आक्रमणों का इतिहास

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समय की धारा में भारत को नयी नयी चुनौतियों का सामना करना पडा। जिन राष्ट्रों का जीवन प्रदीर्घ होता है, उन राष्ट्रों के सामने ऐसी चुनौतियाँ समय-समय पर आती ही रहती हैं। इतिहास इसी तरह आगे ​चलता रहता है। मौर्यवंश के बाद शुंग वंश ने इस देश पर शासन किया। उसके बाद गुप्तवंश का राज्य प्रस्थापित हो गया। इस समय को भारतवर्ष का स्वर्ण-युग माना जाता है। लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है कि इस समय में सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था या विदेशी आक्रमण हुए ही नहीं। उलटे इसी समय में विदेशी आक्रमणकारियों ने देश को अपने कब्जे में कर लेने के लिये प्रयत्नों की पराकाष्ठा की। हूण लोगों की टोलियों ने देश पर कई बार आक्रमण किये। क्या आप जानते हैं कि गुप्तवंश के अंतिम सम्राट ‘स्कंद गुप्त’ का यह नाम कैसे पड़ा? यह राजा विदेशी आक्रमकों से लड़ता ही रहा। उसे आराम मिलता ही नहीं था। अत: जब भी समय मिलता था, तब वह अपने ही कंधे पर गर्दन रखकर सो जाया करता था। इसीलिए वह स्कंदगुप्त के नाम से पहचाना जाने लगा।

देश के विभिन्न भागों में अलग-अलग राजसत्ताएँ थीं और उन्होंनें भी अपने अपने राज्य में आदर्श जीवनपद्धति प्रस्थापित की। दक्षिण भारत में भी कई सामर्थ्यशाली राजा हुए। इनमें से चोल, चालुक्य, पांडेय राजाओं ने, आज के आग्नेय एशियाई देशों तक भारतीय संस्कृति का प्रसार किया था। यहॉं की प्रजा को सुशासन दिया था। आज हम जिन्हें इंडोनेशिया, मलेशिया, कंबोडिया, लाओस, व्हिएतनाम, थायलँड के नाम से जानते हैं, उन देशों में आज भी हमारी संस्कृती का अमिट प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखायी देता हैं। इंडोनेशिया में आज भी हिन्दू जीवनपद्धति हमें देखने को मिलती है। बाली में आज भी रामायण और महाभारत की कथाएँ रंगमंच पर प्रस्तुत की जाती हैं। दुनिया भर से यहाँ पर आनेवाले पर्यटक वह देखकर अचंभित हो जाते हैं।

मलेशिया के राजा का राज्य-अभिषेक वैदिक पद्धति से होता है। यहाँ पर निवास करनेवाले मलेय हिंदुओं को सरकार की ओर से विशेष दर्जा दिया जाता है। भगवान विष्णु का, दुनिया का सबसे बड़ा मंदिर कंबोडिया (कंबुज) में हैं। व्हिएतनाम यह कंबोडिया का पड़ोसी देश है। अमरीका और व्हिएतनाम के बीच जब युद्ध चल रहा था, उस वक़्त अपना संरक्षण करने के लिये व्हिएतनामी सैनिक कंबोडिया के इसी विष्णुमंदिर परिसर में पनाह लेते थे, क्योंकि यहाँ उन पर आक्रमण नहीं होता था। इन आग्नेय एशियाई देशों में भारतीय संस्कृति इस प्रकार घुलमिल गयी हैं कि वह देखकर हमारी आँखें खुली कि खुली रह जाती हैं।

 कंबोडिया स्थित विष्णू मंदिर
कंबोडिया स्थित विष्णू मंदिर

मैं तीन-चार साल पहले थायलंड गया था। बँकॉक में घूमते समय मुझे कई दुकानों में देवीमाता एवं गणेशजी की मूर्तियाँ दिखायी दी थीं। एक दुकान में तो हिन्दी भजन चल रहा था। मैंने आश्‍चर्य से दुकानदार से पूछा, ‘क्या यह भाषा तुम्हारी समझ में आ रही है?’ उसने उत्तर दिया, ‘भाषा समझ में नहीं आती, परन्तु भावना समझ में आती है।’ इंडोनेशिया के, विशेषत: बाली के लोग भारतीयों से बड़े प्रेम से मिलते हैं। ‘हमें भूलना नहीं, हम तुम्हारे ही हैं, भारतीय हमारे बड़े भाई है।’ यह कहने में वे नहीं चूकते।

इंडोनेशिया व मलेशिया की भाषा एक जैसी ही है। उसे ‘भाषा इंडोनेशिया’ और ‘भाषा मलेशिया’ कहा जाता है। ‘भाषा’ इस शब्द का भाषांतर नहीं किया गया है, उसे ज्यों का त्यों इस्तेमाल किया जाता है। इस भाषा में अनेकों संस्कृत शब्द हैं। स्वागत करने के लिये इंडोनेशिया में ‘ॐ स्वस्ति अस्तु’ कहा जाता है। बात पूरी हो जाने पर ‘ॐ शांति ॐ’ से समापन किया जाता है। इंडोनेशिया की एअरलाईन्स का नाम ‘गरुडा एअरवेज़’ है। राजधानी बाली के विमानतल के बाहर निकलते ही, भगवान श्रीकृष्ण की अर्जुन को गीताज्ञान देते हुए की बड़ी होर्डिंग लगायी हुई मैंने देखी है। इंडोनेशिया की संस्कृति में चंपा के फूलों का बहुत ही महत्त्व है, ये फूल बहुत ही शुभ माने जाते हैं।

इंडोनेशिया में ‘डॉ. ओकापुन्यात्मजा’ ये हिन्दुओं के बड़े नेता हैं। उनके व्याख्यानों के प्रभाव के फलस्वरूप कई लोग पुन: अपने धर्म की ओर मुड़ गये। मलेशिया के आख़िरी राजा का नाम ‘परमेश्वरन्’ था। जापान और चीन के संत-महंतों से मेरी मुलाकात हुई है। ‘भारतीयों ने दो हजार वर्ष पहले ही हमें जीत लिया है, राजकीय दृष्टि से नहीं, बल्कि आध्यात्मिक दृष्टि से’, ऐसा ये लोग बड़े प्रेम से कहते हैं। दुनिया के इस भूभाग पर हिन्दू संस्कृति के हुए प्रसार को हमें ध्यान में रखना चाहिये। समय के विभिन्न चरणों पर चुनौतियों का सामना करना पडने के बावजूद, हमारी संस्कृति का उत्कर्ष एवं प्रसार कितना व्यापक है, इसका अंदाज़ा हम इस बात से लगा सकते हैं। ख़ैर! दिल्ली के अंतिम हिन्दु शासक थे, पृथ्वीराज चौहान।

पृथ्वीराज चौहान
पृथ्वीराज चौहान

पृथ्वीराज चौहान धर्मपरायण महायोद्धा थे। उन्होंने उनपर आक्रमण करनेवाले मोहम्मद घोरी को कई बार परास्त किया, परन्तु हर बार शरणागत होकर जीवनदान मांगनेवाले घोरी को उन्होंने अभय-दान दिया। फिर भी घोरी बार-बार आक्रमण करता ही रहा। एक आक्रमण के दौरान दगाबाज़ी कर पृथ्वीराज चौहान को हराने में घोरी सफल हो गया। फिर भी घोरी को पृथ्वीराज ने शब्दभेदी बाण से मार गिराया। इसके बाद भारत पर विदेशी, विधर्मी आक्रमकों के आक्रमण होते ही रहे। उन लोगों ने हिन्दु राजाओं के द्वारा निर्माण की गयीं वास्तुओं की पहचान मिटाकर उनके साथ अपने नाम जोड़ दिये। कुतुबमिनार का मूल नाम ‘विशाल स्तंभ’ था। पृथ्वीराज चौहान के नाना यानी उनकी माता के पिताजी महाराज विशालदेव ने इस वास्तु का निर्माण किया था। प्रत्येक राजा अपने नाम से एक विशेष वास्तु बनवाता था। इसके पीछे यह धारणा रहती थी कि मेरी मृत्यु के बाद भी मेरा नाम क़ायम रहेगा। महाराजा विशाल देव द्वारा बनवायी गयी इस वास्तु का नाम ‘विशालस्तंभ’ रखा गया था। परन्तु दुर्भाग्य की बात यह है कि अब इसे ‘कुतुबमिनार’ के नाम के जाना जा रहा है। इस वास्तु पर गढ़े गये संस्कृत के श्‍लोक हमें आज भी देखने को मिलते हैं।

पृथ्वीराज चौहान जैसे पराक्रमी वीरपुरुष का पराभव घोरी जैसा आक्रमणकारी कर सका, इसका एक कारण था – उस समय के अन्य देशी शासकों ने की हुई घोरी की सहायता। व्यक्तिगत स्वार्थ, महत्त्वाकांक्षा हावी हुए कुछ राजाओं ने विभिन्न समयों में स्वकियों की अपेक्षा विदेशियों का सहारा लिया, उनकी सहायता की और अपने राष्ट्र के साथ गद्दारी की । भारत की भूमि पर विधर्मी, विदेशी आक्रमकों के आपस में सत्ता के लिए युद्ध हुए। उनके इस सत्तासंघर्ष में रक्तरंजित हुई हमारी भारतभूमि। आक्रमणकारियों के इस युद्ध में किसी ने भी धर्म को देख शस्त्रप्रहार नहीं किया। उनकी नजर में सभी भारतीय एक ही जैसे थे। क़त्लें करते समय कोई भी धर्म का अथवा अन्य कोई विचार नहीं करता था।

तैमूरलंग ने दिल्ली पर आक्रमण किया और वह केवल छ: दिन दिल्ली में रहा। इन छ: दिनों में उसने दो लाख लोगों का क़त्ल किया। वह छ: दिनों से ज़्यादा दिल्ली में नहीं रह सका। लाशों के ढ़ेर से इतनी दुर्गंध आ रही थी कि उसे सह पाना तैमूर के लिये क़ठिन हो गया था। जाते समय वह यहाँ की दो लाख महिलाओं को गुलाम बनाकर अपने साथ ले गया। विदेशी आक्रमणकारियों की जीत होने पर कितने खतरनाक परिणाम देश को सहने पड़ते हैं, इसका यह भयंकर उदाहरण है। विदेशी, विधर्मी आक्रमणकारियों के इस तरह देश पर आक्रमण होते रहे। समय-समय पर उनका प्रतिकार भी इस देश ने किया। परन्तु भारतीय संघटित नहीं थे, जिसके कारण, उच्चकोटि का शौर्य दिखाने के बावजूद, उच्चकोटि के पराक्रम के बावजूद भी अपनी भूमि और समाज को पूरी तरह बचा पाना उनके लिए संभव नहीं हो सका। (क्रमश:)

                                                                                                                                                                                                             – रमेशभाई मेहता

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