श्रीसाईसच्चरित : अध्याय २ (भाग-२)

कल से हमने श्रीसाईसच्चरित के दूसरे अध्याय का अध्यायन करना शुरु कर दिया। हेमाडपंत इस अध्याय के आरंभ में ही श्रोताओं से विनति करते हैं – ‘व्हावें जी या आनंदा विभागी’- ‘तुम भी बन जाओ जी इस आनंद के सहभागी।’ हेमाडपंत के इस ‘जी’ में होने वाली ‘तड़प’ का अनुभव तो हम करते ही हैं, जिस तरह प्रथम अध्याय के कथा का आरंभ करते समय वे ‘लो जी सुनो मधुर वृतांत’ इस तरह कहते हुए हम महसूस करते हैं। हमने भी इस बात का अध्यायन किया ही है कि श्रोताओं को वे बड़े ही आत्मीयता के साथ ‘जी’ तो कहते ही हैं, परन्तु इसके साथ ही सबसे पहले उनके अन्त:करण में साईनाथ के प्रति ‘जी’ का प्रतिसाद सतत उठ ही रहा है। बाबा जो कुछ भी कहते हैं। बाबा को मुझसे जो कुछ भी करवाना है, बाबा की मेरे लिए जो  कुछ भी आज्ञा है, इस प्रकार के बाबा की ओर से मेरे पास आने वाले हर एक साद को ‘प्रतिसाद’ हेमाडपंत के मन में इस ‘जी’ द्वारा उठ रहा है। सद्गुरु के साद को हर पल प्रतिसाद देते रहना ही, ‘जी’ रुपी प्रतिसाद देते रहना यहाँ पर सीखना चाहिए। बाबा क्यों कहते हैं, किस लिए कहते हैं, इससे क्या होगा इन बातों के झमेले में न पड़ते हुए इस ‘जी’ रुपी प्रतिसाद को दिल में उतारना है और इस ‘जी’ को ही अपने आचरण द्वारा अभिव्यक्ति देनी चाहिए।

साईबाबा को ‘जी’ रुपी प्रतिसादबाबा ने कहा कि आज ये उपासना करनी है कि हमें तुरन्त जी कहना ही है। बाबा ने कहा कि ‘बकरे को काटो’ तो दिक्षित की तरह तुरंत ही ‘जी’ कहना ही है। काका साहेब दिक्षित जैसे भक्त का नाम लिए बिना हम आगे बढ़ ही नहीं सकते, कारण उन्होंने इस ‘जी’ को अपने स्वयं के आचरण में पूरी तरह से घोल लिया था। इस तरह ‘जी’ वाला भक्त हो तब बाबा उसके लिए स्वयं विमान लेकर आते हैं और उसके अंतिम समय को मधुर बना देते हैं। नानासाहेब चांदोरकर से हमें इस ‘जी’ को सीखना चाहिए। बाबा ने ‘ज्ञान’ से पहले अवग्रह करके श्‍लोक का अर्थ समझाते ही नाना ने तुरंत ही ‘जी’ कहा। नानासाहेब स्वयं संस्कृत के सिद्ध विद्वान होकर भी बाबा के उपदेश के प्रति उनके मन में जरा सी भी शंका निर्माण नहीं हुई जब कि आज तक के सभी पाठों में अवग्रह नहीं था। यह बात उन्हें पूर्णरुप से पता थी। फिर भी बाबा के उपदेश के प्रति उनके मन में जरा सी शंका पैदा नहीं हुई, उन्होंने तुरन्त हा ‘जी’ कहकर उस बात का स्वीकार कर लिया। हम मात्र नाना द्वारा कही गई यह बात सच है या झूठ, इसी झमेले में फँस कर रह जाते हैं।

बाबा को ‘जी’ कहने की बजाय स्वयं के ही ‘हाँ’ में ‘हाँ‘ मिलाते रहते हैं। स्वयं के ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाते रहने से ही हम काल के चक्र में फँस जाते हैं। बाबा को यदि हम ‘जी’ कहते तो हमें बाबा का सामीप्य प्राप्त करते हैं, जो स्वयं की ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाते रहता है, वह सदैव ‘चिन्ताग्रस्त’ रहता है और जो बाबा को ‘जी’ कहते रहता है, उसकी चिन्ता बाबा करते है उसे चिंता कभी नहीं सताती। श्रीमद्पुरुषार्थ में स्पष्टरुप से कहा गया है कि चिंता अर्थात चिता को आंमत्रित करना। काल को  आमंत्रित करने से ही हमारे जीवन को प्रारब्ध भोग ग्रसित करता चला जाता है। इसके विपरीत बाबा को ‘जी’ करने वाला भक्त सभी प्रकार के चिंताओं से मुक्त हो जाता है। प्रारब्ध का नाश साईकृपा से ही होते रहता है।

हेमाडपंत इस अध्याय में स्वयं के नामकरण की कथा बताते समय हमें स्पष्ट रुप में यह बताते हैं कि मैं भी तुम्हारे समान ही अपनी ही ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाता था। परन्तु इस साईनाथ को मेरी चिंता थी! उन्होंने ही मुझे अपनी इस झूठी खुशामद से बाहर निकाला और ‘जी’ के प्रतिसाद पथ पर ले आये। ‘हेमाडपंत’ इस नामकरण से ही बाबा ने मेरे जीवन की दिशा बदल दी, मुझे पूर्णरुप में नई दिशा प्रदान की, मेरे मन में परिवर्तन किया और मेरे मन का नम: कर दिया। हेमाडपंत कही पर भी अपने स्वयं के अवगुण को न छिपाते हुए बिलकुल पवित्र भाव के साथ साईनाथ के सामने उसे मान्य करते हैं और हमें भी ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाने से निकलकर ‘जी’ मार्ग पर चलने का मंत्र प्रदान करते हैं। हेमाडपंत कहते है कि मैं भी तुम्हारे ही समान एक सामान्य मानव ही था, अपनी बात को सच साबित करने के लिए वादविवाद के झमेले में फँसा हुआ था। परन्तु मेरे बाबा ने ही मुझे इस अपनी ही हाँकने वाले दलदल से बाहर निकाला और ‘जी’ के पिपीलिका पंथ पर ले आये।

दलदल जैसे मनुष्य को अपने अंदर खींचती रहती है और अंत में उसे निगल जाती है, उसी प्रकार अपनी ही ‘हाँ’ में ‘हाँ’ करना भी एक प्रकार का दलदल ही है। इस दलदल को मैं ही निर्माण करता हूँ और मैं ही इस दलदल में फँस जाता हूँ। यहीं पर हमें ध्यान में रखना चाहिए कि अब जब मुझे मेरे ये साईनाथ मिले हैं तब मुझे अपने इस साईनाथ को ‘जी’ कहकर प्रतिसाद देते हुए अपने इस मनमानी की दलदल से मुक्त होना है। ‘मैं जो कहता हूँ वही सच’यही स्वयं की ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाना है। वहीं इसके विपरीत ‘मेरे साईनाथ जो कहते है’ वही सच  यही बाबा को ‘जी’ कहना है। रावण सदैव स्वयं की ही ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाता रहा और स्वयं ही अपना सर्वनाश कर बैठा। यह तो इतिहास द्वारा हम जानते ही हैं। केवल रावण ही नहीं बल्कि बाली, इंद्रजीत, शिशुपाल, कंस, दुर्योधन, दु:शासन,  कौरवों ने भी यही किया और उनका अंत क्या और कैसा रहा यह हम सभी जानते हैं। इसके विपरीत देखा जाये तो सुग्रीव, अंगद, विभीषण, अर्जुन इन्होंने इस परमात्मा को  ‘जी’ कहकर प्रतिसाद दिया इसी लिए उनका जीवन सोने के समान दमक उठा। अब हमें ही निश्‍चय करना है कि अपनी ही ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाते हुए दलदल में फँसकर घुटघुटकर मरना है अथवा इस साईनाथ को ‘जी’ कहकर प्रतिसाद देते-देते सभी पापों से प्रारब्ध भोग से मुक्त होकर इस साईश्याम के गोकुल में निरंतर रहना है।

प्रथम अध्याय के गेहूँ पीसने वाली कथा की चारों स्त्रियों ने बाबा को इसी तरह ‘जी’ कहकर प्रतिसाद दिया था और स्वयं को एवं संपूर्ण गाँव की महामारी से मुक्ती दिलवाई थी। स्वयं के ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाना यही वह ‘महामारी’ है, यही वह ‘बैरी’ है। महामारी एवं बैरी इनका अंत इसी ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाने से ही होता है और हम जब अपनी खुद की ही ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाते रहते हैं, तब हमारा अंत बैरी काल ही करता है, हमारा अंत विभक्ति रुपी महामारी में ही होता है। गेहूँ पीसने वाली कथा की चारों स्त्रियाँ हमें बाबा को ‘जी’ बोलना सीखाती हैं। बाबा गुस्सा हो जाते हैं तब भी उनका यह ‘जी’ रुपी प्रतिसाद जरा सा भी डगमग़ाया नहीं। साईसच्चरित के प्रथम अध्याय का संबंध बत्तीसवे अध्याय के साथ जुड़ा है वह इस ‘जी’ द्वारा ही स्पष्ट होता है। प्रथम अध्याय के कथा में चारों स्त्रियाँ हैं और बत्तीसवे अध्याय में भी चारों लोग हैं। दोनों अध्याय में  इस ‘चार’ संख्या का ही अंतर्भाव होने में ही इन दो अध्यायों का परस्पर संबंध छिपा हुआ है।

बत्तीसवे अध्याय में बाबा स्वयं अपनी कथा बता रहे हैं और उस कथा द्वारा बाबा स्वयं अपने आचरण द्वारा सद्गुरु को सदैव ‘जी’ कहकर प्रतिसाद कैसे देना चाहिए यह हमें सीखा रहे हैं। प्रथम अध्याय की चारों स्त्रियाँ हैं और बत्तीसवे अध्याय में भी चारों लोग हैं। दोनों अध्यायों में इस ‘चार’ संख्या का ही अंतर्भाव होने में ही इन दो अध्यायों का परस्पर संबंध छिपा हुआ है।

बत्तीसवे अध्याय में बाबा स्वयं अपनी कथा बता रहे हैं और उस कथा द्वारा बाबा स्वयं अपने आचरण द्वारा सद्गुरु को सदैव ‘जी’ कहकर प्रतिसाद कैसे देना चाहिए यह हमें सीखा रहे हैं। प्रथम अध्याय की चारों स्त्रियाँ ये बात सीख गई इसीलिए वे स्वयं का जीवन विकास कर सकीं। इसके विपरीत ३२ वे अध्याय के चारों लोग जो हैं, उनमें से एक ही है जो सद्गुरु को ‘जी’ कहने वाला है और उसी के जीवन का समग्र विकास हुआ। ये चारों लोग भी अपनी ही ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाते हुए प्रवास करने निकल पड़े। राह में मिलने वाले बँजारे की बात न मानकर अपनी ही ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाते हुए आगे बढ़ गए और पुन: घुम-फिर कर वहीं आ पहुँचे । अब इन चारों में से एक को अहसास हुआ कि अपनी ही हाँकने के कारण हम पुन: घुम-फिर कर यहीं आ पहुँचे हैं। हमारी प्रगति तो हुई ही नहीं, उलटे सारी मेहनत भी बेकार गई, पुन: हम इस स्थान पर आ पहुँचे, नतीजा कुछ भी न निकला ऊपर से भूखे पेट बन-बन घुमना पड़ा।

भक्तिमार्ग का भक्त इसी तरह अपनी गलती कबूल कर स्वयं की हाँकना बंद कर देता है और सद्गुरु कृपा से सामने आने वाले अनुभवी आप्त का, उस संत का अर्थात उस बनजारे के बचन सुनता है और उसी क्षण सद्गुरुराया प्रकट होते हैं और चारों को जो चाहिए, वह देने के लिए अपने साथ आने को कहते हैं। तीनों मात्र तब भी अपनी ही ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाते रहते हैं परन्तु चौथा श्रद्धावान मात्र यहीं पर तुरंत सद्गुरु को ‘जी’ कहकर प्रतिसाद देता है और आगे हम देखते हैं कि सद्गुरु उसके जीवन का समग्र विकास कैसे करते हैं। सद्गुरु उसे कुएँ में उलटा टाँग देते हैं। तब भी इस श्रद्धावान का ‘जी’ नहीं डगमगता। बाबा स्वयं के कथा द्वारा हमें सद्गुरु को ‘जी’ कहने वाले का सद्गुरु किस तरह जीवन विकास करते हैं। और स्वयं के ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाने वाले तीनों किस तरह दु:ख-यातनाएँ भुगतते हैं, और वे कभी भी आनंद प्राप्त नहीं कर सकते हैं, यह स्पष्ट किया है।

प्रथम कथा की चारों स्त्रियों ने इसी तरह ‘जी’ कहकर बाबा को प्रतिसाद दिया। हेमाडपंत ने प्रथम अध्याय के बाबा की गेहूँ पीसने वाली लीला का अनुभव करते ही‘जी’ कहकर प्रतिसाद दिया और यहाँ पर दूसरे अध्याय में अपनी ही ‘हाँ’ में ‘हाँ’ हाँकने से लेकर ‘जी’ के इस प्रवास को बाबा ने ही किस तरह सिद्ध किया यही वे बता रहे हैं। हमें ही यह निश्‍चित करना है कि प्रथम अध्याय की एवं दूसरे अध्याय की इन कथाओं का अध्यायन कर हेमाडपंत हम से कहते हैं कि हमें बाबा को ‘जी’ कहकर प्रतिसाद देते रहना है कि बत्तीसवे अध्याय की तरह चारों में से उन तीनों की तरह अपनी ही ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाते हुए विनाश का कारण बनना है?

Leave a Reply

Your email address will not be published.