श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग ५२)

श्रीसाईसच्चरित के प्रथम अध्याय की गेहूँ पीसनेवाली कथा के अध्ययन के द्वारा हमने देखा कि हेमाडपंत के जीवन में कितने सुंदर रूप में बाबा ने प्रेमचक्र गतिमान किया और उन्हें उनकी ‘भूमिका’ का अहसास होते ही उन्होंने अपने इस जन्म की ‘इतिकर्तव्यता’ को साध्य करने के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कदम उठाए। बाबा को हेमाडपंत के हाथों चरित्रलेखन का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य करवाना था, उस कार्य के निश्‍चय का खूँटा बाबा ने यहाँ पर ठोककर मजबूत कर दिया था, जो कभी भी ढीला नहीं हुआ। प्रथम अध्याय में हमें यही सीखना हैं कि बाबा के चरणों में जिस श्रद्धा और सबूरी को बाबा ने ही दृढ़ कर लिया है, उसे हम कभी भी कमजोर नहीं पड़ने देंगे, बल्कि उसे दिन प्रतिदिन बढ़ाते ही रहेंगे।

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हमारी पीसाई का काम हमसे कभी भी पूरा क्यों नहीं हो पाता है, इस बात का उत्तर हमें इस प्रथम अध्याय में ही मिल जाता है। आटा यह रूपक है, नरजन्म की इतिकर्तव्यता का और इसके लिए हमारे जीवन में इस पीसने की क्रिया का घटित होना अनिवार्य है। यह पीसनेवाली क्रिया रूपक है हमारी अपनी ज़िम्मेदारी निश्‍चित तौर पर निभानेवले पुरुषार्थ का और पुरुषार्थ तो तब ही सिद्ध होगा जब जाँता घूमता रहेगा। इस जाते को घूमता रखने के लिए उस पर खूंटा ठोककर म़ज़बूती से बिठाना होगा। अर्थात श्रद्धा-सबूरी का खूंटा मजबूत किये बगैर पीसने की क्रिया अर्थात पुरुषार्थ सम्पन्न नहीं होगा और मैं अपनी भूमिका भली-भाँति नहीं कर पाऊँगा। यह खूंटा बाबा के हाथों में ही होना अधिक महत्त्वपूर्ण है अर्थात श्रद्धा-सबूरी बाबा के प्रति ही रखना अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसीलिए हेमाडपंत कहते हैं कि खूंटा ठोककर मज़बूत करने का कार्य सिर्फ बाबा ही कर सकते हैं। अपने हाथों से खूंटा ठोककर महीन आटा केवल बाबा ही पीस सकते हैं। यह सामर्थ्य बस उन्हीं के पास है। श्रद्धा-सबूरी का खूंटा है मेरा पुरुषार्थ करने का निर्धार। इसीलिए यह बहुत ही जरूरी है कि मुझे मेरी श्रद्धा-सबूरी का खूंटा बाबा के हाथों में सौंप देना चाहिए।

एक बार यदि हमारे पुरुषार्थ करने के निश्‍चय का, श्रद्धा-सबूरी का खूंटा बाबा के हाथ में दे दिया तो फिर बाबा उसे ठोककर मजबूत करते ही हैं और हमारा जीवन-विकास होने लगता है। पीसने की क्रिया आरंभ हो जाती है अर्थात पुरुषार्थ सिद्ध होता है। आटा प्राप्त होता है अर्थात नरजन्म की इतिकर्तव्यता साध्य हो जाती है। हर एक मनुष्य जब जन्म लेकर आता है तब यह श्रद्धा-सबूरी का, परमात्मा का बनकर रहने के निश्‍चय का खूंटा उसे साथ देकर ही परमात्मा उसे भेजता है। पापी से पापी मनुष्य के पास भी यह खूंटा जन्म लेते समय होता ही है। परन्तु हम उस खूंटे को जिसने दिया है उस परमात्मा के हाथों में सौंपने के बजाय स्वयं ही उसे ठोक-ठाककर, अहंकाररूपी पत्थर से कूच-कूच कर रामविमुख हो जाते हैं।

हम यदि चाहते हैं कि साईसच्चरित का यह प्रथम अध्याय हमारे जीवन में आरंभ हो तो हमें अपने जीवन के खूंटे को बाबा के हवाले कर देना चाहिए। यदि हम ऐसा नहीं करते हैं तो बाबा की लीलाएँ हमारे जीवन में आरंभ कैसे होंगी। हमारे जीवन में माधुर्य कैसे आयेगा? और जहाँ साई नहीं वहाँ पूर्णत्व कैसे आयेगा? हमारे जीवन को पूर्ण बनाने के लिए यह गेहूँ पीसनेवाली कथा हमारे जीवन में अति महत्त्वपूर्ण है।

बाबा के हाथों में खूंटा सौंपना अर्थात बाबा की इच्छा के अनुसार हमें जीवन गति प्राप्त हो, यह निर्धार करना। ‘मेरी अपनी इच्छा कुछ भी नहीं, अपि तु बाबा की ही इच्छा के अनुसार वे जो कुछ भी मुझसे करवाना चाहते हैं वही मुझे करना है’, ऐसा मेरा निश्‍चय होना चाहिए, बाबा के चरणों में मेरी ऐसी ‘निष्ठा’ रहनी चाहिए।

जिसने भी निष्ठारूपी खूंटा बाबा के हाथों में सौंप दिया, मान लो उसके जीवन में साईसच्चरित प्रवाहित हो गया, पूरा का पूरा साईराम उसका हो गया। गेहूँ पीसनेवाली कथा यह छहों के छहों पुरुषार्थ सहजता के साथ साध्य करने के लिए सद्गुरु के द्वारा दिया गया अनमोल रत्न ही है। हेमाडपंतजी के जीवन में इस गेहूँ पीसनेवाली कथा के कारण ही साईनाथ ने निष्ठा का खूंटा पकड़कर उसे मजबूत करके उन्हें उनकी भूमिका के प्रति एकनिष्ठ बनाया और उनसे श्रीसाईसच्चरित की विरचना करवायी।

गेहूँ पीसने वाली कथा में हम जाँते को घूमते देखते हैं, मगर हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि उसे घुमानेवाला ‘कर्ता’ कोई और है। इसी तरह श्रद्धावान पुरुषार्थ करते दिखाई देता है, फिर भी उससे पुरुषार्थ करवाने वाला साईनाथ ही होता है। साईनाथ स्वयं ही उस श्रद्धावान का हाथ पकड़कर जाँता घुमाते रहते हैं। वे ही अपने भक्त को सामर्थ्य प्रदान करते रहते हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि आटा प्राप्त करने के लिए अर्थात नरजन्म की इतिकर्तव्यता होने के लिए लगने वाला ‘गेहूँ’ अर्थात परमेश्‍वरी सहायता यह साईनाथ स्वयं ही देते रहते हैं और मेरे प्रारब्ध का नाश उनकी कृपा से ही होता है।

श्रीसाईसच्चरित यह भी एक प्रकार की पीसाई ही है, जो साईनाथ स्वयं ही करते रहते हैं। वह घूमनेवाला जाँता स्वयं नहीं घूमता, बल्कि उसे घुमाने वाले स्वयं साईनाथ ही हैं। इसी तरह यहाँ पर श्रीसाईसच्चरित के लेखक भले ही हेमाडपंतजी है, परन्तु उनसे लिखवाने वाले श्रीसाईनाथ ही हैं। साईसच्चरित के लेखक, वक्ता दोनों साईनाथ ही हैं। यही बात हेमाडपंत हमें इस कथा के माध्यम से कहना चाहते हैं कि निष्ठा का खूंटा बाबा के हाथों में सौंपते ही बाबा की इच्छा हेमाडपंत के जीवन में प्रवाहित हो गई। जिस क्षण हेमाडपंत के मन में यह दृढ़ हो गया कि मेरी अपनी इच्छा कुछ भी नहीं है, जो बाबा की इच्छा है वही हो, उसी क्षण साईसच्चरित लिखने की इच्छा बाबा के मन से निकलकर उनके मन में प्रवाहित हो गई।

मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि जिस तरह पीसाई की लीला रचकर साईनाथ ने महामारी का विनाश किया उसी तरह श्रीसाईनाथ का दूसरा मुख्य उद्देश्य था हेमाडपंत के मन में श्रीसाईसच्चरित लिखने की इच्छा उत्पन्न करना। इसी लीला के माध्यम से साईनाथ ने हेमाडपंत को अपनी भूमिका का एहसास करवाया। इसके बाद हेमाडपंत के मन में अन्य कोई विचार आया ही नहीं। दिन-रात उनके मन में बाबा की पीसाई की क्रिया चलती ही रही और कथारूपी आटा प्रवाहित होता ही रहा।

साईसच्चरित की गेहूँ पीसने की लीला से बाबा को अभक्ति, विभक्ति, रामविमुखता, तामसी अंहकार इस तरह की मर्यादा-उल्लंघन-रूपी महामारी का नाश करना था। बाबा के द्वारा प्रदान किए गए निष्ठारूपी खूंटे का गलत उपयोग करना, उनके नियम एवं इच्छा विरुद्ध उसका अनुचित उपयोग करना यही मर्यादा का उल्लंघन करना कहलाता है। इसके विपरीत निष्ठारूपी खूंटा श्रीसाईनाथ के ही हाथों में सौंप देना यह मर्यादा पालन करना। जो भी इस मर्यादा का पालन करता है, उसके लिए साईनाथ स्वयं पीसने बैठते हैं और उसके जीवन के सभी स्तरों पर आने वाली महामारी का नाश कर उसे नरजन्म की इतिकर्तव्यता प्रदान करते हैं।

अब हम जान सकते हैं कि हमारी खातिर साईनाथ अनन्त गुना अधिक मेहनत करते रहते हैं। हमारा काम तो बस केवल इतना ही रहता हैं कि हमें खूंटा उनके हाथों में सौंप देना होता है। उसके बाद जाँता लेकर गेहूँ लेकर, खूंटा ठोककर, पीसना आदि सब कुछ वे ही करते रहते हैं। क्योंकि निरपेक्ष प्रेम करना यह उनका स्वभाव ही है।

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