श्वसनसंस्था भाग – ४८

आज तक हमने हमारी श्वसनसंस्था और उससे संबंधित कुछ बातों की जानकारी प्राप्त की। अब हम श्वसनसंस्था पर आधारित लेखमाला के अंतिम पड़ाव पर आ पहुँचे हैं। आज के लेख में हम ‘स्कूबा डायविंग’ (SCUBA-Diving), पनडुब्बी के अंदर के संसार के बारे में संक्षिप्त जानकारी प्राप्त करेंगे।

Scuba Diving :

    स्कूबा यानी Self contained underwater breathing apparatus। स्कूबा यह एक शॉर्ट फॉर्म है। सन्‌ १९४० तक गोताखोर चेहरे पर मास्क लगाकर पानी में उतरते थे। इस मास्क से एक लम्बी नली जुड़ी हुई होती थी। यह नली पानी से बाहर यंत्र से जोड़ी जाती थी और इसी यंत्र से गोताखोरों को हवा की आपूर्ति की जाती थी। सन्‌ १९४३ में Jacques Cousteau नामक व्यक्ति ने SCUBA मशीन का आविष्कार किया। स्कूबा डायविंग, यह एक प्रकार का खेल है। साथ ही अन्य कुछ व्यापारिक कार्यों के लिए भी इसका उपयोग किया जाता है। इसके लिए लगभग ९९ प्रतिशत जिस यंत्र का उपयोग करते हैं उसे Open Circuit Defined पद्धति कहा जाता है। इस पद्धति में उपयोग किये जानेवाले यंत्र के निम्नलिखित भाग होते हैं –

१) उच्च दबाव युक्त हवा अथवा वायु के मिश्रण से भरे टँक (एक या अधिक)

२) प्रथम चरण पर ‘Reducing’ वॉल्व जो टँक की उच्च दबाव युक्त हवा का दबाव कम करता है।

३) श्वासोच्छवास के लिए Demand Valve। इसमें पानी के दबाव से कम दबाव से हवा अंदर ली जाती है और पानी के दबाव से थोडे अधिक दबाव के साथ हवा बाहर छोड़ी जाती है।

४) चेहरे का मास्क और नली जो Dead Space की पूर्ति करती है।

 

    इस यंत्र का पहला वॉल्व हवा का दबाव कम करता है। दूसरा वॉल्व श्वासोच्छवास नियंत्रित करता है। स्कूबा डायवर जब श्वास (साँस) अंदर लेता है तो यह वॉल्व खुल जाता है और टँक की हवा फेफड़ों में चली जाती है। उच्छवास के दौरान बाहर निकाली गयी हवा, टँक में वापस ना जाकर (समुद्र के पानी में घुल जाती है)। फलस्वरूप प्रत्येक श्वास (साँस) के साथ उचित मात्रा में ही हवा फेफड़ों में जाती है। इस पद्धति का उपयोग करते समय पानी के नीचे ज्यादा देर तक नहीं रहा जा सकता।

    अब थोड़ा पनडुब्बी (SUB-Marine) के संसार(दुनिया) में झाँकते हैं।

पनडुब्बी से यात्रा करते समय शरीर के स्वास्थ के लिए हानिकारक दो बातों का सामना करना पड़ता है। यदि पनडुब्बी में अणुऊर्जा का उपयोग किया गया तो अणुऊर्जा के उत्सर्जन की तकलीफ अंदर के यात्रियों को होती है। दूसरा कारण विषारी वायु होती है। यदि यात्री अथवा खलाशी सिगारेट पी रहें होंगे तो उसके धुए की कार्बन मोनॉक्साइड वायु तकलीफदेह होती है।

    पनडुब्बी से बाहर निकलकर पानी के पृष्ठभाग पर आते समय भी दिक्कतें आती हैं। साधारणत: पानी के नीचे ३०० फुट गहराई तक पनडुब्बी से बाहर निकलकर पानी की सतह पर आने में कोई भी तकलीफ़ नहीं होती। किसी भी यंत्र की सहायता भी नहीं लेनी पड़ती। परंतु इससे ज्यादा गहरे पानी से बाहर आते समय हवा का पुन: उपयोग करनेवाले यंत्र की सहायता लेनी पड़ती है। गहरे पानी से बाहर निकलते समय रक्त में हवा के बुलबुले तैयार हो जाते हैं, जो खतरनाक साबित हो सकते हैं।

    इस विषय का समापन करते समय अंत में एक बात देखते हैं। प्राणवायु की फ्री रॅडिकल्स शरीर की पेशियों के लिए खतरनाक होती है, यह हमने पहले देखा है। उनके ऑक्सिडायझिंग गुणधर्म के कारण ऐसा होता है। उनके इसी गुणधर्म का उपयोग कुछ बीमारियों की दवा के रूप में किया जाता है। इस उपचार पद्धति को हैपरबेटिक ऑक्सिजन थेरपी कहा जाता है।

    इस थेरपी में रोगी को २ से ३ ऍटमॉसफेरिक उच्च दबाव वाली प्राणवायु दी जाती है।

    गॅस, गँगरिन जैसी अत्यंत घातक बीमारियों में इसका अच्छा उपयोग होता है। गॅस गँगरीन के जीवाणु बिना प्राणवायु के जीवित रह सकते हैं। उच्च दबाव वाली प्राणवायु की आपूर्ति करने पर इन जीवाणुओं की वृद्धि पूरी तरह रुक जाती है। जिससे बीमारी की रोकथाम हो जाती है।

    डिकॉम्प्रेशन सिकनेस, वायु के बुलबुलों के कारण रक्तवाहनियों में होनेवाले एम्बॉलिझम, कार्बन मोनॉक्साइड की विषबाधा, मायोकार्डिअल इन्फार्कशन्‌ इ. विविध बीमारियों में इस उपचार पद्धति का उपयोग होता है।

    आज हम श्वसनसंस्था पर आधारित लेखमाला का समापन कर रहे हैं। इसके बाद की लेखमाला में हम हमारे मूत्रपिंडों  (गुर्दों) की रचना और उनके कार्यों की जानकारी प्राप्त करेंगे।

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