श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग ४६)

इस दुनिया में सबसे परम पवित्र एवं सर्वश्रेष्ठ आनंद का उत्पादक और दूसरों को भी वहीं पावित्र्य एवं आनंद देनेवाला एकमेव परमात्मा ही है। ये ‘ॐकार’ ही सबसे पवित्र है इसी लिए संपूर्ण विश्व में मंगल यानी सिर्फ वे ॐकार ही, वे ‘परमात्मा’ ही है। ऐसे इस ॐकार गुणगान करना, ॐकार वंदन करके उनसे मंगल की प्रार्थना करना ही ‘मंगलमय आचरण’ अर्थात ‘मंगलाचरण’ है।

saibaba_new- परमात्माप्रथम अध्याय की गेहूँ पीसनेवाली कथा, वैसे देखा जाये तो बिलकुल सीधी-सादी लगनेवाली कथा। परन्तु बाबा के उस पीसनेवाली क्रिया के फलस्वरूप क्या हुआ यह हेमाडपंत बिलकुल स्पष्टरुप में वर्णन करते हैं,-‘रोगधोग की पूर्णत: नष्ट कर दिया।’

यानि बाबा के इस गेहूँ पीसकर सीमा पर डालनेवाली क्रिया से शिरडी की महामारी का समूल विनाश हो गया। ये हम सभी जानते हैं।यहाँ पर एक और ध्यान में रखनेवाला मुद्दा यानी इस पीसनेवाली क्रिया से दूसरी एक और महत्त्वपूर्ण क्रिया घटित हुई और वह है- हेमाडपंत के मन में श्रीसाईनाथ का चरित्र लिखने की इच्छा का बीज प्रस्फुटित हुआ।

हेमाडपंत ने स्वयं कहा है-

देख पीसाई का यह दृश्य। प्यार उमड़ आया मेरे मन में।
कैसा कार्यकारणभाव का मेल। ताल-मेल जुड़ा यह कैसा॥
क्या होगा यह अनुबंध । गेहूँ-बीमारी का क्या संबंध।
देख अतर्क्य कारण निर्बंध। मन में आया लिख डालूँ ॥

हेमाडपंत ने साईनाथ के ‘परमात्म’ स्वरूप को पूर्णरुप से जान लिया था, इतना ही नहीं तो ‘यही है मेरे भगवान’ यह भावना सिर्फ उनके मन में ही दृढ़ नहीं थी बल्कि वे कायावाचा मन से पूर्णत: उनके चरणों में समर्पित हो चुके थे। इसलिए गेहूँ पीसनेवाली घटना यानी केवल कोई जादू का खेल नहीं था बल्कि वह परमात्मा की लीला है।यही विश्वास पूर्णरुप से उनके मन में दृढ़ था। और इस अहसास के द्वारा परमात्मा की लीला को वे लोगों तक पहुँचाना चाहते थे साथ ही परमात्मा अपने बचन को सिद्ध करने के लिए फिर से एक बार मानव रुप धारण कर शिरडी में अवतार लेकर आये हैं। इस बात का पता लोगों को चल सके इस उद्देश्य से उनके मन में साईसच्चरित् लिखने की इच्छा उत्पन्न हुई। अर्थात इस इच्छा को उत्पन्न करनेवाला और पूरा करवानेवाला भी वही होता है। साईनाथ! इस प्रथम अध्याय के साथ ही हर एक भक्त के जीवन में ‘उस’ साईनाथ का प्रवेश हो चुका है। वास्तव में देखा जायें तो ‘वे’ परमात्मा हर एक जीव के जीवन अॅक्टिव्ह रहते ही हैं, मैं ही अपने कर्मानुसार उन्हें कभी-कभी साक्षी स्वरुप में रखता हूँ।

प्रथम अध्याय का नाम हीं ‘मंगलाचरण’ है । इस प्रथम अध्याय का नाम हेमाडपंत मंगलचरण के बजाय कुछ और भी रख सकते थे, बिलकुल गेहूँ पीसनेवाली कथा रख सकते थे, परन्तु उन्होंने इस अध्याय का नाम ‘मंगलाचरण’ ही रखा । शास्त्रों में किसी भी कार्य का आरंभ मंगलाचरण से करने की पद्धति है। मंगलाचरण यानी ईश्वर का स्मरण। प्रथम अध्याय का आरंभ हुआ है और ग्रंथ का भी आरंभ हुआ है इसीलिए उसका नाम मंगलाचरण रखा गया है क्या? अर्थात यह भी एक मुद्दा है लेकिन इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण कुछ तो होगा इस नाम के साथ।

हम शादी, जनेऊ आदि जैसे कार्यों को मंगल प्रसंग कहते हैं। उस समय का वातावरण बिलकुल हर किसी की प्रिय और पसंद भी होता है। यानी संक्षेप में कहा जाये तो वह वातावरण आनंददायक एवं पवित्र होता है और मुख्य तौर पर वहाँ पर दु:ख का नामोनिशान भी नहीं होता।

इस दुनिया में सबसे परम पवित्र और सर्वश्रेष्ठ आनंद का उत्पादक और दूसरों को भी वह पावित्र्य एवं आनंद देनेवाले एकमेव परमात्मा ही हैं। ये ‘ॐकार’ ही सबसे पवित्र है और इसीलिए संपूर्ण विश्व में मंगल अर्थात सिर्फ वे ॐकार ही, वे ‘परमात्मा’ ही है। ऐसे इस ‘मंगलमयआचरण’ यानी ‘मंगलाचरण’।

श्रीसाईसच्चरित यह ग्रंथ यानी साई का और उनके भक्तों का आचरित यानी आचरण है। हमने ऊपर कहेनुसार इस ‘ॐकार का’ परमात्मा का आचरण यानी ‘मंगलाचरण’ यानी साईनाथ का आचरित। साईनाथ की लीला और इस ‘मंगलाचरण’ नामक अध्याय से ही हेमाडपंत इस ॐकार स्वरूप, परमात्मस्वरुप परमात्मा साईनाथ के चरित्र का आरंभ करते हैं।

साईनाथ का आचरण यानी साईद्वारा अपने भक्तों को दी गई सीख है । इतना ही बल्कि एक मनुष्य होने के नाते गृहस्थी एवं परमार्थ में कैसा व्यवहार करना चाहिए। यह सीखकर उस सभी का होनेवाला ‘जीवनविकास’!

जिस पल ये साईनाथ हर किसी के जीवन में अॅक्टीव्ह होते हैं, उसी क्षण से हर किसी का जीवनपुष्प उमलने लगता है। जैसे-जैसे ये साईनाथ इस जीवन पुष्प को अधिकाअधिक खिलाते हैं, वैसे-वैसे ही उसकी खुशबू का अहसास उस-उस व्यक्ति को होने लगता है। इतना ही नहीं बल्कि आस-पास में भी फैलने लगता है और एक पल ऐसा आता है कि, जीवन की कली पूर्णरुप से विकसीत होकर फूल बन जाती है। उस पल पूर्ण जीवनविकास होनेवाले भक्त को अत्यन्त आनंद होता है, और मैं अपने भगवान को क्या दूँ और क्या नहीं ऐसी स्थिती उसकी हो जाती है। मात्र उस क्षण ‘उस’ परमात्मा की कृपा से तथा इच्छा से उमला हुआ जीवनपुष्प ‘उन्हीं’ के चरणों में अर्पण करना चाहिए, इससे अधिक सुंदर बात कोई और हो ही नहीं सकती है। मात्र उस क्षण ‘उस’ परमात्मा की कृपा से तथा इच्छा से उमला हुआ जीवनपुष्प ‘उन्हीं’ के चरणों में अर्पण करना चाहिए, इससे अधिक सुंदर बात कोई और हो ही नहीं सकती है।

आचरण में आदर्श रखना है तो सिर्फ परमात्मा के ही कारण ‘एकमेव’ ‘वे’ ही ऐसे हैं कि जब वे मानवरुप में अवतार लेते हैं तब वे मानवी देह की सभी मर्यादा का पालन करते हुए सर्वोत्तम एवं सबसे आदर्शपूर्ण आचरण सिर्फ ‘उन्हीं’ का होता है और वह सिर्फ अध्यात्मिक तौर पर ही नहीं तो गृहस्थ जीवन में भी। सर्वोत्तम भक्ति कैसे करनी चाहिए और साथ ही सर्वोत्तम गृहस्थी कैसे करनी चाहिए यह सिर्फ ‘वे’ ही स्वयं अपने कृति से और आचरण से बताते हैं। हम मनुष्यों को कम से कम उनके दिखाए गए रास्ते पर चलना चाहिए, उनके समान आचरण करने का प्रयत्न करना चाहिए तकि हम कम से कम १०० % प्रतिशत आचरण तो उनकी तरह कर सकें।

परमात्मा जब मानव देह धारण करत है, तब मनुष्यों के लिए उन्हें फॉलो करना आसान होता है, परन्तु जब वे मानवी देह धारण नहीं करते, तब मनुष्य को क्या करना चाहिए? अर्थात ऐसे समय में वे अपने भक्तों की सुविधा हेतु कुछ न कुछ इंतजाम करके रखते ही हैं जैसे कभी ग्रंथ के रुप में तो कभी ‘संतों’ के रुप में वे मनुष्य को ज्ञान प्रदान करते हैं। ताकि मनुष्य अपना जीवन सुख से जी सके उसका जीवन आसान हो सके इसीलिए वे हेमाडपंत जैसे श्रेष्ठभक्त के मन में श्रीसाईसच्चरित का बीजारोपण करते हैं।

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