श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग ५१)

हम पहले ही यह देख चुके हैं कि हेमाडपंत ने बाबा से ‘क्यों’ यह प्रश्‍न नहीं पूछा। परन्तु सामान्य मनुष्य के मन में ‘क्यों’ यह सवाल बार बार उठ सकता है। आगे चलकर इस ‘क्यों’ के क्या परिणाम होते हैं, इस बात पर हम विचार करेंगे।

अनेक बार परमात्मा की लीला का अनुभव कर लेने पर भी यदि बारंबार मनुष्य ‘उन’से ‘क्यों’ यह प्रश्‍न पूछता है, तब वहीं पर वह पहली गलती करता है और विश्‍वास खो बैठता है। परमात्मा ने अब तक मेरे लिए अनुचित ऐसा कुछ भी नहीं किया, यह जानते हुए भी मेरा उनसे प्रश्‍न पूछना यह इस बात को साबित करता है कि मेरा उन पर विश्‍वास नहीं है। विश्‍वास अर्थात अटूट श्रद्धा । जिस पल मेरे मन में ‘क्यों’ की खलबली मच जाती है, उसी क्षण से मेरे मन में रहनेवाली श्रद्धा कम होने लगती है।

मुझसे संबंधित घटनाओं का कारण आज नहीं तो कल मुझे पता चल ही जायेगा, यह जानकर भी हम जब परमात्मा को हर बात का कारण पूछते हैं, तो हमें यह जानना चाहिए कि हमने ‘सबूरी’ भी खो दी है।

यह ‘क्यों’ हमारी श्रद्धा एवं सबूरी को झकझोर देता है, उसे छेदने लगता है। श्रद्धा एवं सबूरी का आपस में गहरा संबंध है। साईनाथ ने हर किसी से केवल दो सिक्के ही माँगे और वे हैं श्रद्धा एवं सबूरी। जब हमारे पास वही दो सिक्के नहीं होंगे, तो हम बाबा को क्या देंगे? यदि हम बाबा को ये दो सिक्के देना चाहते हैं, तो हमें कहीं न कहीं ‘क्यों’ के इस क्रम को तोड़ना ही होगा।

श्रद्धा एवं सबूरी ये ही मानवी जीवन के दो सबसे पेशकीमती तत्त्व हैं। यदि ये ही मनुष्य के पास नहीं होंगे, तो मनुष्य का जीवन व्यर्थ ही हो जायेगा?
मनुष्य की परमात्मा के प्रति होनेवाली श्रद्धा और उस श्रद्धा को कायम रखनेवाली सबूरी इन दोनों के आधार पर ही जीवन चलता है। अर्थात हर एक मनुष्य को जिस ०° से ३६०° तक का वर्तुल पूर्ण करना होता है, उस वर्तुल में श्रद्धा एवं सबूरी की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।

हम एक बार फिर से गेहूँ पीसने वाली क्रिया पर विचार करेंगे।
अनाज पीसा जाता है जाते पर। इस जाते के महत्त्वपूर्ण भाग हैं – पृष्ठ भाग अर्थात ऊपरवाला गोलाकार हिस्सा, निचला गोलाकार हिस्सा और खूँटा।

satcharitra51_1पीसाई की क्रिया में इन तीनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। परंतु एक बात का ध्यान रखना चाहिए कि जब हाथ से खूँटा घुमाया जाता है, तब ऊपरी हिस्से को गति प्राप्त होकर पीसने की क्रिया आरंभ होती है। इसीलिए इस खूँटे को मज़बूती से ठोककर बिठाया जाता है। यदि वह ढ़ीला हो जाता है अथवा निकल जाता है, तब पीसने वाली क्रिया पर इसका बुरा परिणाम होता है। साथ ही इसकी गति पर भी परिणाम होता है। अर्थात पीसाई की संपूर्ण प्रक्रिया को निश्‍चित करने का काम यह खूँटा करता है। क्योंकि जब तक यह खूँटा घूमता नहीं, तब तक गति भी नहीं होती।

इसीलिए हेमाडपंत कहते हैं कि बाबा ने – खूँटे को ठोकठोकर मज़बूत किया। हो न सके ढीला पीसते समय। इस खूँटे को ठोककर साईनाथ मजबूत करते हैं। क्योंकि इसके रुकते ही पीसाई का भी काम रुक जाता है। इसी के समान मानवीय जीवन की वर्तुलाकार गति में ये परमात्मा इसी प्रकार के एक खूँटे को ठोककर मज़बूत करते हैं, जिससे मनुष्यजीवन की गति सुचारु रूप से चल सके; और वह खूँटा है- श्रद्धा और सबूरी का।

‘०° से ३६०°’ यह मनुष्य का जीवन-विकास करने के लिए परमात्मा हर किसी के जीवन में इसी प्रकार का श्रद्धा-सबूरी-रूपी खूँटा ठोकते रहते हैं और इसी के सहायता से हर किसी का जीवनप्रवास गतिमान होता है।

saisatcharitra51परंतु इस खूँटे को निरंतर गतिशील रखना है अथवा स्तब्ध रखना है, यह तो हर किसी के अपने हाथ में ही होता है। परमात्मा निरंतर प्रयास करके उस खूँटे को मजबूत करते रहते हैं।

परन्तु मेरा ‘क्यों’ कहकर पूछना यह इस खूँटे को बारंबार ढीला कर देता है। परमात्मा उसे पुन: पुन: ठोककर मजबूत करते रहते हैं। परन्तु हमारी ओर से यह ‘क्यों’ इतना प्रबल हो जाता है कि हम उस खूँटे को ढ़ीला करते-करते एक दिन उसे उखाड़कर बाहर निकाल देते हैं और उसके टुकड़े-टुकड़े करके पूरी तरह से उसे नष्ट कर देते हैं। अब यहाँ पर परमात्मा का भला क्या दोष है? वे तो पुन: श्रद्धा-सबूरी-रूपी खूँटा ठोकने को तैयार रहते हइं।

प्रश्‍न यह होता है कि क्या परमात्मा को मनुष्य उस खूँटे को ठोकने देगा या नहीं?
इस खूँटे की एक और भी विशेषता हम देखेंगे। एक बार यदि इस जाँते के खूँटे को व्यवस्थित रूप से बिठा दिया जाता है, तब पीसाई का कार्य बिलकुल आसान हो जाता है।

इसीलिए हेमाडपंत कहते हैं- बाबा अपने हाथ से जाँता खींचकर चलाते हैं और पीसनेवाले तत्त्व को उस में भरते रहते हैं नि:संकोच ॥
जब श्रद्धा-सबूरी का खूँटा मजबूत होता है, तभी जीवन की गति नि:संकोच आगे बढ़ती रहती है।

जब साईनाथ खूँटा खींचते हैं, तब पीसाई का कार्य सहज गति से चलता रहता है। जब चार औरतें बाबा के हाथों से खूँटा छिनकर पीसने लगती हैं, तब जाकर पीसते-पीसते ही बीच में शुरू हो जाता है, फलाशा का खेल।

जब तक परमात्मा मेरे जीवन के वर्तुल के केन्द्रस्थान में हैं और वे ही खूँटे को हाथ में पकड़कर मेरे जीवन को गति प्रदान करते हैं, तब तक मैं भी इसी तरह नि:संकोच, निश्‍चिंत रहता हूँ, लेकिन जब मैं परमात्मा के बजाय किसी और के हाथ में यह खूँटा पकड़ने को देता हूँ, तब निश्‍चित ही मेरी इस नि:संकोच वृत्ति का लोप होने लगता है।

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