श्रीसाईसच्चरित : अध्याय- २ (भाग-१५ )

सुनते ही उन्हें हो सावधान । अन्य सुख लगे तृण समान।
भूख-प्यास का हो जाये शमन। संतुष्ट हो जाये अन्तरमन॥

श्रीसाईसच्चरित के हर एक कथा में तारक, पारक एवं उद्धारक शक्ति है। श्रीसाईसच्चरित की कथाएँ प्रेमपूर्वक पढ़ते, सुनते, कहते रहने से साई कृपा से इन कथाओं द्वारा सतर्कता तो प्राप्त होती ही है। यह सतर्कता जल्द से जल्द प्राप्त हो इसके लिए हमें इन कथाओं को सुनते समय, पढ़ते समय अन्य बातों के झमेलों में न पड़कर जितना हो सके उतना अधिकाअधिक ध्यान इन कथाओं पर केन्द्रीत करना चाहिए। तर्क, चिकित्सा आदि तो बिलकुल ही मन में नहीं आने देना चाहिए। जब मैं साईनाथ की कथा सुनता हूँ, पढ़ता हूँ, उनका अध्ययन करता हूँ, तब उन कथाओं के अलावा अन्य बातों को मन में तनिक भी स्थान न देते हुए पूरी तन्मयता के साथ उन कथाओं के साथ समरस हो जाना चाहिए। ये कथाएँ अभी-अभी मेरे सामने ही घटित हो रही हैं, इसी भाव के साथ उन कथाओं को पढ़ते सुनते रहना चाहिए। हेमाडपंत की पंक्तियों में साईकृपा से उन कथाओं को पाठकों एवं श्रोताओं के सामने प्रत्यक्षरुप में सजीव बनाने का सामर्थ्य तो है ही, परन्तु हमें समरस होकर उन कथाओं को पढ़ना, सुनना चाहिए।

 साईकृपा

आरंभिक समय में यह अच्छी तरह से कर पाना मुश्किल लगेगा, कभी मन में कुछ न कुछ विचार भी उठेगा। परन्तु पुन: जब हमें ऐसा प्रतीत होता है कि हमारा मन इन कथाओं की बजाय कही और ही भटक रहा है, तब फ़िर से एक बार मन:पूर्वक हमें प्रेम से इन कथाओं की ओर ध्यान देना चाहिए। कथा पढ़ने पर, सुनने पर जब कभी भी हम गाड़ी में बैठकर कही प्रवास कर रहे हैं अथवा भोजन कर रहे हो, तब भी बारंबार उन कथाओं को याद करते रहना चाहिए। बाबा द्वारकामाई में कैसे बैठे होंगे, क्या कर रहे होंगे, वहाँ पर कौन-कौन से भक्त होंगे, अब बाबा के पास कौन सा भक्त आया होगा, बाबा ने उससे क्या कहा होगा, क्या हुआ होगा आखिर बाबा ने उस भक्त का उद्धार कैसे किया होगा और इससे मुझे क्या सीख लेनी चाहिए, इस बात का चिंतन बारंबार करते रहना चाहिए।

जब कोई भक्त साईनाथ की कथा श्रवण कर रहा होता है, उन कथाओं का पठन कर रहा होता है, उनका मनन, चिन्तन कर रहा होता है, साई प्रेम में अपने मनसा-वाचा-कर्मणा से सराबोर हो चुका होता है इसका अर्थ यही है कि वह साईभक्ति में पूर्णत: डूब चुका है, तल्लिन हो चुका है। ऐसे में उसकी चिंता करने के लिए साईनाथ समर्थ हैं। साईनाथ ऐसे भक्तों का ध्यान सदैव रखते ही हैं। हम सामान्य मानव ही, आगे क्या घटना घटित होने वाली है, हम इसके प्रति अनजान रहते हैं, परन्तु बाबा मात्र सबकुछ जानते हैं इसीलिए हम पर जब कोई संकट-मुसीबत आनेवाला होता है, तब हम साईकथा में, उनकी लीलाओं में खोये रहने के कारण स्वयं साईनाथ ही उस संकट को, उस मुसीबत को मुझ तक आने से पहले ही उस संकट का, मुसीबत का निवारण कर चुके होते हैं। उनकी योजना ही कुछ ऐसी होती है कि वह संकट अथवा मुसीबत हमें छू भी नहीं सकते हैं। मान लो की मेरी उपासना अथवा सेवा में उस समय इतनी शक्ती नही है कि उससे मेरे प्रारब्धभोग का समूल नाश हो सके, तब साईनाथ ऐसी योजना करते हैं कि, उस मुसीबत की घड़ी में मुझे हर प्रकार की सहायता अपने आप मिलते रहती है।

उदा. मान लो साईनाथ के किसी श्रद्धावान भक्त को दो दिन पश्‍चात् (हृदय विकार का झटका लगने वाला है) दिल का दौरा पड़ने वाला है और उसकी उपासना-सेवा अभी तक उतनी प्रबल नहीं हुई है कि उससे इस श्रद्धावान के प्रारब्धभोग का नाश पूर्णरुप में हो जाये, तब साईनाथ उसे दो-चार दिन पहले ही सर्दी-खाँसी के निमित्त मात्र से डॉक्टर के पास जाने पर मज़बूर कर देंगे और उसकी जाँच करते समय डॉक्टर को दिल की बीमारी का शक होगा। वे उस मरीज को तुरंत ही हृदयविकारविशेषज्ञ (सर्जन) के पास भेज देंगे और वहाँ पर उसके इस बीमारी का भली भाँति इलाज हो जायेगा। इस तरह संकट आने से पहले ही सभी प्रकार से वैद्यकीय मदद मिल जाने से श्रद्धावान उस आने वाले दिल के दौरे का सामना सामान्य तौर पर कर सकता है। योग्य समय पर सहायता भेजने के लिए अपने साईनाथ ही कारणीभूत हैं। साईनाथ अपने भक्तों का ध्यान सदैव रखते ही हैं। हम बाबा की यह ईश्‍वरी योजना कई बार समझ नहीं पाते हैं। उलटे बाबा से ही कहते है, ‘कितना कफ़ हो गया है मुझे! डॉक्टर तक जाने की नौबत आ गई!’ परन्तु उस कफ़ के निमित्त मात्र से मुझे वैद्यकीय मदद प्राप्त करवाने वाली बाबा की योजना हमारे समझ में नहीं आयी। हम गाड़ी से कहीं जा रहे होते हैं और ऐन मौके पर गाड़ी रास्ते में ही बंद पड़ जाती है। हम बाबा से कहते है, ‘क्या बाबा, मैं कितनी जल्दी में था, मुझे जल्दी पहुँचना था और गाड़ी रास्ते में ही बंद पड़ गई और इतने में मुझे पता चलता है कि मेरे सीने में दर्द हो रहा है। फ़िर गाड़ी को ठीक से बंद करके, लॉक करके देखता हूँ तो चार कदम चलने के पश्‍चात् पास में ही अस्तपाल है। अब हमें रास्ते में भी कोई जान-पहचान वाला व्यक्ति भी मिल जाता है, हमारे अस्पताल में जाने से आनेवाला धोखा टल जाता है। यहाँ पर हम साईनाथ की इस योजना को समझ पाते हैं। हम मेकॅनिक को फ़ोन करके कहते हैं कि, मेरी गाड़ी रास्तेपर बंद अवस्था में पड़ी है, उसकी ठीक से मरम्मत करके मेरे घर पर उसे रख देना, वह मेकॅनिक गाड़ी स्टार्ट करता है, तब पहली बार में ही गाड़ी स्टार्ट हो जाती है, गाड़ी को कुछ भी नहीं हुआ होता है। मेकॅनिक से यह जानने के पश्‍चात् हमें श्रीसाईनाथ की इस ईश्‍वरी योजना का पता चलता है।

हमारे जीवन में कदम-कदम पर ये साईनाथ हमारा ध्यान रखते रहते हैं। पाँच वर्ष पश्‍चात् श्रद्धावान को दिल की बीमारी के उपचार के लिए पैसों की ज़रूरत भी पड़ने वाली है यह बात केवल साईनाथ ही जानते हैं। पाँच वर्ष पहले ही साईनाथ इस श्रद्धावान को बुद्धी प्रदान करते हैं कि वह पाँच वर्षों के लिए अपने पैसों का सुरक्षित स्थान पर निवेश करता है ताकि पाँच वर्ष पूरे होते ही वे पैसे अपने आप उसके हाथों में आ जाये और उन पैसों का वह अपने बीमारी में योग्य प्रकार से उपयोग कर सके। श्रीसाईनाथ की कृपादृष्टि के कारण उसे किसी के आगे हाथ फ़ैलाने की ज़रूरत न पड़े। अस्पताल में भी इस तरह अच्छे लोगों से मुलाकात होते रहती हैं, जिनसे उस श्रद्धावान को पूरी सहायता मिलती है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि उस समय उदी मुझे एक सहायक के रुप में प्राप्त होती है। और उसे मैं हर समय अपने साथ रखता हूँ। फ़िर भी संकटकाल में उदी की याद आना, उदी ग्रहण करने का स्मरण होना यह तो साईकृपा बिना असंभव है। इसी के साथ ऐसी कठिन परिस्थितीयों में केवल बीमारी का ही नहीं बल्कि सभी प्रकार के अड़चणों में बिलकुल साईनाथ के ही भक्त मुझे मिलते हैं। एवं ‘अरे तुम भी मेरे साईनाथ के ही भक्त हो’ इतने प्रेमपूर्वक अंजान होते हुए ‘साईभक्त’ जैसे समान सूत्रों के आधार पर ही उनकी भरपूर मदद मिल जाती है। ये साईनाथ किस रुप में आकर, किस तरह से मदद कर जायेंगे, यह कहा नहीं जा सकता है, साईसच्चरित के कथाओं में बाबा की लीलाओं में रम जानेवाले सच्चे भक्त को किसी भी संकट का कभी भय नहीं रहता। उसके रखवाले साईनाथ सर्वसमर्थ तो हैं ही।

प्रारब्ध कितना भी त्रासदायक क्यों न हो, मैं यदि अपनी उपासना-सेवा प्रेमपूर्वक पूर्ण क्षमता के साथ करता हूँ, फ़िर यदि उसमें किसी बात की न्यूनता रह भी जाती है तब भी ये साईनाथ उस श्रद्धावान को चाहे कितनी भी बिकट घड़ी क्यों न हो, उसमें से सहीसलामत बाहर निकालते ही हैं। साथ ही उस संकट का रुपांतर मौके के रुप में करके उस श्रद्धावान का जीवन विकास करते ही हैं। साईप्रेम में ‘दिवाना’ होकर जो इस साईनाथ की कथा में ‘दक्ष’ है, उसका प्रतिपालन करने के लिए बाबा समर्थ हैं ही। बाबा का ध्यान हर किसी पर सदैव रहता ही है, मेरा ही ध्यान मेरे साईबाबा के पास नहीं है और इसी कारण मैं बाबा की कृपा का स्वीकार नहीं कर पाता हूँ। साईकथा में ध्यान केन्द्रीत करने पर अपने आप ही हमारा मन साईचरणों में रममाण रहता है और फ़िर ऐसे भक्त के जीवन में प्रारब्ध भोग का भय नहीं रह जाता है। इसीलिए कथाओं के प्रति ‘दक्ष’ रहने के लिए प्रथम कदम हमें उठाना ही चाहिए। जो यह पहला कदम उठाता है, उसके लिए बाबा की दौड़-धूप चलते ही रहती है। वे उसके दु:खों का वहन करते ही हैं।

२२ वे अध्याय में हेमाडपंत अपने स्वयं के इसी अनुभव को हमें बतलाते हैं। दीक्षित के यहाँ ‘रामकथा’ में ‘दक्ष’ रहनेवाले हेमाडपंत के दाहिने कांधे पर के उपरण में एक बिच्छू आकर बैठ जाता है। परन्तु इतने समय तक वहाँ पर बैठे रहने पर भी वह उन्हें दंश नहीं कर सकता है। हेमाडपंत का ‘ध्यान(मन)’ पूर्णत: कथा में एकजूट हो गया था, वह बिच्छू कब आकर उनके उपरण में बैठ गया इस बात पर उनका ध्यान भले ही न हो, परन्तु जो हरिकथा में दक्ष है उसकी ओर बाबा का पूरा ध्यान है। बाबा ही फ़िर समय रहते ही हेमाडपंत का ध्यान इस ओर आकर्षित करते हैं और उस संकट से उन्हें बचाते हैं। बिच्छू उनके उपरण में इतने समय तक बैठे रहने के बावजूद भी वह हेमाडपंत को दंश नहीं कर सका। इन साईनाथ की ही ये सारी लीलाएँ! जो श्रद्धावान, भक्त हरिकथा में ‘दक्ष’ रहते हैं, उसका ध्यान साईनाथ रखते हीं हैं। यह हेमाडपंत स्वानुभवों के साथ २२ वे अध्याय की कथा में बताते हैं।

यहाँ पर भी बाबा का ध्यान। मेरा न था वहाँ पर ध्यान।
पर जो हरिकथा में दक्ष। उसके संरक्षक हरि स्वयंता॥

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