श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग- ५९)

अब करें सद्गुरुस्मरण।प्रेमपूर्वक भजे उनके चरण।
जायें काया-वाचा-मन से उनकी शरण में।बुद्धिस्फुरणदाता हैं जो॥

हमने भक्ति की आकृति का अध्ययन किया। इस ओवी की अंतिम पंक्ति हमें ‘ये साईनाथ कौन हैं’ यह स्पष्ट करती है। गायत्री मंत्र में जिस ‘सवितृ’ के वरण्यगर्भ का हम ध्यान करते हैं वह शीतल ‘सवितृतेज’ है साईनाथ! संत ज्ञानेश्‍वर ‘मार्तंड जो तापहीन’ इस प्रकार जिसका उल्लेख करते हैं, वह ‘पापदाहक तेज’ है साईनाथ। हेमाडपंत भी यहाँ पर ‘बुद्धिस्फुरणदाता जो’ इस पंक्ति में यही भावार्थ स्पष्ट करते हैं। साईनाथ ही महाप्रज्ञा के नाथ महाविष्णु हैं, वे ही ओज को प्रबल प्रेरणा देनेवाले सद्गुरुतत्त्व हैं और वे ही ‘साक्षात् ईश्‍वर’ यानी ‘साई’ है।

saibaba_new- ईश्‍वरतत्त्वचतुष्टय’

प्रथम अध्याय में ही हेमाडपंत हमें स्पष्ट रूप में बतातें हैं कि ये मेरे साईनाथ कौन हैं। यहीं पर हमें ‘ईश्‍वरतत्त्वचतुष्टय’ के बारे में भी हेमाडपंत हमें सुस्पष्ट रूप में बता रहे हैं, जो बाबा ने स्वयं ही बारंबार बताया है। श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रंथराज ने इसी बात का स्पष्टीकरण अत्यन्त सहज सरल शब्दों में हमारे सामने प्रस्तुत किया है। परमेश्‍वर (दत्तगुरु), सविता, गायत्री एवं परमात्मा (ईश्‍वर) इन चार तत्त्वों का विवेचन श्रीमद्पुरुषार्थ में मूलत: पढ़कर समझ लेना ज़रूरी है।

ब्रह्म-परब्रह्म, ईश्‍वर-परमेश्‍वर, परमात्मा आदि शब्दों का अर्थ ठीक से न समझ पाने के कारण हमारे अंदर जो भ्रम उत्पन्न होता है, वह इसके बाद नहीं होगा, क्योंकि श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रन्थराज द्वितीय खंड प्रेमप्रवास में सद्गुरु श्रीअनिरुद्धजी ने इन सभी गुत्थियों को सुलझाकर सब कुछ सूर्यप्रकाश के समान सुस्पष्ट किया है। वर्तमान में दिखायी दे रहा, प्रवाहित हो रहा दृश्य विश्‍व जब अस्तित्व में नहीं था, तब पूर्णत: एक ही अस्तित्व, एकमात्र अस्तित्व था और उसे कहते हैं- परब्रह्म अर्थात परमपुरुष, विश्‍व के आद्यचेतनतत्त्व!

इस स्वयंसिद्ध, स्वयंप्रकाशी, स्वसंवेद्य, अस्पंद परब्रह्म की स्पंदशक्ति (स्वभाव) है- ‘गायत्री माता’ और स्वयंप्रकाश स्वसंवेद्यता अर्थात आत्मरूपी प्रकाश है- ‘सविता’।

‘परब्रह्म का स्वयंस्फूर्त एवं स्वभावजन्य प्रथम स्फुरण (स्पंद) है- ॐकार, प्रणव, परमात्मा।
परमात्मा के सिद्ध होते ही ‘एकोऽस्मि बहुस्याम:’ (मैं अकेला हूँ, मुझे अनेकत्व में अभिव्यक्त होता है, आनंद करने के लिए, चिद्विलासानंद करने के लिए) यह इच्छा उनके मन में उत्पन्न होती है।

परमात्मा की आनंद करने की इच्छा तुरन्त ही प्रकट होती है। वही है परमात्मा की आह्लादिनी शक्ति और इस ‘आनंदिनी शक्ति’ के प्रकट होते ही इच्छा ‘सत्य’ में आ जाती है अर्थात् ‘सत्य’ भी प्रकट होता ही है। यही हैं वे ‘सत्यस्वरूप महाशेष’ और इसी लिए परमात्मा (महाविष्णु, परमशिव) ये प्रेमस्वरूप हैं, तो उनकी शक्ति सच्चिदानंदा (राधा, ललिता) ये आनंदस्वरूपिणी हैं और उन्हीं के बंधु महाशेष थे सत्यस्वरूप हैं। परमात्मा ‘प्रेमस्वरूप’ होने के कारण उन्हीं की भक्ति की जाती है।

(आकृति : परमेश्‍वर, परब्रह्म, दत्तगुरु, सविता, गायत्री, परमात्मा, भगवंत, ईश्‍वर, दत्तात्रेय, राम, कृष्ण, साई)

अब निश्‍चित रूप में हम जान चुके होंगे कि ये हमारे ‘साईनाथ’ कौन हैं। साईबाबा स्वयं बारंबार इन चार तत्त्वों का बोध हमें करवा ही रहे थे, बस बाबा ने इसके लिए भिन्न संबोधनों का प्रयोग किया है, पर फिर भी सिद्धान्त वही है। सर्वप्रथम हम उसे देखते हैं। बाबा अक़सर कहते थे कि मैं ‘अनल हक़’ नहीं हूँ अर्थात् मैं ‘परमेश्‍वर’ नहीं हूँ, मैं तो‘यादे हक़’ हूँ अर्थात उस परमेश्‍वर का सदैव स्मरण करते रहनेवाला ‘परमात्मा’ हूँ।

अब हम देखते हैं कि बाबा ने इन चार तत्त्वों का बोध कितने सुस्पष्ट तरीके से किया है।

१) ‘सबका मालिक एक’- ‘सबका मालिक एक’ बाबा का यह महावाक्य ही है। बाबा सदैव इस ‘सबके मालिक’ रहलाने वाले का यानी परमेश्‍वर दत्तगुरु का स्मरण करते थे। वैखरी से भी एवं मन में भी बाबा का उस ‘दत्तगुरु’ का जप अव्याहत रूप में चलता ही रहता था। ‘सबका मालिक एक’ का अर्थ है वे एकमात्र परमेश्‍वर।

२) ‘फ़क़ीर’- यहाँ का ‘फ़क़ीर’ बड़ा दयालु है, यही बाबा का एक वचन था। ये फ़क़ीर ही वह ‘सविता’ हैं। बाबा फ़क़ीर इस संबोधन के द्वारा उस सविता का ही निर्देश कर रहे हैं। आत्मरूपी प्रकाश है द्वारकामाई का फ़क़ीर ।

३) द्वारकामाई- ‘बड़ी कृपालु है यह मस्जिदमाई। भोले भाविकाओं की माई।’ ‘हम द्वारकामाई के बच्चे हैं।’ इस प्रकार के अनेक वचन द्वारकामाई के प्रेम से बाबा के मुख से स्रवित होते हुए श्रीसाईसच्चरित में हर जगह दिखाई देते हैं। यह बाबा की द्वारकामाई है- परमात्मा की माँ अर्थात गायत्री माता। यही है वे वात्सल्यस्वरूप रहनेवाली, दत्तगुरु के अष्टबीज-ऐश्‍वर्य प्रतिक्षण परमात्मा की ओर प्रवाहित करने वाली परात्पर माता। बाबा सदैव इस द्वारकामाई के ही गोद में ही बैठे, जिस तरह बालक माँ की गोद में बैठता है।

४) ‘यादे हक़’ – बाबा स्वयं के बारे में बताते समय सदैव मैं ‘यादे हक़’ हूँ अर्थात ‘मैं उस परमेश्‍वर का, दत्तगुरु का अविरत स्मरण करते रहनेवाला हूँ’ ऐसा कहते हैं। मैं ‘अनलहक़’ नहीं हूँ अर्थात ‘मैं परमेश्‍वर, दत्तगुरु नहीं हूँ’ यह बाबा ने बार बार कहा है।

‘कर्ता’ होकर भी ‘अकर्ता’ होने वाले साईनाथ ही हैं और इस तरह ‘अन्यथाकर्ता’ होने वाले ऐसे ये साईनाथ भक्तप्रेमवश सब कुछ करके भी, भक्तों के लिए अचिन्त्य लीला करके भी पुन: सबसे निराले रहते हैं। ‘सब कुछ इस द्वारकामाई ने ही किया’, ‘मेरे फ़क़ीर की करनी ही निराली है’, ‘वह मालिक ही सब कुछ करता है, वही भक्तों का प्रतिपालन करता है’ ऐसा कहकर स्वयं अलिप्त रहनेवाले ये साईनाथ ही हैं। दामुअण्णा कासार की कथा में ‘आपुन नहीं रे बापू किस में’ ऐसा कहकर स्वयं अलिप्त रहनेवाले प्रेमस्वरूप साईनाथ भक्तों के साक्षात् ईश्‍वर हैं।

ऐसे हैं ये ईश्‍वर, अचिन्त्य लीलाधारी साईनाथ! सत्य, प्रेम, आनंद एवं पावित्र्य के साथ चलकर हर एक लीला करनेवाले ऐसे ये एकमात्र हैं और इनकी लीला कोई जान नहीं पाता। अद्भुत रस के सम्राट रहने वाले रसराज साईनाथ ही परमात्मा हैं। हेमाडपंत प्रथम अध्याय में ही कहते हैं कि साक्षात् ईश्‍वर ऐसे ये साई साक्षात् परमात्मा हैं, जिनकी लीला आरंभ में कोई न जान सका। परन्तु ‘ये मेरे भगवान ही हैं’ इस श्रद्धा से एवं ‘ये जो कुछ भी करते हैं, वह सब की भलाई के लिए ही करते हैं’ इस भाव के साथ सबूरी धारण करने वाले को ही बाबा के परमात्मस्वरूप के रहस्य का पता चल पाया है।

आरंभ बाबा का कोई न जान पाये।
क्योंकि प्रथमत: कुछ भी न समझ में आये।
धैर्य धरते ही परिणामस्वरूप ज्ञात होता है।
कौतुक निराला साईनाथजी का।

मंगलाचरण की पंक्तियों में तो हेमाडपंत स्पष्ट रूप में इस साईनाथ के परमात्मस्वरूप को हमें बतला रहे हैं। वे सभी पंक्तियाँ हमें बाबा के परमात्मस्वरूप को दिखलाती हैं ।

‘एकाकी न रमते’ यह कहती है श्रुति।
‘बहुस्याम्’ ऐसी इच्छा से अभिव्यक्ति।
चिद्विलासानन्द हेतु अनेकत्व में प्रकट होते हैं।
पुनरपि मिलते हैं एकत्व में॥
गुणातीत मूल निर्गुण।
भक्तकल्याणार्थ होते हैं सगुण।
ऐसे ये साई विमलगुण।
अनन्य शरण उनके चरणों में॥

मूल निर्गुणतत्त्व तो गुणातीत है, वे सदैव गुणों से परे ही हैं। भक्तों के कल्याण हेतु सगुण रूप धारण करने वाले ये साईनाथ हैं उस निर्गुण परमेश्‍वर के एकमात्र प्रतिनिधि। साई ही हैं परमात्मा, साक्षात् ईश्‍वर।

हमें इस अध्ययन से इतना ही ध्यान में रखना हैं कि परमात्मा की अनन्य शरण में जाना ही श्रेयस् है।

हेमाडपंत प्रथम अध्याय के अंत में ‘हेमाड साईनाथ की शरण में‘ यही बात हम से कहते हैं। यह शारण्यस्थिति हममें भी आये इसके लिए सबसे आसान तरीका क्या है, वह भी इस प्रथम अध्याय में ही हेमाडपंत ने बताया है। वह है- ‘लोटांगण गुरुचरणों में’। इस प्रथम अध्याय के अध्ययन से एक बात तो हम समझ गए कि लोटांगण कैसे करना है।

और कुछ हमारी समझ में न भी आये, तब भी कम से कम इतना तो हमें ध्यान में रखना चाहिए कि हमारी स्थिति जब ‘गुरुचरणों में लोटांगण’ यह हो जाती है, तब ही ‘नरजन्म की इतिकर्तव्यता’ हम साध्य कर सकते हैं। ‘सद्गुरुचरणों में लोटांगण करना’ यही प्रथम अध्याय है, क्योंकि लोटांगण यही मंगलाचरण है, लोटांगण यही नदी का उद्गमस्थान है और लोटांगण यही साईचरण है अर्थात् नदी का मुख भी है।

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