श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग ४१)

अब तक हमने किसी भी कार्य की व्यवस्था में ध्येय (एम) एवं उद्दिष्टों (ऑब्जेक्टिव्हज) के बारे में जानकारी हासिल की। अब कार्य के व्यवस्था के अन्तर्गत आनेवाले अन्य एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर विचार करेंगे, जिसे बाबा के आचरण से हम सीखते हैं और वह है- ‘एकाग्रता’ (कॉन्सन्ट्रेशन)। ‘बाबा किस तरह गेहूँ पीस रहे थे’ इस बात का वर्णन करनेवाली एक सुंदर पंक्ति हेमाडपंत लिखते हैं।

saishyam- साईश्यामवे कहते हैं- खूँटा हाथों में अच्छे से पकड कर, गर्दन नीचे झुकाकर, अपने हाथ से जाँता चलाकर साईनाथ गेहूँ पीस रहे थे, बैर का खात्मा कर रहे थे।

खूंटा हाथों में पकड़कर, ‘गर्दन नीचे झुकाकर’ बाबा स्वयं के हाथों जाँता चला रहे थे और वैर का खात्मा कर रहे थे, ऐसा क्यों हेमाडपंत कहते हैं? यहाँ पर ‘गर्दन नीचे झुकाकर’ इन शब्दों के द्वारा हेमाडपंत हमें जो बात बता रहे हैं, वह है काम करते समय बाबा की रहनेवाली ‘एकाग्रता’। गेहूँ पीसते समय पीसाई पर पूरा ध्यान केन्द्रित करने के लिए बाबा गर्दन झुकाकर गेहूँ पीस रहे हैं। एक क्षण के लिए भी नज़र नहीं हटा रहे हैं। गर्दन झुकाकर पीसने की साईनाथजी की कृति से हमें ‘एकाग्रता’ यह महत्त्वपूर्ण बात सीखनी चाहिए। जो मनुष्य कार्य को पूर्ण एकाग्रता के साथ करता है, उसे अपने आप ही वर्तमान काल में जीने की कला प्राप्त हो जाती है। कोई भी कार्य करते समय जब मैं उस कार्य के अलावा अन्य बात का विचार न करते हुए उस कार्य में पूर्ण रूप से एकाग्रचित्त होकर सक्रिय रहता हूँ, तब अपने आप ही भूतकाल-भविष्यकाल की निरर्थक बातों में बेवजह फँसे रहने से बच जाता हूँ। साथ ही कार्य को एकाग्रचित्त करते समय स़िर्फ उसी कार्य में ही ध्यान बना रहने के कारण अवास्तविक कल्पनाओं से भी मैं दूर ही रहता हूँ । भूतकाल का भूत जिस तरह मेरे सिर पर सवार नहीं रहता, उसी तरह भविष्यकाल के भय का साया भी मेरे मन पर नहीं रहता, मैं वर्तमान काल मैं ही जीता हूँ, जिस कारण मेरा कार्य भी अचूक होता है।

इस पंक्ति के माध्यम से हेमाडपंत हम से कहते हैं कि बाबा पूर्ण समरस होकर गेहूँ पीस रहे हैं, पूर्ण एकाग्र होकर कार्य कर रहे हैं। हमें भी इससे ‘कार्य के साथ समरस होकर एकाग्रचित्त से काम करने की दिशा प्राप्त होती है। हम सामान्य मनुष्य हैं, हमें झट से एकाग्रता साध्य करते नहीं बनता। कोई बात नहीं। इस साईनाथ का नाम लेते हुए मन में उनका स्मरण कर काम करते रहना चाहिए, मेरी एकाग्रता को अधिक से अधिक दृढ़ बनाने के लिए ये मन:सामर्थ्यदाता साईनाथ मेरा ध्यान रखेंगे ही।

हम जाप, उपासना, आह्निक, गजर, भजन-पूजन, स्तोत्र-पाठ आदि जब करने बैठते हैं, तब हमें पता चलता है कि उसी समय हमारे मन में अजीबो-गरीब विचार उठते रहते हैं। कभी न आनेवाले विचार भी उस समय मुँह सिर उठाने लगते हैं। मुझे लगता है कि इस साईनाथ का ‘ॐ कृपासिन्धु श्रीसाईनाथाय नम:’ यह जाप मैं कर रहा हूँ, फिर ऐसे समय एकाग्रता होना तो दूर ही रहा, उलटे गंदे विचार भला कैसे आने लगे? मैं स्वयं को पापी समझने लगता हूँ और निराशा के अंधकार में डूबता चला जाता हूँ । परन्तु यहाँ पर हमें यह जानना चाहिए कि मैं कोई ‘संत’ नहीं हूँ, मैं एक सामान्य मानव हूँ और मुझमें गुणों के साथ-साथ दोष भी हैं ही। अपने मन में अनेक वासनाओं का, अनेक बातों का पोषण मैंने जन्मजन्मातर से किया है और जब शांतचित्त होकर के मैं उपासना करने बैठता हूँ, तब अन्तर्मन की गहराई में छिपे हुए ये विचार उछलकर ऊपर आयेंगे ही, इस में आश्चर्य की कोई बात नहीं है और इससे मुझे घबराकर उपासना बंद करने की भी कोई ज़रूरत नहीं है। यह तो मानवी मन की स्वाभाविक प्रक्रिया है और मन के विचारों को दबाये रखने की ताकत मुझमें नहीं है। मन पर लगाम सिर्फ साईनाथ ही कस सकते हैं। इसीलिए मन में जब-जब इस तरह के विचार, कल्पनाएँ अपना प्रभाव डालने के लिए जब भी प्रवेश करने लगते हैं, उसी क्षण ‘साईराम-साईराम’ कहते हुए अथवा अपने पसंदीदा मन्त्र का जाप, स्तोत्र का पाठ अथवा उपासना करते रहना चाहिए।

उपासना करते समयमन जब भी भटकेगा, तब-तब सावधानी पूर्वक पुन: मन को उपासना से बाँध लेना चाहिए, मन को बारंबार इस साईनाथ के साथ, साई-गुण-लीला-संकीर्तन के साथ बाँधकर रहना चाहिए। बार बार इस तरह करते रहने से मन का इस प्रकार तूफ़ान मचाना अपने आप ही कम हो जायेगा, क्योंकि साईनाथ ही उस पर लगाम लगाते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी बने थे यह बात हम सब जानते हैं। इससे महत्त्वपूर्ण बात हमें क्या सीखनी चाहिए? मेरे शरीररूपी रथ के मनरूपी घोड़े की लगाम अपने हाथ में न रखकर एकमात्र कुशल सारथी रहनेवाले जो साईश्याम हैं, उनके हाथों में सौंप देनी चाहिए। ‘मेरे रथ को मैं ही चलाऊँगा’ इस तरह का अहंकार रखकर परमात्मा के सख्यत्व को नकारने का दुष्कर्म जो करता है, उसी के रथ के घोड़े बेलगाम हो जाते हैं और रथ पटक-पटककर सब कुछ खत्म हो जाता है। क्यों? क्योंकि इस मनरूपी घोड़े को नियंत्रण में रखना हमारे बस के बाहर की बात है। यहाँ पर प्रथम अध्याय में ही हेमाडपंत ‘बाबा स्वयं गेहूँ पीसने बैठे हैं’ यही कहते हैं यानी ‘बाब ने लगाम हाथों में पकड़कर स्वयं ही प्रेमपूर्वक सारथी बनना स्वीकर किया है’ इसी बात को वे स्पष्ट करते हैं। हमें इन चारों औरतों के समान बाबा जो दिशा दिखा रहे हैं, वे जो कह रहे हैं, उसी दिशा में अपना काम करते रहना चाहिए। पीसने का कार्य स्वयं साईनाथ को ही आरंभ करना है, हमें सिर्फ उनका अनुकरण करना है। जिस तरह अर्जुन ने किया उसी तरह, श्रीसाईसच्चरित की इन चारों स्त्रियों की तरह।

मन एकाग्र कब होगा, मन में गलत विचार क्यों आते हैं, इन बातों की चिंता करने की अपेक्षा ‘पुन: पुन: इस साईनाथ का चिंतन करते रहने से अपने आप एकाग्रता आ ही जायेगी’ ऐसा दृढ़ विश्वास रखकर उपासना करते रहना चाहिए। अपने मर्यादा-मार्ग को कभी भी छोड़ना नहीं चाहिए। मेरे साईनाथ सब कुछ जानते हैं। मेरी जो कुछ भी मजबूरी है, आनेवाले गलत विचार हैं उन सब को मैं बाबा के सामने बता दूँगा। बस भाव यही होना चाहिए कि मैं जिसके साथ बात कर रहा हूँ वह महज़ तसवीर नहीं है बल्कि ‘प्रत्यक्ष’ मेरे साईनाथ ही हैं। मैं बाबा से  प्रार्थना करूँगा, बारंबार मन को साईचरणों में बाँधने की, साईनाम में व्यस्त रखने की कोशिश करता रहूँगा। मै  अपना काम करता रहूँगा, मेरे साईनाथ अपना काम करते ही हैं।

जिस तरह वे चारों स्त्रियाँ साईनाम, साईगुण, साईलीला गाते-गाते पीसाई की क्रिया में अपने आप एकाग्र हो गई, तो फिर मुझ से यह क्यों नहीं होगा? हमारी ही तरह गृहस्थाश्रम में  रहनेवालीं वे महिलाएँ जब एकाग्रता साध सकती हैं, तो फिर मेरे लिए यह असंभव कैसे हो सकता है?

‘एकाग्रता’ का ‘सरलार्थ’ एवं ‘भावार्थ’ अब देखते हैं। ‘एक-अग्रता’ यानी एकाग्रता। हम जो कार्य करते हैं उसी कार्य के प्रति ध्यान बनाये रखना और अन्य सभी बातों से मन को अलिप्त रखना यह एकाग्रता का सरल-अर्थ है। परन्तु इसके साथ ही ‘एकाग्रता’ शब्द का भावार्थ भी अपना अलग महत्त्व रखता है। ‘एकमात्र ये साईनाथ ही मेरे जीवन में सदैव अग्रस्थान पर होने  चाहिए’ यह उन ‘एक की ही’ यानी सद्गुरु साईनाथ की ही अग्रता है ‘एकाग्रता’ । यह ‘एकाग्रता’ हमारे मन में, जीवन में दृढ़ होना सब से अधिक महत्त्वपूर्ण है।

एकाग्रता यानी मेरे जीवन में अग्रस्थान पर यानी सबसे पहले, सबसे आगे, मुझसे भी आगे मेरे लिए मेरे साईनाथ ही हैं। पहले हमने जो अर्जुन का उदाहरण देखा उस पर गौर करेंगे। अर्जुन अपने रथ में श्रीकृष्ण के पीछे थे। उनके सारथी कृष्ण ही उनके आगे थे यानी ‘अग्रत:’ थे। ‘श्रीकृष्ण जैसे कहेंगे वैसे ही करूँगा । वे कृष्ण ही, सदैव मेरे अग्रत: होंगे। स़िर्फ वे ही आगे और मैं उनके पीछे-पीछे उनके द्वारा बताये गए रास्ते पर जैसा वे कहेंगे वैसा करते रहूँगा’ यही एकाग्रता अर्जुन ने अपनायी।

गेहूँ पीसनेवाली कथा की उन चारों स्त्रियों ने भी इसी ‘एकाग्रता’ को अपनाया है। ‘हमारे साईनाथ ही एकमात्र सदैव हमारे ‘अग्रत:’ और वे कहेंगे वैसा ही हम करेंगे’ यह उनकी एकाग्रता है और इसीलिए बाबा के बाद तुरंत वे पीसने बैठ गई, बाबा ने कहा इसलिए उन्होंने तुरंत ही उस आटे को ले जाकर गाँव की सीमा पर डाल दिया। ‘एकाग्रता’ यानी ‘तुम कहोगे वही और वैसा ही!’ ‘साईनाथ, सिर्फ तुम ही एकमेव मेरे सब कुछ हो, हे भगवन्! तुम ही सदैव अग्रस्थान पर हो । इसीलिए हे भगवन, तुम जो कहोगे वही मैं करूँगा!’ ऐसी एकाग्रता साध्य करना भक्तिमार्ग का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण अंग है।

आज हमने देखा कि कार्य-व्यवस्थापन का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है- ‘एकाग्रता’। यहाँ पर हमने इसका सरल अर्थ एवं भावार्थ दोनों को भी देखा। ‘हम सामान्य मानव हैं, इसीलिए हमारे लिए एक दिन में, एक महिने में या शायद एक वर्ष में भी इस एकाग्रता को सिद्ध करते नहीं बनेगा, परन्तु निराश होकर आधे पर ही उपासना छोड़ना उचित नहीं होगा। मैं अपना कार्य करता ही रहूँगा। समर्थ हरि गुरु फल देंगें ही।’ इस विश्वास के साथ क्रियाशील रहने पर ‘एकाग्रता’ निश्चित ही साध्य की जा सकती है। यह हर एक श्रद्धावान के लिए संभव है, यही बाबा का अभिवचन है- ‘‘तुम अपने प्रयास करते रहना, मैं तुम्हारे लिए हाथ में दूध का कटोरा लिये खडा ही हूँ।’’

2 Responses to "श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग ४१)"

  1. Suneeta Karande   August 18, 2016 at 8:36 am

    मेरे लिए मेरे साईबाबा ही मेरे साईराम है, मेरे साईश्याम है । मुझे साईबाबा की कृती में ही अर्जुन को गीता सिखानेवालें भगवान कृष्ण भी नजर आतें हैं । इस बात को बखुबी लेखक महोदय ने अपने इस लेख में बहुत ही सुंदरता से बयान किया हुआ , मैने पढा । मैं खुशी से फूली नहीं समाई कि लेखक भी यही बात दोहरा रहा था कि एकाग्रता हो तो ऐसी कि मेरे साईनाथ ही मेरे जीवन में हमेशा एकमेव उच्च स्थान पर विराजमान है, वो ही मेरे लिए सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है ।
    इस लेख को पढकर मेरी साईभक्ती ओर गहरी होने के लिए सींख मिली । धन्यवाद “प्रत्यक्ष-मित्र ” ।

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  2. Naresh Khandale   August 24, 2016 at 12:03 pm

    Article is really nice new very well thought. It says, it’s bit obvious to loose concentration while trying to pray. But ignoring those bad thought’s and chanting our Sadguru mantra will help us to slowly overcome these bad thoughts. Make Sadaguru active driver of our life like Arjuna did and following him wI’ll defiantly help us to cross this bhavasagara.

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