श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग २९ )

9मोहरूपी रोग और अहंकाररूपी रोगजन्तुओं से उत्पन्न होनेवाली यह महामारी आखिर करती क्या है? यह महामारी संपूर्ण मानवजाति को अंधकार की राह पर से अभाव की ओर ले जाती है । मोह और अंधकार के कारण उस व्यक्ति के जीवन से परमात्मा पूर्ण रूप में विमुख हो चुके होते हैं। अत एव उस व्यक्ति के जीवन में सद्गुरुतत्त्व साक्षीभाव में रहता है और न्यायाधीश की भूमिका में रहता है ।

जीवित मनुष्य को सतानेवाला सबसे बडा भय कौनसा है ? निश्चित ही मृत्यु का डर । क्यों? क्योंकि मानव का मानना होता है कि मृत्यु यह जीवन का अंत है। यह भय, सच पूछा जाये तो जन्म से ही मानव के मन में रहता है। महामारी में मृत्यु प्राय: निश्चित ही होती है और इसीलिए इस मृत्यु के भय से मनुष्य को छुटकारा दिलाने के लिए आते हैं साईनाथ!

विश्व के आज तक के इतिहास में अनेक बार हम देखते हैं कि दुष्प्रारब्ध-रूपी महामारी के फैलने पर मानव प्रजाति पर अपमृत्यु का संकट आया और हर बार वह परमात्मा अवतरित हुआ है । एक संपूर्ण आदर्श मानवजीवन जीकर मनुष्यों के भय का नाश करने के लिए वह मानवरूप धारण करके भी अवतरित हुआ है ।

सच में देखा जाये तो इस भय का नाश करती है परमात्मा की भक्ति और हर बार स्वयं परमात्मा ही मनुष्य को स्वयं अपने ही आचरण से भक्ति कैसे करनी चाहिए यह सीखाते हैं ।

परमात्मा की भक्ति का अभाव रहना यह रावण की अंधकार भरी राह पर चलना है अर्थात् श्रीराम की वानर सेना में शामिल न होकर रावण के राक्षसों की सेना में जाकर मिल जाना । राक्षस सेना में जाकर खडे रहने से रावण के आधिपत्य का स्वीकार मानव कर लेता है और ऐसे मनुष्य के जीवन में दुर्दशा निश्चित है ।

मृत्यु हो या अपमृत्यु, दोनों में ही मनुष्य को प्रारब्ध का सामना तो करना ही पड़ता है । समाज में महामारी जितने अधिक प्रमाण में फैलती है, उसी के अनुपात में अपमृत्यु के बढ़ने से संपूर्ण समाज का अस्तित्त्व ही खतरे में पड़ जाता है और मर्यादाभंग के कारण ही यह मुसीबत मानवसमाज को झेलनी पडती है, वह भय के घने साये में जीने लगता है ।

मर्यादा का पालन न करने पर क्या होता है, यह जानने के लिए इतिहास के अनेक जीते-जागते उदाहरण दिखाई देते हैं । श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रंथराज भी इस बात की विस्तृत जानकारी देते हैं और यह भी बताते हैं कि मर्यादा का उल्लंघन करके जीया जानेवाला जीवन यह मानव को अंधकार भरे रास्ते पर चलने के लिए मज़बूर कर देता है । ऐसी राह पर, जिस राह पर सूर्योदय कभी भी नसीब नहीं होता यानी मज़बूर होकर उसे रावण की सेना में ही खडे़ रहकर लड़ना पड़ता है और विश्व की उत्पत्ति से लेकर आज तक रावण की अथवा उसकी सेना की विजय कभी भी नहीं हुई है और ना ही इसके आगे कभी होगी । ‘रामो राजमणि: सदा विजयते ।’

कर्म के अटल सिद्धान्त के अनुसार प्रारब्ध से कोई भी बच नहीं पाया है और मृत्यु, फिर वह किसी भी प्रकार की हो, उसके पश्चात प्रारब्ध-भोग हर एक को भुगताना ही पड़ता है ।

कर्म करना जिस तरह हर एक मनुष्य के लिए अनिवार्य है, उसी तरह हर एक कर्म के साथ प्रारब्धभोग भुगतना भी अनिवार्य है । मनुष्य स्वयं के प्रारब्ध में किसी भी प्रकार का बदलाव बिना पुरुषार्थ किये नहीं कर सकता और पुरुषार्थ करने के लिए भगवान की भक्ति करना अनिवार्य है। प्रारब्ध में हस्तक्षेप करने का पूर्णत: अधिकार परमात्मा को है और जहाँ योग्य है वहाँ वे हस्तक्षेप करते ही हैं । परंतु इसके लिए मनुष्य की भक्ति बलवान एवं सुदृढ़ होनी चाहिए और उसकी परमात्मा के चरणों में अनन्य निष्ठा भी होनी चाहिए ।

भय को दूर करने का एकमात्र मार्ग है ‘भक्ति’ । क्योंकि भक्ति यह हिम्मतवालों का काम है, यह कायरों का काम नहीं है और इसीलिए स़िर्फ ऐसी एक महामारी ही नहीं, बल्कि हर स्तर की अपमृत्यु एवं भय को नष्ट करते हैं ‘वे’ परमात्मा ही और ‘उन’की भक्ति ही ।

साईसच्चरित का आरंभ जिस महामारी की कथा से होता है, वह कथा ही वास्तव में भक्ति का अनन्यसाधारण महत्त्व अधोरेखित करती है ।

यहाँ पर उन चारों स्त्रियों के भक्तिभाव की तरफ ध्यान देना चाहिए । बाबा पीसने बैठे हैं, यह जानकारी मिलते ही वे दौड़ते हुए वहाँ आ पहुँचती हैं और बाबा से प्रेमपूर्वक लड़-झगड़ कर पीसने बैठ जाती हैं । इस कृति के पीछे सिर्फ उनका बाबा के प्रति होनेवाला प्रेम ही हैं । यहाँ पर ‘बाबा पीसने बैठे हैं’ यह जानकारी मिलने पर उन्होंने ‘जाने दो ना, उन्हें पीसना है तो पीसने दो, हमें क्या करना है’ ऐसा विचार नहीं किया । ‘मेरे बाबा पीसने बैठे हैं, कहीं उन्हें कोई कष्ट न हो’ इस भाव से वे स्वयं बाबा के साथ लड़-झगड़कर ही सही, गेहूँ पीसने बैठ गईं । इसके पीछे सिर्फ साई-प्रेम ही है ।

हेमाडपंत यहाँ पर उल्लेख करते हैं मरी के यानी महामारी के फैलने के बारे में । महामारी की यानी फिर एक बार हम प्लेग की चर्चा करेंगे। पहले जब प्लेग जैसे बीमारियाँ फैलती थी, तब उस रोगी को अन्य लोगों से, जिन्हें बीमारी नहीं हुई है उनसे अलग रखा जाता था । परन्तु हेमाडपंत के महामारी के उल्लेख में इस तरह कहीं भी लोगों को अलग रखे जाने का उल्लेख नहीं किया गया है ।  हेमाडपंत भौतिक महामारी के साथ मानसिक स्तर की महामारी का ज़िक्र यहाँ पर कर रहे हैं।

अब इस मानस स्तर की महामारी के बारे में हम चर्चा करेंगे । पहली बात तो यह है कि क्या सचमुच यह महामारी भौतिक धरातल की थी? यह विचार करने योग मुद्दा है । क्योंकि यदि वह भौतिक धरातल की होगी तो संक्रमित रोगियों को कहीं भी अलग रखने का उल्लेख दिखाई नहीं देता।

दूसरी बात यह है कि उस मानसिक स्तर पर फैलनेवाली महामारी ने शिरडी में इस प्रकार छिपे कदमों से प्रवेश किया था कि किसी भी व्यक्ति को महामारी के फैलने का पता भी न चल पाया । इस पर भी विचार करने लायक दो मुद्दे हैं ।

प्रथम बात यह है कि इस महामारी का पता साईनाथ को चल गया था और दूसरी बात यह है कि साईनाथ के राज्य में रहते वह महामारी शिरडीवासियों का बाल तक भी बाँका नहीं कर सकी ।

हर एक मनुष्य के मन में फैल चुका अहंकार का रोगजन्तु और मोह का रोग ये दृश्य स्वरूप में शरीर पर दिखाई देनेवाले तत्त्व नहीं हैं, पर यदि एक बार उन्होंने मन पर कब्जा कर लिया, तो फिर रोग के लक्षण अपने आचरण के अनुसार दिखाई देने लगते हैं । मन एवं शरीर इनका परस्पर अनुबंध इतना विचित्र है कि मन का रोग शरीर पर कब्जा करता ही है ।

आज भी वैद्यकशास्त्र ने इतनी प्रगति करने के बावजूद भी हम देखते हैं कि जितनी सहजता से सर्दी, खाँसी, बुखार ठीक हो जाता है, उतनी ही सहजता के साथ मानसिक रोग ठीक नहीं होता । मनुष्य अभी तक जहाँ अपने स्वयं के मन को ठीक से नहीं समझ पाया है, तो वहाँ उसकी बीमारी की रामबाण औषधि ढूँढ पाना और भी अधिक कठिन बात है ।

मन का इलाज करना यह मनुष्य के लिए संभव है, परन्तु मन में छिपी बुरी प्रवृत्तियों को देना मनुष्य के हाथों में नहीं है ।

आयुर्वेद इसीलिए प्रयत्नशील रहता है कि मनुष्य बीमार ही न पडे। और यदि पड भी जाये, तो रोगों के उपचार हेतु औषधियाँ भी बताता ही है ।

केवल एकमेव परमात्मा ही इस मन का ‘अच्छी तरह से इलाज’ कर सकता है और वह भी जड से । जिसने अपने मन में परमात्मा को  हमेशा के लिए स्थान दे दिया, उसके मन को रोग अथवा कोई भी रोगजंतु दोनों भी छू तक नहीं सकते ।

कलियुग के बढ़ते हुए प्रभाव के साथ साथ हर एक मनुष्य के मन का बल घटते ही चला जा रहा है और जब मन दुर्बल होता है, तब वह बारंबार बीमार पड़ जाता है । संक्षेप में कहा जाये तो मन की रोग-प्रतिकार-शक्ति (इम्युनिटी) मानो नष्ट ही हो जाती है । इस मन को चाहिए होता है वह सिर्फ़ सामर्थ्य, क्योंकि यही सामर्थ्य उसकी रोगप्रतिकारक शक्ति को भी बढ़ाता है। और यह सामर्थ्य केवल मन:सामर्थ्यदाता सद्गुरुतत्त्व ही दे सकता है ।

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