श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग ३४)

Saibaba_Dalan

बाबा के आचरण का अभ्यास करके हमें उचित आचरण करने का मार्गदर्शन प्राप्त होता है । स्वयं सर्वसमर्थ होते हुए भी मानवरूप धारण करके अवतरित होनेवाले साई हम मानवों को उचित आचरण की दिशा प्रदान कर रहे हैं । ‘मनुष्य को कैसा आचरण करना चाहिए?’ इस बारे में बडे बडे उपदेश न करके स्वयं के आचरण से ही बाबा ने हमें अचूक मार्गदर्शन किया है । प्रथम अध्याय की कथा में हम इस उचित आचरण का ही अध्ययन कर रहे हैं । दो मुद्दे अब तक हमने देखे :

१)    समय का अचूक नियोजन और
२)    कोई भी कार्य करते समय स्वयं के अन्य कर्तव्यों का भी ध्यान रखना ।

अब हमें तीसरे मुद्दे का अध्ययन करेंगे । दंतधावन एवं मुखप्रक्षालन करके (दाँत साफ़  करके मुँह हाथ धोकर) बाबा ने महीन आटा पीसना आरंभ किया यह हेमाडपंत हमें बता रहे हैं । यहीं पर तीसरी बात हमारी समझ में आ जाती है कि कोई भी कार्य करते समय सबसे पहले ही अंतिम ध्येय निश्चित कर लेना चाहिए । ‘मुझे विशेष तौर पर क्या करना है’ इस बात का पूर्णरूप से ध्यान रखकर ही हमें कार्य करना चाहिए । बाबा ने ‘महीन’ आटा पीसना आरंभ किया यानी बाबा को ‘खुरदरा’ अथवा ‘सामान्य’ आटा नहीं पीसना था, बल्कि महिन आटे की ज़रूरत होने के कारण वे महिन आटा पीस रहे थे । यही उनके पीसने बैठने का उद्देश्य था ।

महीन आटा पीसने के लिए जाँते में अनाज डालने के लिए जो जगह होती है, वहाँ पर पच्चर/पच्चड लगा दिया जाता है, जिससे कि उचित प्रमाण में ही अनाज भीतर जाकर आटा बिलकुल महीन पीसा हुआ मिले ।

बाबा ने पीसना शुरू कर दिया, ऐसा न कहकर हेमाडपंतजी यह कहते हैं कि बाबा ने ‘महीन’ आटा पीसना आरंभ किया । इसका अर्थ यह है कि पीसाई का आरंभ करने से पहले ही बाबा ने अपना ध्येय निश्चित कर लिया है और उस ध्येय के अनुसार ही बाबा ने कार्य का आरंभ कर दिया है । हमें इससे सीखना चाहिए कि कोई भी कार्य आरंभ करने से पहले यह कार्य मैं किस लिए कर रहा हूँ, इस कार्य के पीछे मेरा क्या उद्देश्य है इस बात को मन में पहले ही निश्चित कर लेना चाहिए और फिर उस कार्य को करते समय इस उद्देश्य को कभी भूलना नहीं चाहिए ।

जब हम बाबा के पास जाने लगते हैं, सेवाकार्य में शामिल होने लगते हैं, उस समय हमारे जीवन का अंतिम ध्येय सिर्फ साईनाथ के चरण ही होना चाहिए । आरंभ में साईनाथ के यहाँ अपनी किसी समस्या को लेकर आया था । परन्तु वह तो केवल एक निमित्त ही था । वह एक सच्चे भक्तिमार्ग का आरंभ था ही नहीं। जब बाबा की कृपा से मेरी समस्या का समाधान हो गया और मुझे बाबा की कृपा से नरजन्म सार्थक करने का अवसर मिला, तभी मुझे अपना अंतिम ध्येय समझ में आया, फिर बाबा की भक्ति-सेवा के पथ पर से चलते हुए जैसे-जैसे समय बीतता है, वैसे-वैसे हमें अपने ध्येय की विस्मृति होती है।

साईमन्दिर में झाडू लगाने की सेवा करते समय यदि कोई अन्य भक्त मुझे कुछ कहता है तो तुरंत ही मेरे अहंकार को ठेस लगती है। फिर मैं बाबा का चिंतन करने के बदले उस व्यक्ति के बारे सोचने लगता हूँ और उसकी बेइज़्ज़ती करने का मौका ढूँढ़ने लगता हूँ । यहाँ पर मुझे यह ध्यान में रखना चाहिए कि चाहे मुझे कोई कुछ भी कहे, मुझे अपने अंतिम ध्येय की विस्मृति नहीं होने देनी चाहिए । मेरे बदले यदि किसी अन्य व्यक्ति को आरती करने की अथवा बाबा का आसन व्यवस्थित करने की सेवा मिल जाती है, तो मेरे पेट में दुखने लगता है। ‘इसे बाबा के इतने करीब की सेवा मिली और मुझे भक्तों की चप्पलें सँभालने की सेवा मिली’, इस प्रकार की तुलना करके हम ही ‘नंबर’ लगाते हैं ।

हेमाडपंत साईसच्चरित में स्पष्ट रूप में कहते हैं कि इस प्रकार के ‘नंबर’ मत लगाओ। ऐसा करना सर्वथा अनुचित ही है । बाबा किसी के साथ प्रेम से बात करते हुए दिखाई देते हैं, तो वह बाबा का बहुत ‘करीबी’ है और यदि किसी पर बाबा ‘क्रोधित’ हो जाते हैं तो वह ‘दूर का’ है, इस प्रकार भक्तों का नंबर लगाना सर्वथा अनुचित ही है । किसी को बाबा के आसन के नज़दीक सेवा मिल गई इसलिए वह करीबी और किसी को दूर की सेवा मिलती है इसलिए वह दूर का, ऐसा नंबर लगाकर हम गलती करते हैं ।

कोई बहुत वर्षों से बाबा के पास आता है इसलिए वह ‘पुराना’ भक्त है, वरिष्ठ (सीनियर) है, वह करीबी (नीयर) है और कोई अभी-अभी बाबा के पास आने लगा है इसीलिए वह कनिष्ठ है ऐसा मानना भी सर्वथा अनुचित है । इस प्रकार भक्तों का नंबर लगानेवाले हम होते कौन हैं? हमें यह अधिकार दिया किसने? बाबा की नज़रों में सभी भक्त समान होते हैं । साईनाथ के दरबार में हर किसी की लाइन अलग होती है; न कोई किसी के आगे होता है और ना ही कोई किसी के पीछे । हर कोई अपनी-अपनी लाइन में आगे-पीछे होते रहता है । परन्तु इस तरह नंबर लगाने के चक्कर में हम अपने अंतिम ध्येय को भूल जाते हैं, जो है- ‘साईचरण’; और साईचरण भूलने से हम राह से भटक जाते हैं ।

हमारा अंतिम ध्येय सदैव हमारे हृदय में दृढ़ होना चाहिए और कभी भी उसका विस्मरण नहीं होने देना चाहिए । इस ध्येय को याद करते हुए ही अपने कार्य का आरंभ कर उस काम के पूर्ण होने तक अपने ध्येय का ध्यान रखना चाहिए । हम साईनाथ की भक्ति-सेवा हेतु एकत्रित होते हैं, वहाँ पर भी बाबा की प्रेमपूर्वक उपासना करने के बजाय एक-दूसरे की निंदा आदि करते हैं, चुगली-चमारी करते हैं । दूसरों के पीठ पीछे उनकी बुराई करते हैं । हम यहाँ पर एकत्रित क्यों होते हैं? हर गुरुवार को अथवा साई-उपासना के विशेष दिन हम किस उद्देश्य से यहाँ पर एकत्रित होते हैं? हम सभी का अंतिम ध्येय एक ही होने के कारण यानी ‘साईनाथ के चरण’ यह होने के कारण  हम सामूहिक रूप से उपासना कर रहे हैं, यह बात हम भूल जाते हैं।

अकेले ही प्रवास करने की बजाय सभी लोग मिलकर यह प्रेमप्रवास करते समय वह और भी अधिक तेज़ी के साथ, आनंदपूर्वक,  सुफल-संपूर्ण हो जाता है । हमारा अंतिम ध्येय ‘साईनाथ के चरण’ ही है और इसीलिए हम एक साथ जमा होते हैं, इस बात का ध्यान भक्ति-सेवा के हर एक कार्य में बनाये रखना चाहिए । साईनाथ स्वयं पीसाई का कार्य आरंभ करने के पहले ही ‘महीन’ आटा पीसकर महामारी का निराकारण करना है, यह उद्देश्य रखकर ही पीसने का कार्य आरंभ करते हैं । बाबा जब तक पीसते रहते हैं, तब तक महीन आटा ही पीसा जाता है अर्थात बाबा के द्वारा ‘महीन’ आटा पीसने का काम बिलकुल अचूक रूप में होता रहता है ।

कुछ देर बाद वे चारों औरतें जब पीसने लगती हैं, तब आटा खुरदरा पीसा जाता है । अब प्रश्न यह उठता है कि ‘बाबा जो चाहते थे उस तरह का महीन आटा अंत में तैयार हुआ ही नहीं, तो क्या बाबा का ध्येय साध्य नहीं हुआ?’ पर इसका उत्तर भी हमें इसी कथा में मिलता है कि उनका ध्येय १०८% प्रतिशत साध्य हुआ ही, महामारी का उस समय समूल विनाश हुआ ही । यह बात हेमाडपंत ने साफ साफ लिखी है।

तात्पर्य यह है कि बाबा ने ‘महीन’ आटा पीसने के लिए ही यदि इस कार्य का आरंभ किया था, फिर भी इस परमेश्वरी कार्य में भक्तों को शामिल होने का अवसर साईनाथ दे रहे हैं और उस अवसर का लाभ उठाकर अपना स्वयं का अंतिम ध्येय सिद्ध करने के लिए ये चारों भक्त-महिलाएँ उस गेहूँ पीसनेवाली क्रिया में शामिल हो रही हैं, यह जब बाबा ने देखा, तब उन भक्तों का ‘प्रेम’ देखकर बाबा ने, इस दुनिया की सर्वोच्च ऐसी ‘प्रेम’ यह शक्ति जिस क्रिया में पूर्णत: प्रकट हुई, उसी प्रेमशक्ति के माध्यम से खुरदरे आटे में महीन आटे का सामर्थ्य प्रवाहित किया । द्रव्य एवं भाव इन दोनों में ‘भाव’ ही श्रेष्ठ है । क्योंकि इस प्रेमभाव में ही सभी प्रकार की न्यूनता को परिपूर्णता प्रदान करने का सामर्थ्य है । ‘द्रव्य का महत्त्व कम है’ ऐसा इसका अर्थ बिलकुल भी नहीं है, परन्तु यहाँ पर महीन आटा और खुरदरा आटा इनके बीच में रहनेवाली द्रव्यात्मक भिन्नता एवं न्यूनता को प्रेमभाव से पूर्ण करके साईकृपा ने अपने ध्येय को साध्य किया ही ।

मेरे बाबा इस बात को भी पूर्ण रूप में जानते ही हैं कि मेरे ये भक्त ‘महीन’ आटा पीसने में इतने माहिर नहीं हैं । परन्तु उन भक्तों का प्रेम जब बिलकुल सौ आना होता है, तब कच्ची मेहनत भी पक्का फल प्रदान करती है। प्रेम हमेशा अचूकता से कार्य करता है । ‘महीन’ आटा तो सिर्फ अकेले मेरे साईनाथ ही पीस सकते हैं । महामारी जैसी भयंकर बीमारी का विनाश सिर्फ वे ही कर सकते हैं । हमारा अंतिम ध्येय अनन्यप्रेमस्वरूप ये साईनाथ ही हैं, इस बात को ध्यान में रखकर हमें पूर्ण प्रेमपूर्वक उनके द्वारा हाथ में लिये गये कार्य में शामिल होना चाहिए ।

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