श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग ५७ )

श्रीसाईसच्चरित की पंचशील परीक्षा में पंचमी परीक्षा के प्रात्यक्षिक पुस्तकों के आरंभ में ही श्रीअनिरुद्धजी ने संपूर्ण जीवनविकास के लिए श्रीसाईसच्चरित का अध्ययन कैसे करना चाहिए, इस विषय में बहुत सुंदर रूप से मार्गदर्शन किया है। किसी भी तरह के अध्ययन के लिए जो मूलभूत तीन बातें आवश्यक होती हैं, वे हैं –

१) उच्चार
२) कृति
३) आकृति

श्रीसाईसच्चरित का, साईसच्चरित की हर एक कथा का अध्ययन करते समय हमें इन तीन बातों के आधार पर अपना अध्ययन करना चाहिए। हर एक मनुष्य में कुछ न कुछ त्रुटी होती ही है। कोई भी पूर्णत: निर्दोष नहीं होता। हर किसी के हाथों से गलतियाँ होती ही रहती हैं, परन्तु जब तक वे गलतियाँ मर्यादा का भंग नहीं करती, मर्यादाशील भक्ति के मूलस्रोत को नुकसान पहुँचाने वाली नहीं होती हैं, तब तक सद्गुरुतत्त्व हमें क्षमा करके उसे सुधारने के लिए मार्गदर्शन करते हैं। यदि कोई बहुत बड़ी गलती हो भी जाती है, जो नहीं होनी चाहिए थी, वह भी यदि हो जाती है, तब भी जिसे दिल से सचमुच पश्‍चाताप होता है और वह साईनाथ के सामने ईमानदारी के साथ उस गलती को कबूल करता है, उसे बाबा उस दलदल में से बाहर निकालने के लिए सदैव तत्पर होते हैं। भक्त की त्रुटी को दूर करके उस भक्त की आकृति परिपूर्ण करने में केवल ये साईनाथ ही समर्थ हैं।

sainath

यहाँ पर गेहूँ पीसने वाली कथा की चारों स्त्रियों का उदाहरण हम सर्वप्रथम देखते हैं और उसके पश्‍चात् ‘उच्चार, कृति एवं आकृति’ इस सिद्धान्त के आधार पर अध्ययन करके बाबा ने उन स्त्रियों के मन के अंदर की त्रुटी को दूर करके उनका विकास कैसे किया इस बात का भी अध्ययन करेंगे।

गेहूँ पीसने वाली कथा की चारों स्त्रियाँ –

त्रुटी :    फलाशा, लोभ।

बाबा इतना आटा लेकर क्या करेंगे? बाबा ये आटा हमें ही देने वाले हैं। वास्तविकता को छोडकर रहने वाली इस कल्पना के कारण यानी फलाशा के कारण उन्होंने उस आटे को चार हिस्सों में बाँट दिया और अपने-अपने घर ले जाने की तैयारी भी वे करने लगीं।

उच्चार : परन्तु उनका निर्धार पहले से ही पक्का था। ‘हमें साई का ही होकर रहना है। हमें बाबा की भक्ति करते हुए उनके प्रेमवश उनके ही चरणों में समर्पित होना हैं।’ यही उनका निर्धार था। दिल से ही उनका इरादा पक्का था। इसीलिए ‘बाबा गेहूँ पीसने बैठे हैं’ यह सुनते ही वे दौड़ते-भागते द्वारकामाई में आ पहुँचती हैं।

कृति :    बाबा के हाथों से गेहूँ पीसनेवाला खूंटा खींचकर, बाबा को पीसने न देकर स्वयं पीसने बैठ जाती हैं। गेहूँ पीसते समय वे बाबा के गीत गाती हैं। अंतत: बाबा की आज्ञा के अनुसार उस आटे को गाँव की सीमा पर ले जाकर डाल देती हैं। सेवा में पूर्णत: सहभागी होना और ‘आज्ञापालन करना’ ये दो कृतियाँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं।

आकृति : बाबा ने उन स्त्रियों के अंतर में होने वाली त्रुटी को अर्थात फलाशा को नष्ट कर दिया और उनके निर्धार के अनुसार उन्हें समर्पितता प्रदान की। इस गेहूँ पीसने वाली लीला के पश्‍चात् निश्‍चित ही उन्होंने फलाशा छोड़कर साईसमर्पित कर्म करते रहने का निर्धार हृदय में धारण कर लिया होगा। बाबा ने उनके हाथों गाँव की सीमा पर आटा डलवाकर उनकी समर्पित भक्ति की आकृति परिपूर्ण कर दी। भक्ति की आकृति परिपूर्ण होने के लिए सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात ‘समर्पण’ यही है। ‘इदं साईनाथाय। इदं न मम। श्रीसाईनाथापर्णमस्तु॥ यह बात उनके जीवन में हकीकत में प्रवाहित हुई और उनके जीवन में भक्ति की आकृति परिपूर्ण हो गई। त्रुटी को दूर कर फलाशारूपी महामारी का विनाश करके बाबा ने उनके मन को शांत रस की आकृति प्रदान की।

इस कथा का अध्ययन करने से हम जैसे सामान्य भक्तों को यह सीख मिलती है कि हमारी ‘आकृति’ परिपूर्ण होने के लिए हमें क्या करना चाहिए। हमारे अंदर की त्रुटी को सर्वप्रथम मानकर बाबा के समक्ष उसे कबूल कर बाबा से प्रार्थना करनी चाहिए। साथ ही हमारा निर्धार एवं हमारी कृति भी उन चारों की तरह होनी चाहिए। हमारा निर्धार भी उन चारों की तरह ‘मुझे साई का होकर रहना है’ ऐसा होना चाहिए और हमारी ‘कृति’ भी उन चारों की तरह ‘हमारी अपनी पूरी क्षमता के अनुसार साईनाथ की भक्ति-सेवा में शामिल होना एवं बाबा की आज्ञा का पालन करते रहना’, यही होना चाहिए। फिर हमारे साईनाथ हमारी आकृति को पूर्ण करते में समर्थ हैं ही।

यहाँ पर उच्चार एवं कृति इनमें एक महत्त्वपूर्ण बात हमें इन चारों से सीखनी चाहिए और वह यह है कि बाबा की आज्ञा का पालन करते समय किसी भी प्रकार का प्रश्‍न, शंका-कुशंका, संदेह, विकल्प, तर्क-कुतर्क को अपने निर्धार अथवा कृति के आडे किसी भी हालत में नहीं आने देना चाहिए। बाबा के द्वारा गाँव की सीमा पर आटा डालने को कहे जाते ही उन चारों ने तुरंत ही वैसा किया। यह सबसे महत्त्वपूर्ण हैं। उनके निर्धार में, उनकी कृति में कहीं भी यह बात दिखायी नहीं देती है कि ‘बाबा ने ऐसा क्यों कहा?’ ‘आटा डालने से क्या होगा?’ आदि। वे अपना काम भी पूरी ईमानदारी के साथ करती हैं।

पहले उनके मन में वास्तविकता को छोड़कर कल्पना की उड़ान चल रही थी। उसी कल्पना के आधार पर उन्होंने उस आटे को चार हिस्सों में बाँट भी दिया था। परन्तु बाबा की ‘प्रत्यक्ष’ आज्ञा होते ही उनके मन को फलाशारूपी महामारी, दरिद्रता आदि छू भी न सकी। हम सामान्य मानव  हैं, इसीलिए कभी यदि ऐसा होता है कि बाबा ने प्रत्यक्ष स्वयं यदि कोई आज्ञा न दी हो और हमें सही-गलत का अंदाज़ा न हो सका हो, तब भी साईनाथ जब आज्ञा करते हैं, कम से कम उस समय हमें सारी बातें छोड़कर तुरंत उनकी उस आज्ञा का पालन करना चाहिए। इससे ही हमारी भक्ति की आकृति परिपूर्ण होगी।

मान लो कि उस आटे को जब वे गाँव की सीमा पर डाल रहीं थी, तब अचानक बाबा की आज्ञा होती कि अब उस आटे को गाँव के कुएँ में या कुएँ के चारों ओर डाल दो अथवा और कहीं डाल दो, तब यह स्वाभाविक है कि उन्होंने तुरन्त ही बाबा की आज्ञा का पालन किया होता। तब भी उनके मन में कोई भी प्रश्‍न नहीं उठता कि अभी कुछ देर पहले बाबा ने ऐसा कहा है और अब वैसा? बाबा जब भी जो भी आज्ञा करते हैं, तब उस आज्ञा का पालन तुरंत उसी प्रकार से करना यही एक सच्चे भक्त की कृति है। ‘क्यों? किस लिए? क्या?’ आदि प्रश्‍नों के लिए भक्त के शब्दकोश में स्थान नहीं होता है। जहाँ पर प्रेम है वहाँ पर प्रश्‍न हो ही नहीं सकता और यही एक सच्चे भक्त का उच्चार एवं उसकी कृति है।

हेमाडपंत के हृदय के प्रेमसागर में बाबा की लीला के कारण ही प्रेम की लहरें मचलने लगीं और उठ रहीं उन लहरों से ही बाबा ने हेमाडपंत की आकृति को परिपूर्ण होने के लिए उनके जीवन में सामर्थ्य प्रवाहित किया। हेमाडपंत ने स्वयं की त्रुटी साईसच्चरित में ईमानदारी के साथ कबूल की है, यह हम देखते ही हैं और ‘मैं जैसा हूँ वैसा ही साई के सामने खड़ा हूँ’ यह उनकी कृति हमारे लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। ‘साई ने हेमाडपंत की आकृति परिपूर्ण कैसे की’ अब हम इसके बारे में अध्ययन करेंगे।

हेमाडपंत
उच्चार : मेरे बाबा का चरित्र लिखूँगा ।

क्षीरसागर में उठती हैं लहरें । प्रेम उमड़ पड़ा वैसे ही मन में।
जी चाहा गाऊँ उसे जी भरकर। कथा माधुरी बाबा की।

कृति : दूसरे अध्याय में हम इस कृति के संदर्भ में इन पंक्तियों का अध्ययन करेंगे ही। बाबा का चरित्र लिखने की इच्छा होने पर भी हेमाडपंत ने इस कार्य हेतु बाबा की आज्ञा लेकर ही इस शुभकार्य को आरंभ करने का निश्‍चय किया। यह कृति अतिसुंदर है। नहीं तो ‘मन में आया, चलो लिख डालूँ’ ऐसा उन्होंने कदापि नहीं किया, क्योंकि यह किसी ऐरे-गैरे का चरित्र नहीं है, बल्कि साक्षात् ईश्‍वर स्वरूप साईनाथ का सच्चरित है और ‘यह केवल वे ही लिख सकते हैं, लिखवा सकते हैं’ इस भरोसे के साथ उन्होंने यह कृति की और तब बाबा की आज्ञा के अनुसार ‘बस्ता रखने की कृति’ उन्होंने पूरी ईमानदारी के साथ की।

आकृति : साईसच्चरित का लेखन, साईसच्चरित की विरचना यही सही मायने में हेमाडपंत की परिपूर्ण आकृति है। सचमुच हेमाडपंत की ‘मर्यादाशील भक्त की आकृति’ बाबा ने परिपूर्ण की। प्रथम अध्याय की अंतिम पंक्ति पढ़ने पर हमें इसी बात की प्रचिति मिलती है। हेमाडपंत की आकृति सचमुच पूर्णत: शारण्यभाव से साईचरण की खड़ाऊँ बन गई।

हेमाड साईनाथ की शरण में। समाप्त हुआ वह मंगलचरण।
समाप्त हुआ आप्तेष्टसंतनमन। सद्गुरुवंदन अखंड॥

Leave a Reply

Your email address will not be published.