श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग १७)

10_Dalan_baba coपरमात्मा जब किसी भी कार्य का आरंभ करते हैं, तब यह स्वाभाविक है कि वह कार्य उन्होंने मनुष्य के लिए ही आरंभ किया होता है; परन्तु इस बात का पता चलने के लिए मनुष्य को समय लगता है | हमने इससे पहले ही यह देखा कि परमात्मा के कार्य का अवलोकन करने को मिलना यह भी महद्भाग्य की बात है | यहॉं पर एक महत्त्वपूर्ण बात पर ध्यान देना चाहिए कि मनुष्य जब परमात्मा के कार्य का हिस्सा बनता है, तब वे परमात्मा मनुष्य को अनंत करों से मुक्त रूप में देते ही रहते हैं, परंतु मनुष्य को सदैव अपेक्षा होती है ‘फल’ की |

जिस तरह गेहूँ पीसनेवाली चारों औरतों ने कुछ देर के लिए ही सही, लेकिन उस पीसे गए आटे का मोह किया ही था | कार्य करते समय मानव सदैव फल की अपेक्षा रखता है, फिर चाहे वह कार्य उसने अकेले अथवा अनेकों ने मिलकर किया हो, वह फलाशा करता ही है, फिर वह फल किसी वस्तु रूप में हो अथवा श्रेय (क्रेडिट) के स्वरूप में हो, वह मुझे मिलना ही चाहिए यह उसकी भावना रहती है| उन औरतों के मामले में भी बिलकुल ऐसा ही कुछ हुआ था और ‘पीसे गए आटे में हमें हिस्सा मिलना ही चाहिए’ ऐसी इच्छा उनके मन में उत्पन्न हुई | परन्तु ऐसे ही समय में मनुष्य को सावधान हो जाना चाहिए क्योंकि ईश्वरी कार्य में सम्मिलित होने वाले मनुष्य के द्वारा उस कार्य के प्रति फलाशा रखने की बुद्धी मनुष्य को गुमराह करती है | विशेष महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ईश्वरी कार्य किसी एक मनुष्य के द्वारा किया गया हो अथवा सामूहिक तौर पर किया गया हो, उसके श्रेय का बँटवारा करने का अधिकार किसीको नहीं है, केवल परमात्मा ही समय समय पर उसका अनेक गुना उचित फल मनुष्य को देते ही रहते हैं |

हम फिर से एक बार रामायण के उस प्रसंग की ओर ध्यान देंगे | लंका पर चढाई करने के लिए जब सेतु बनाया जा रहा था, तब वहॉं पर नन्हीं सी गिलहरी से लेकर वानरसैनिक तक सभी काम कर रहे थे | हर एक ने रामनाम लिखा पत्थर समुद्र में डाला | यहॉं पर एक बात पर ध्यान देना चाहिए कि किसी भी वानर ने यह नहीं कहा कि यह पाषाण मैंने डाला है और मैं इस कार्य में सहभागी हुआ था अथवा इस बात का पता दूसरों को चले इस उद्देश्य से अपना स्वयं का नाम उस पाषाण पर नहीं लिखा था, हर एक पत्थर उन्होंने हनुमानजी के हाथों सौंप दिया था और हनुमानजी के द्वारा उसपर रामनाम लिखे जाने के बाद उन्होंने उसे समुद्र में डाल दिया था | क्योंकि वे वानर यह भली भॉंति जानते थे कि रामनाम से ही पत्थर तैर सकता है |

‘युद्ध मेरे राम करेंगे और मैं सच्चे वानर सैनिक की तरह उनके साथ रहकर उनकी आज्ञा का पालन करूँगा’ यह भूमिका उनके नस-नस में समा गई थी | रावण का वध करना यह राम का ही कार्य है और सिर्फ़ राम ही यह कार्य कर सकते हैं, मेरा काम है सिर्फ़ उनके कार्य में सम्मिलित होना और जो मिले वह काम करना यह उनकी दृढ भूमिका थी |

साईबाबा की लीला, जिसमें गेहूँ के पीसे हुए आटे से उन्होंने महामारी पर प्रतिबंध लगाया, वह लीला चिकित्सक बुद्धि रखनेवालों के मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि आटे और महामारी का क्या संबंध है|

हेमाडपंत यही मुद्दा प्रस्तुत करते हुए कहते हैं- क्या हो सकता है यह अनुबंध | गेहूँ-बीमारी का क्या संबंध? कितनी भी गहराई तक जाकर विचार करने पर भी इसके पीछे होनेवाले कार्यकारण भाव का पता नहीं चलता | परन्तु बाबा की ऐसी अनेक लीलाएँ हम देखते हैं, फिर चाहे वह कूटे गए भिलावे को आँखों में डालकर भक्त की आँखें ठीक करने की लीला हो या बाबा के द्वारा प्रसाद के रूप में दिये गये आम से भक्त को संतान की प्राप्ति हुई हो, इस तरह की हजारों बातें हैं | यहॉं पर हेमाडपंतजी की एक पंक्ति पर ध्यान देना चाहिए और वह पंक्ति है- ‘औषधि है साईबाबा का वचन’ | बाबा का शब्द ही औषधि यानी इलाज है, फिर चाहे वह भौतिक धरातल पर होनेवाली गेहूँ पीसने की क्रिया ही क्यों न हो !

यह बाबा की ‘लीला’ है, यह कोई जादूगर करता है वह जादू का खेल नहीं है | परमात्मा की लीला यह हमेशा ही मानव कल्याण हेतु होती है, भले ही ऊपरी तौर पर हमें ऐसा लगे या ना लगे | इसीलिए हेमाडपंत कहते हैं – ‘न चल पाये पता इस बात का कि इस लीला में मेरे जगदीश्वर का क्या है हेतु |’
घूमफिरकर हम फिर एक बार अपना ध्यान उसी तथ्य की ओर केन्द्रित करते हैं और वह है- ‘फलाशा का त्याग’ | फलाशा का त्याग यानी क्या? इस प्रश्‍न का उत्तर श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रंथराज देते हैं | वानरसैनिक बनने की प्रक्रिया (प्रोसेस) और फलाशा का त्याग ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं | मनुष्य के मन में फलाशा का त्याग करने की वृत्ति जोर पकड़ने लगती है वहीं से वानरसैनिक बनने की भूमिका दृढ होने लगती है | श्रीराम का १०८% प्रतिशत वानरसैनिक बनना इसका अर्थ है- फलाशा का १०८% प्रतिशत त्याग करने के निर्धार का मन में दृढमूल बन जाना |

बाबा गेहूँ पीसने बैठे हैं यह पता चलते ही जितने लोगों के लिए संभव हो सका उतने सभी लोग देखने आये | उनमें से कुछ मदद करने हेतु, वहीं कुछ सिर्फ़ देखने के लिए आये थे | परमेश्वरी कार्य को पूरा करने के लिए उन्हें किसीकी ज़रूरत नहीं रहती, परन्तु इसमें सम्मिलित होकर मनुष्य अपने प्रारब्ध का भार हलका कर ले, ऐसी उनकी इच्छा अवश्य रहती है | परमेश्‍वरी कार्य करने के लिए वे पूर्ण समर्थ हैं, परन्तु मनुष्य को ऐसा सुअवसर बड़े मुश्किल से मिलता है, जिसे देने वाले भी ‘वे ही’ होते हैं | इसके द्वारा वे मनुष्य का उद्धार करना चाहते हैं, जिस तरह उस नन्हीं सी गिलहरी का उद्धार हुआ, वानरों को भी परमानंद की प्राप्ति हुई और गोप कभी भी न डूबनेवाले गोकुल में अपने प्रिय सखा श्रीकृष्ण के साथ निवास करते रहे, उसी तरह हर एक जीव को यह सुवर्ण अवसर मिले यह परमात्मा की तड़प होती है और इसी लिए वे ईश्वरी कार्य में मनुष्य को सम्मिलित कराने के लिए सगुण साकार रूप में अवतरित होते हैं |

‘तुम और मैं मिलकर करें, तब असंभव ऐसा कुछ भी नहीं रहेगा’ यह उनका वचन ही वे बार बार मनुष्य के लिए सिद्ध करते हैं | इस वचन में रहने वाला ‘मैं’ यानी परमात्मा’ सदैव तत्पर हैं ही, बस ‘तुम’ यानी मनुष्य के पास तत्परता होनी चाहिए |

आज तृतीय विश्‍वयुद्ध की चौखट पर खड़े इस संपूर्ण विश्व में मर्यादाभंग की महामारी फैली हुई है | मर्यादाभंग और प्रज्ञापराध ये दोनों एक दूसरे के पूरक ही हैं | हमने अब तक के अध्ययन में यह देखा और जाना है | मर्यादाभंग और प्रज्ञापराध जहॉं होते हैं, वहॉं रोग का होना तो स्वाभाविक ही है | रोग यह आधिभौतिक, आधिदैविक अथवा आध्यात्मिक किसी भी प्रकार का हो सकता है | उस रोग को दूर करना मनुष्य का काम नहीं है और इसी लिए विश्व के इन ‘धन्वन्तरि’ साईनाथ की शरण जाना ही आवश्यक है | अब ‘मुझे दर्शक की भूमिका करनी है या सैनिक की’ यह बात तो हर एक को स्वयं ही तय करनी है