीं है। एकनिष्ठता के साथ यदि मैं बाबा के चरण पकड़ता हूँ तो निश्‍चित ही ये साईनाथ मेरे सामने उचित मार्ग लाकर रखते ही हैं। ऐसे में हमें अपनी एकनिष्ठता पर कायम रहना चाहिए। डगमगाना नहीं चाहिए। बाबा की भक्ति करने पर भी मुझे मार्ग नहीं मिलता है फ़िर मैं बाबा की भक्ति करने पर भी मुझे मार्ग नहीं मिलता है फ़िर मैं बाबा की भक्ति क्यों करूँ? इससे तो कही अच्छा है कि मैं कुछ करूँ। ऐसा कहकर हम स्वयं ही साईनाथ को अपने जीवन में हस्तक्षेप करने से रोकते हैं। हम जब स्वयं ही साईनाथ को अपने घर में, जीवन में हस्तक्षेप करने से इंकार कर देते हैं तो हमारे जीवन में उचित मार्ग आयेगा ही कैसे? ऐसे में हमें अन्य मार्गों पर भटकना पड़ेगा, ठोकरी खाते रहना पड़ेगा।

हेमाडपंत के चरित्र लेखन- अनुमति कथा के आरंभ में ही हमें पता चल जाता है कि श्रद्धावान को उचित मार्ग ढूँढ़ने के लिए कष्ट नहीं उठाने पड़ते हैं बल्कि ये साईनाथ स्वयं ही उचित समय पर उचित मार्ग श्रद्धावान के समक्ष लाकर रख देते हैं।

दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यहाँ पर हम सिखते हैं कि,अपनी स्वयं की ‘हैसियत’ को जानना। यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात हेमाडपंत के आचरण से हमें सीखनी ही चाहिए। हेमाडपंत के मन में चरित्रलेखन की अनुमति माँगने का विचार आया इसीलिए उन्होंने तुरंत ही जाकर बाबा से नहीं पूछ लिया। बाबा से प्रश्‍न पूछने का कार्य माधवराव करते हैं इस अलिखित नियम का ध्यान उन्हें था। ऐसा यदि ना भी होता तब भी कोई भक्त प्रत्यक्ष जाकर बाबा से प्रश्‍न करने की हिम्मत नहीं कर पाता था। वे अपने मन की बात शामा के कानों पर डाल देते थे और शामा जाकर बाबा से पूछते थे।

‘मेरे मन में साईसच्चरित लिखने की प्रेरणा का उद्भव हुआ, इसीलिए मैं बहुत बड़ा भक्त बन गया और सीधे बाबा से प्रश्‍न पूछने में कोई हर्ज नहीं है’, ऐसी कल्पना भी हेमाडपंत के मन को नहीं छू पाती हैं। ‘कल तक जिस तरह मैं माधवराव के द्वारा ही बाबा के पास अपने मनोगत व्यक्त करता था, उसी तरह आज भी यह मनोगत स्पष्ट करूँगा।’ यही उनका भाव था। स्पष्ट है कि हेमाडपंत अपना ‘स्थान’ भली-भाँति जानते थे। एक श्रेष्ठ भक्त के पास होने वाली यह उसकी विनयशीलता एवं स्वयं के ‘स्थान’ का एहसास हम हेमाडपंत के आचरण में देख सकते हैं।

स्वयं के ‘स्थान’ का पूरा एहसास होने के कारण ही जब माधवराव द्वारकामाई की सीढ़ी पर पैर रखते हैं, तभी हेमाडपंत ने अपने मन की बात उनके कानों पर डाल दी। हम सभी को भी सदैव अपना स्थान पहचान कर ही आगे बढ़ना चाहिए। यहाँ पर माधवराव भी ‘सीढ़ी’ पर ही खड़े हैं। अर्थात वे भी अपना स्थान जानते हैं। ‘बाबा मेरे साथ हँसी-मज़ाक करते हैं, मैं बाबा के साथ मित्र के समान व्यवहार करता हूँ, इसीलिए मैं उनके इस प्यार का, सख्यत्व का ग़लत फ़ायदा उठाऊँ’, ऐसा विचार भी माधवराव के समान श्रेष्ठ भक्त के मन को नहीं छूता है। इस कथा का यह ‘स्थान’ बहुत ही महत्त्वपूर्ण है और मेरे लिए इस ‘स्थान’ का अहसास होना अत्यन्त आवश्यक है। जो भी कोई इस ‘स्थान’ को भूलकर आचरण करता है, वह स्वयं ही अपना आत्मघात करता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published.