श्रीसाईसच्चरित – सद्गुरुवन्दना

Saibaba - Sadguruvandanaश्रीसाईसच्चरित के पिछले लेख में हमने देखा ‘ये साई ही गजानन गणपती’ ‘ये साई ही भगवती सरस्वती’ हैं यह कहकर (इसी प्रकार) (यही मानकर) मंगलाचरण में हर एक रूप के साईनाथ को ही हेमाडपंत वंदन करते हैं। ‘अनन्यता’ यह एक सच्चे भक्त का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण गुणधर्म(विशेषता) का अनुभव हेमाडपंत के पास (प्रति) हम अनुभव करते हैं इस प्रथम अध्याय के आरंभ से ही। मंगलाचरण के इस देवता वंदन पढ़ने पर हम क्या सीखते हैं? हम सीखते हैं पूर्ण एकनिष्ठता, पूर्ण अनन्यता। सिवाय साई के सीवा हेमाडपंत को अन्य कुछ सू़झता ही नहीं। हमारे जीवन में भी भक्ति का यह सबसे विशेष गुणधर्म प्रवाहित होना ही चाहिए। किसी भी देवता का अनादर न करते हुए उलटे उस देवता के रूप में मेरे साईनाथ ही विराजमान हो गये हैं इस दृढ़ भावना के साथ इस रूप को वंदन करना हमें भी अपने आचरण में लाना चाहिए। मैं अपने सद्गुरु को मानता हूँ इसलिए अन्य सात्विक देवरूपों का अनादर करूँगा अथवा उनकी भक्ति करनेवालों का उपहास करूँगा तो वह मेरे सद्गुरु को बिलकुल भी अच्छा नहीं लगेगा। अन्य क्षुद्र देवताओंका अथवा पोंगापंडितों का तो सवाल ही नहीं उठता। इस प्रकार के बेकार पाखंडी तामसी वृत्तियों(बातोंका) के प्रति कौड़ी भर का भी महत्त्व नहीं देना चाहिए, पर मैं साईनाथ का भक्त हूँ इसलिए मैं गणपती, श्रीराम, कृष्ण आदि देवता अथवा स्वामी समर्थ के समान श्रेष्ठ अवतार इनका अनादर करना सर्वप्रथम मेरे साई को ही अच्छा नहीं लगेगा।

‘दत्तासमान पूज्य दैवत। होते सहजमार्ग, उन्हें अनदेखा करना।’   – श्रीसाईसच्चरित

नाना चांदोरकर को बाबा ने जो इस सच्चाई के बारे में बतलाया था इस बात का ध्यान हमें सदैव रखना चाहिए।

हमें गणपती के, श्रीराम के, श्रीकृष्ण के मंदिर में जानेप्र उन देवताओं का अनादर न करते हुए उलटे इन रूपों में मेरा सद्गुरु ही विराजित है इसी भाव के साथ सद्गुरु के उस को मनोभावे वंदन करना चाहिए, लेकिन इस के साथ ही यदि कल कोई कहता है कि मेरे शरीरे में बाबा की हवा आती है। (संचार करते है) तो ऐसे थोथे बगलों को उनकी औकात वहीं की वहीं दिखा देनी चाहिए। इस प्रकार के विकृत कारनामों को रोकना जरूरी है।

भक्ति मार्ग में घुसे हुए इन झूठे विकारों को ख्तम कर (दूर कर) भक्तिपथ को प्रकाशित करने के लिए ही साई ने अवतार धारण किया है। इसीलिए जिस प्रकार गलत बातों को रोकना ज़रूरी है उसी प्रकार उचित बातों का आरंभ होना भी अति महत्त्वपूर्ण है। मंगलाचरण में हेमाडपंतने भक्तिमार्ग की नींव को सत्य प्रकाशित किया है।

‘एकसत् विप्र बहुधा वदन्ति।’

इस सत्य को हेमाडपंतजी ने सर्वसामान्य लोगं की सहज ही आकलन कर आचरण में आ सके इस स्वरूप में स्वयं कृतित्त्व में लाकर इन पंक्तियों द्वारा हमारे सामने प्रस्तुत किया है। इकमेव वे सद्गुरुतत्त्व ही इस गणेश, सरस्वती, ब्रह्मा, विष्णु, शिवजी आदि रूपों से सुसज्जित हैं और इसीलिए मैं इस हर एक देवताको अपने सद्गुरु का रूप मानकर ही आनंदपूर्वक प्रणाम कर रहा हूँ।

हमें भी इसी भाव के साथ अपना भक्ति पथ चलाना चाहिए। हरि एवं हर एक ही हैं, नाम भिन्न-भिन्न हैं फिर भी ‘ये’ एकमेव ही सभी रूपों में सुसज्जित हैं यह बात बड़े-बड़े उपदेशों के डोस न पिलाकर मंगलाचरण के वंदन की पंक्तियों में हेमाडपंतजी ने सहज़ ही हमारे सामने स्वयं के आचरण द्वारा प्रस्तुत किया है। इसीलिए हमें भी हेमाडपंतजी द्वारादिखाये गए मार्ग का स्वीकर करना चाहिए। श्रीमद्पुरुषार्थ में भी अनिरुद्धजी ने ‘सत्यप्रवेश’ इस प्रथम खंड में परमात्मा के जिन सत्ताईस नामों का उल्लेख किया है, इसका भाव भी यही है(इसका रहस्य भी इसी भाव में निहित है।) गौतम हो या येशु या फिर राम इन में नाम एवं रूप भले ही भिन्न होंगे, परन्तु ये सभी मेरे परमात्मा के ही नाम एवं रूप हैं।

ऐसे यह परमात्मा स्वरूप श्रीसद्गुरु साईनाथ के वंदन का मधुर सुग्रास अब हेमाडपंत ले रहे हैं। श्रीसाईसच्चरित की सद्गुरुवंदन के पंक्ति-पंक्तियों में से हेमाडपंत के साईनाथ के प्रति होनेवाले उत्कट प्रेम के वर्षाव का अनुभव प्राप्त करने को मिलता है।

‘ॐ नमो सद्गुरुराया, चराचराच्या विसाविया।’ 

इस पद से आरंभ करके हेमाडपंत की प्रतिभा कवित्त्व की ऊँची उड़ान भरते हुए उसमें चार चॉंद लगा देती है। हेमाडपंत की ये पंक्तियॉं मूलत: अत्यन्त (प्रासादिक) प्रभावकारी हैं। हेमाडपंत की शैली एकनाथ की शैली से समरस होती हुई दिखाई देती हैं। ग्रंथ के हरएक अध्याय के आरंभ में वेदान निरुपण विशेषत: प्रस्थानपदी(वेद वेदान्त, भगवद्गीता) के सिद्धांतो का सहज सरल स्पष्टिकरण दिखाई देता है। साथ ही बारबार आध्याय के आरंभ में, बीच के कथा निरुपण में एवं अंतिमत: (अन्तत:) सद्गुरु श्रीसाईनाथ अगिमा अत्यन्त प्रभावी शद्बों में वे विशद करते हैं। कथा, उपकथाओं की तथा सहायक कथाओं का प्रस्तुतीकरण एवं अत्यन्त रसीला हृदयस्पर्शी वर्णन श्रोताओं को तृप्त कर देता है। सचमुच मंगलाचरण में हेमाडपंत की प्रार्थना नुसार माता सरस्वतीने उनके जिव्हा को हंस बना दिया है और वे उस पर (सवार) विद्यमान हो गई हैं। केवल विद्वत्ता, पांड़ित्य अथवा बुद्धि के बल पर ऐसा कवित्व आ ही नहीं सकता है। सद्गुरु साईनाथ के शद्ब, बाबा के मुख से निकलनेवाले आशीर्वचन सद्गुरु साईनाथ का कृपा वरदहस्त ही इस कवित्व को निखारलाने में सहायक सिद्ध हुआ है। सद्गुरुकृपा बिना इस प्रकार का सर्वांग सुंदर ग्रंथ का निर्माण होना असंभव है। इसीलिए यह सारा सामर्थ्य साईनाथ का ही है। हेमाडपंत ने सिर्फ भगवान एवं भक्त के बिच की ‘तेली की दीवार’ गिरादी और फिर ‘तुम और मैं मिलकर असंभव ऐसा कुछ भी नहीं इस जग में’ ऐसी सद्गुरु की गवाही (वादा) ही सत्यरूप में प्रकट हुआ है का हम अनुभव करते हैं।

गुरुनाम, गुरुसहवास, गुरुकृपा, गुरुचरण पायस, गुरुमंत्र तथा गुरुगृहवास इन सबके महत्प्रयास से यानी हेमाडपंत ने सद्गुरु तत्त्व के नियमों का बारीकी से पालन कर संपादित किए गए पुरुषार्थ कासाथ मिलने पर ही उनकी भक्ति उत्कर्ष के शिखर तक पहुँच गई। नीतिमर्यादा का सदैव ध्यान रखनेवाला भक्त ही उत्तम भक्ति कर सकता है। उसी को सद्गुरु अनुग्रहित करते हैं एवं ‘मैं तुम्हारा साथ कभी भी नहीं छोडूँगा’ ये सद्गुरु के वचन इस प्रकार के भक्तों को ही सद्गुरु की ओर से दिए जाते हैं। सद्गुरुवन्दना के पंक्तियों के समाप्ति पश्चात् बाबाके कृपा का वर्णन करते समय हेमाडपंत का अष्टभाव जागृत(हुआ) हो चुका इन पंक्तियों में से दृष्टिगोचर होता है। साई ने ही कृपा करके मुझे जबसे अनुग्रहित किया है तब से मुझमें साईमयता अपनेआप आ गई है। इस में मेरी कोई बढ़ाई नहीं(मेरा कोई बडप्पन) है सब कुछ साई ने ही किया है। सद्गुरु गौरववाली पंक्तियों में सबकुछ सुंदर है परन्तु उस में भी कासवीं के बच्चे जिस तरह कासवी की ओर देखते हैं, वैसी भक्त की भी स्थिति होनी चाहिए, इसका वर्णन करनेवाली पंक्ति बहुत ही सुंदर है।

‘पाहता बाबांचे नयनांकडे । आपाअपना विसर पडे।
आंतुनी येती जै प्रेमाचे उभडे। वृत्ति बूडे रसरंगी॥

(अर्थ: देखते ही बाबा के नयनों की ओर । अपनेआप को ही भूल जायें। अंदर से उठे जो प्रेम के फव्वारे। वृत्ति डूब जाये रसरंग में।)

इस रसराज साईनाथ के सावले रंग में हेमाडपंत का अंतरंग इसी प्रकार भींग चुका है। मुख्य कथा का आरंभ करने से पूर्व हेमाडपंत भक्ति की व्याख्या विभिन्न प्रकार के ऋषियों के मन्तव्यानुसार सुस्पष्ट करने के पश्चात ‘शुद्ध स्वधर्म’ यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त प्रस्थापित किया है। इसके बारे में हम अगले लेख में अध्ययन करेंगे।

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