श्वसनसंस्था भाग – ३७

अब तक हमने देखा कि हमारी श्वसन का नियंत्रण मस्तिष्क में स्थित श्वसनकेन्द्र कैसे करता है, इस कार्य में अन्य कौन सी चीज़े सहायता करती हैं, यह भी हमने जान लिया। मस्तिष्क में श्वसन केन्द्र के अलावा हमारे शरीर के अन्य अंगों में ऐसी कईं जगहें हैं जो अप्रत्यक्ष रूप से श्वसन के नियंत्रण में उनकी भूमिका निभाती हैं। शरीर की इन जगहों को ‘केमोरिसेप्टर्स’ कहते हैं। ये केमोरिसेप्टर्स रक्त में प्राणवायु के बदलाव के प्रति संवेदनशील होती हैं। कर्बद्विप्रणिलवायु और हायड्रोजन में होनेवाला बदलाव इन्हें कार्यरत नहीं करता।

रक्त में प्राणवायु की मात्रा में होनेवाले बदलावों के संदेश केमोरेसेप्टर्स से मस्तिष्क के श्वसन केन्द्र तक पहुँचायें जाते हैं। वहाँ से श्वसन में उचित बदलाव लाये जाते हैं।

केमोरेसेप्टर्स शरीर की धमनियों के संपर्क में होते हैं। मुख्य धमनी के रिसेप्टर्स को एओर्टिड बॉडीज कहते हैं। मस्तिष्क को रक्त की आपूर्ति करनेवाली कॅरोटिड धमनी अपनी गर्दन में दो भागों में बँट जाती हैं। इस विभाजन की जगह पर रहनेवाले रिसेप्टर्स को कॅरोटिड बॉड़िज्‌ कहते हैं। ये बॉड़ीज्‌ अत्यंत सूक्ष्म होती हैं और इनमें से निकलनेवाले संदेश वेगस और ग्लासोफॅरिंजिअल चेतारज्जू से मस्तिष्क की ओर जाते हैं।

इन रिसेप्टर्स को होनेवाली रक्त की आपूर्ति महत्त्वपूर्ण होती हैं। इन बॉड़ीज्‌ के वजन की बीस गुनी रक्त की आपूर्ति प्रति मिनट इन बॉड़ीज्‌ को होती हैं। फलस्वरूप यहाँ के रक्त में प्राणवायु की कमी नहीं होती। इसीलिए इन बॉड़ीज्‌ के आसपास की रक्त आपूर्ति हमेशा आरटिरिअल रक्त की ही होती हैं और PO२ हमेशा ९५ से ९७ mm Hg होता है। वेनस रक्त कभी इन बॉड़ीज्‌ के आसपास भी नहीं आता।

रक्त में प्राणवायु की मात्रा (PO२) कम होते ही ये केमोरेसेप्टर्स कार्यरत हो जाते हैं। रक्त में PO२ जैसे जैसे कम होती हैं वैसे-वैसे इन रिसेप्टर्ससे श्वसन केन्द्र की ओर जानेवाले संदेशों की गति एवं मात्रा बढ़ जाती हैं। जब PO२ ६० से ३० mm Hg के बीच होती हैं तो यह गति फौरन बढ़ जाती हैं।

रक्त की हॅड्रोजन और कर्बद्विप्रणिल वायु की मात्रा में वृद्धि भी इन रिसेप्टर्स को कार्यरत करती हैं। श्वसन केन्द्र को इसके संदेश जाते हैं और श्वसन के कार्य बढ़ जाते हैं। परन्तु कर्बद्विप्रणिल वायु की मात्रा में वृद्धि सीधे श्वसन केन्द्र पर कार्य करती हैं तो वो परिणाम केमोरेसेप्टर्स के माध्यम से होनेवाले परिणामों की तुलना में सात गुना ज्यादा होता है। परन्तु केमोरेसेप्टर्स के माध्यम से जानेवाले संदेश, सीधे जानेवाले संदेशों की अपेक्षा पाँच गुनी तेज़ गति से जाते हैं।

यदि रक्त की PO२ की मात्रा कम हो जाये (प्राणवायु की मात्रा कम होना) परन्तु हॅड्रोजन और कर्बद्विप्रणिलवायु की मात्रा में कोई भी बदलाव ना हो तो क्या होता है? यदि रक्त में प्राणवायु का स्तर नॉर्मल लेव्हल पर हो और PO२ १०० mg Hg के आसपास हो तो श्वसन में कुछ भी बदलाव नहीं होता। रक्त में PO२ ६० mm Hg तक कम हो जाने पर श्वसन की गति दो गुनी तक बढ़ जाती है। यदि PO२ की मात्रा और भी कम हो जाये तो श्वसन की गति पाँच गुना तक बढ़ सकती हैं।

यदि रक्त में PO२ की मात्रा कुछ ही घंटों में कम हो जाये तो उसे वैद्यकीय भाषा में ऍक्युट फेज कहते हैं। इस परिस्थिति में श्वसन का वेग बढ़ जाता है और व्यक्ति शीघ्र ही हाँफने लगता हैं, जल्दी थक जाता है। यदि रक्त में PO२ की मात्र धीरे-धीरे कई दिनों तक कम होती जाये तो श्वसन की गति में उसका कुछ ज्यादा असर नहीं पड़ता। इसको acclimatization कहते हैं। (गिर्यारोहण) के समय acclimatization का काफी उपयोग होता है।

जब पर्वतारोही ऊँचे पर्वतों पर चढ़ते हैं तो उस ऊँचाई पर हवा हलकी होती जाती है। उस हवा में प्राणवायु की मात्रा कम होती जाती है। इस परिस्थिति में यदि हजार, दो हजार फीट की चढ़ाई कुछ घंटों में ही की जाये तो पर्वतारोहियों को हफन आ जाती है। इसके बजाय यदि उतनी ही ऊँचाई एक-दो दिनों में तय की जाये तो उसका कुछ ज्यादा कष्ट नहीं होता। यही acclimatization है।

पर्वतारोही जैसे-जैसे धीरे-धीरे चढ़ाई शुरु रखते हैं वैसे-वैसे श्वसन कार्यों / केन्द्रों में कुछ बदलाव होते रहते हैं। पर्वतारोही जैसे-जैसे ऊँचाई पर जाते हैं वैसे-वैसे श्वसन केन्द्रों की हॅड्रोजन और कर्बद्विप्रणिलवायु के स्तर में होनेवाले बदलावों की संवेदनशीलता कम होती जाती हैं। नॉर्मल परिस्थिती में PO२ कम होन जाने पर भी PCO२, हॅड्रोजन श्वसन केन्द्रों पर कार्य करके श्वसन के वेग को ज्यादा नहीं बढ़ने देते। ऐसी परिस्थिती में श्वसन की मात्रा ज्यादा से ज्यादा ७० प्रतिशत तक बढ़ती है। परन्तु जब हॅड्रोजन और कर्बद्विप्रणिल वायु का श्वसन केन्द्रों पर असर कम हो जाता है तब PO२ के कम हो जाने से श्वसन की मात्रा ४०० से ५०० प्रतिशत बढ़ जाती हैं। इसको ही ‘Acclimatized’ कहते हैं। इस प्रकार Acclimatized हो गया पर्वतारोहक प्राणवायू की आपूर्ति के बिना ऊँचाई के शिखरों पर भी चढ़ता है। इसीलिए २९००० फ़ूट ऊँचे एव्हरेस्ट शिखर पर चढ़ना भी बिना प्राणवायु की आपूर्ति के, संभव होता है।

आज हमने देखा कि ऊँचाई पर पर्वतारोहण में क्या होता है। कल हम देखेंगे, व्यायाम करते समय श्वसन का नियंत्रण कैसे होता है।(क्रमश:)

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