श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग १६)

babaभारतीय अध्यात्मशास्त्र कभी भी किसी भी मनुष्य को खोखला वैराग्य नहीं सिखाता, बल्कि गृहस्थी में रहकर परमार्थ कैसे करना चाहिए यही सिखाता है। भक्ति करना यानी बाकी के सारे काम-काज छोड़कर व्यर्थ की डिंगें हॉंकते हुए माथा-पच्छी करना यह जो एक दृष्टिकोण है, उसे इस गेहूँ पीसनेवाली कथा के माध्यम से ही पूर्ण रूप में दूर कर दिया गया है। स्वयं परमात्मा साईनाथ काम करते हैं, किसी भी काम को हलका काम न मानते हुए गेहूँ पीसने का काम वे स्वयं करते हैं, तो फिर वे अपने भक्तों को व्यर्थ समय बरबाद कैसे करने देंगे?

साईसच्चरित का आरंभ ही बाबा की गेहूँ पीसने की क्रिया से होता है। इसका क्या मतलब है? तो यह बाबा के कार्य की शुरुआत है।मनुष्यरूप में अवतार लेने पर, जिस कार्य के लिए अवतार धारण किया वह कार्य परमात्मा करते ही हैं और वे अपने कार्य के प्रति १०८% समर्पित होते ही हैं। फिर भले ही कोई उनके साथ या उनके पीछे आये या ना आये। मनुष्य अपने ही काम के प्रति कई बार १०८% समर्पित नहीं होता है। उसे यह भी पता नहीं होता है कि वह स्वयं अपने कार्य में भी कितना ईमानदार है।

दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जब मनुष्य परमेश्वरी कार्य में सम्मिलित होता है, तब भी उसके मन में यह विचार भी आ सकता है कि मैंने यह कार्य किया है तो मुझे भी इसमें से हिस्सा चाहिए यानी कार्य करने का श्रेय मुझे मिलना चाहिए। बिलकुल उसी भावना के साथ वे चारों औरतें भी पीसे गए आटे के चार हिस्से करती हैं। यहॉं पर एक बात हमेशा के लिए मन में अंकित कर लेनी चाहिए कि जिस परमात्मा ने इस कार्य को आरंभ किया है वे ही इस कार्य को करने के लिए पूर्णत: समर्थ हैं और हम केवल निमित्तमात्र हैं।

स्वयं परमात्मा जहॉं पर गेहूँ पीसने जैसे काम करते हैं वहॉं पर वे अपने भक्तों को भक्ति के नाम पर हँसी-मज़ाक, व्यर्थ की बातें करने ही कैसे  देंगे? भक्तों को गृहस्थी एवं परमार्थ ये दोनों ही समान रूप में करना चाहिए और इसीलिए तो गेहूँ पीसने का कार्य, जो भौतिक स्तर पर घरेलु कार्य है, वह साईनाथ ने स्वयं किया। साईनाथ ने जहॉं पर स्वयं चूल्हा जलाकर भोजन पकाया, वहीं उनके आगे मैं यदि कहूँ कि मैं भक्ति करता हूँ फिर मैं गृहस्थी नहीं करूँगा, तो यह कदापि उचित नहीं है| जहॉं पर स्वयं के आचरण से / कृति से परमात्मा ने जो आदर्श प्रस्तुत किया है, वह हम जैसे सामान्य मानवों के लिए नहीं किया है तो और किसके लिए किया है?

यहॉं पर एक और बात को ध्यान में रखना चाहिए और वह है, बाबा का इस क्रिया के पीछे होनेवाला अभिप्राय| हेमाडपंत कहते हैं कि गॉंव में फैल सकने वाली महामारी की बीमारी को दूर करने के लिए बाबा ने स्वयं जॉंते पर गेहूँ पीसकर आटे को गॉंव की सीमा पर डाल दिया। पूरे गॉंव में फैली हुई महामारी की बीमारी को दूर करना तो क्या, उसे अपने वश में करना, उसकी रोकथाम करना भी किसी के वश में नहीं है। इस कार्य के लिए तो संपूर्ण विश्व का जो ‘धन्वन्तरि’ है, उसी की ज़रूरत थी और इस साईनाथ के रूप में अवतरित हुए धन्वन्तरि ने ही इस बीमारी का सिर्फ़ रोकथाम ही नहीं किया, अपि तु उस बीमारी को पूर्णत: नष्ट भी कर दिया। भौतिक स्तर पर रहनेवाली वह शिरडी यहॉं पर सिर्फ़ एक उदाहरण के तौर पर ही है। सिर्फ़ शिरडी ही नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व ही जब-जब भी इस महामारी की बीमारी के शिंकजे में फँस जाता है तब-तब ‘वह’ परमात्मा मनुष्यरूप में अवतारित होता है। कभी ‘राम’ बनकर, कभी ‘कृष्ण’ बनकर, कभी ‘साई’ बनकर, तो कभी ‘नौंवा’ अवतार लेकर।

कोई भी बीमारी प्रज्ञापराध से ही होती है, यह बात हमें आयुर्वेद ने एवं श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रंथराज ने ज़ोर देकर कही है|  प्रज्ञापराध कब होता है? तो वह होता है मर्यादा का उल्लंघन करने पर| यानी मर्यादा का उल्लंघन करने पर रोग होगा यह निश्चित है। फिर वह रोग शारिरिक हो अथवा मानसिक या कोई और| फिर इस प्रकार के रोगों पर उपचार सिर्फ इस विश्व का धन्वन्तरि परमात्मा ही कर सकता है। फिर वह इलाज गेहूँ पीसकर उसके आटे को गॉंव की सीमा पर डालनेवाली क्रिया हो अथवा कोई और हो। क्रिया चाहे कोई भी हो परंतु यह ‘उस’ परमात्मा की क्रिया है यानी उनके स्वयं के द्वारा की गई कृति है, यह बात यदि समझ में आ जाये तो प्रश्न का उत्तर अपने आप ही मिल जाता है।

परमात्मा की ऐसी क्रिया को क्रिया अथवा कृति का नाम न देकर ‘वह परमात्मा की लीला है’ ऐसा संतों ने कहा है। तो ऐसी इस परमात्मा की लीला को सिर्फ देखने को मिलना यानी उसका अवलोकन करने मिलना यह बात हर एक मानव के दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं फलदायी भी है। इसीलिए बाबा की इस लीला को देखते ही हेमाडपंत के मन में ‘साईनाथ का चरित्र लिखना चाहिए’ ऐसी इच्छा उत्पन्न हुई। जिन लोगों ने बाबा की लीला को देखा ऐसे लोगों से उनका संग्रह करके जिन लोगों ने उसे देखा नहीं, उन्हें कम से कम सुनने को मिले, पढ़ने को मिले यही हेमाडपंत का उद्देश्य था और इस चरित्रलेखन क्रिया के बुद्धिदाता साईनाथ ही हैं, यह भी वे सुस्पष्ट रूप में कहते हैं। संक्षेप में देखा जाये तो नवविधा भक्ति में से श्रवण और कीर्तन यह भक्ति का सबसे आसान मार्ग है।

और अधिक महत्त्वपूर्ण है ‘उनके’ कार्य में सहभागी होने का अवसर मिलना। यह तो जीवन को सोना बनाने के लिए मिलनेवाला, परमात्मा की ओर से मिलनेवाला एक सुनहरा अवसर ही है और इसीलिए जब-जब भी ऐसा सुवर्ण अवसर मिलेगा तब तब उस अवसर का पूरा-पूरा लाभ उठाना यह हर एक मनुष्य का आद्यकर्तव्य है|

बाबा गेहूँ पीसने बैठे हैं, यह समाचार सुनते ही शिरडी का हर एक निवासी, जिसे भी जिस प्रकार संभव हो सका वह उस प्रकार इस घटना को देखने के लिए द्वारकामाई में आ पहुँचा। उनमें से वे चार स्त्रियॉं, सचमुच जिन्हें भाग्यवान कहना चाहिए कि जिन्हें गेहूँ पीसने का अवसर प्राप्त हुआ। आरंभ में बाबा उन पर गुस्सा हुए, उनके साथ झगडा भी किया, परंतु उनके प्रेमवश उन्हें गेहूँ  पीसने दिया। उन औरतों ने साईनाथ से मिलनेवाले उस अवसर को यूँ ही जाने नहीं दिया, बल्कि उस अवसर का पूरी तरह फायदा उठाकर अपने स्वयं के जीवन को सार्थक कर लिया| इन सभी घटनाओं में ध्यान देने योग्य बात यह है कि उन औरतों का साईनाथ के प्रति होनेवाला भोला-भाला प्रेम। भक्तों का भगवान के प्रति होनेवाला प्रेम यही इस संपूर्ण विश्व की ऐसी एकमात्र बात है, जिसके आगे भगवान भी ‘हारी विठ्ठल’ बन जाते हैं यानी भक्ति के अधीन हो जाते हैं।

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