केशवगाथा

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ – भाग ८

pg12_keshavgathaसमय के विभिन्न कालखंडों में हमारे देश में महापुरुषों का जन्म हुआ। हमारी यह मातृभूमि नररत्नों की खान है। ऐसे नररत्नों का स्मरण यह प्रेरणा का अखंड़ स्रोत साबित होता है। उनके जीवनचरित्र का अध्ययन सदैव हमारा मार्गदर्शन करता रहता है। आज हम ऐसे ही एक युगप्रवर्तक महापुरुष का स्मरण करेंगें। गुढ़ी-पाड़वा के शुभ दिन, १ अप्रैल १८८९ को बळिरामपंत हेडगेवार और रेवतीबाई को उनकी पाँचवी संतान प्राप्त हुई। प्रभु रामचंद्र जिस दिन अयोध्या वापस लौटे थे और शालिवाहन ने शक आक्रमणकारियों को मार-भगाया था, उसी शुभ दिन पर जन्मे इस बच्चे के हाथों बहुत ही महान कार्य होनेवाला था। इस बच्चे का नाम ‘केशव’ रखा गया। हेडगेवार परिवार लगभग डेढ़सौ-पौने दो सौ वर्ष पूर्व, आंध्रप्रदेश से आकर नागपूर में बस गया था।

हेडगेवार परिवार बहुत ही धार्मिक एवं सदाचारसंपन्न परिवार था। इस घर में नित्य-नियम से पूजन-अर्चन, स्तोत्रपठन, भजन किये जाते थे। इस प्रकार के धार्मिक संस्कार बालक ‘केशव’ पर होते रहे। उनके बड़े भाई महादेव, मँझले भाई सीताराम और तीनों बहनें केशव से काफी प्यार करती थीं। थोड़ा बड़े होने पर केशव ने रामरक्षा पढ़कर सुनायी थी। इसे सुनकर सारा परिवार अचंभित हो गया था। क्योंकि किसी ने भी केशव को रामरक्षा नहीं सिखायी थी। अत एव पिताजी ने कौतुकवश अपने लड़के से पूछा, ‘तुमने रामरक्षा कहाँ सीखी?’ ‘आप प्रतिदिन रामरक्षा का पठन करते हो, उसे ही सुनकर मैंने सीख ली।’ अपने बच्चे की मज़बूत स्मरणशक्ति देखकर बळिरामपंत काफ़ी खुश हुए।

रेवतीबाई ने केशव को कुछ भजन सिखाये थे। उनके चाचा आबा हेडगेवार केशव को हमेशा शिवाजी महाराज की जीवनगाथा सुनाया करते थे और केशव उन्हें बड़े ध्यान से सुना करते थे। इन सब बातों का विलक्षण प्रभाव केशव पर पड़ा और इसीलिये उस समय जब नागपूर के ‘भोसले’ राजघराने की शोभायात्रा निकलती थी, तब उसमें लहराते केसरिया ध्वज को देखकर केशव का मन गर्व से भर जाया करता था। हमारे देश के राजा अब केवल नाममात्र रह चुके हैं, इस देश पर दरअसल अँग्रेज़ों की हुकूमत है, इस बात का तब तक केशव को पता ही नहीं था।

२२ जून १८९७ के दिन, केशव जिस ‘नील सिटी’ विद्यालय में पढ़ रहे थे, वहाँ पर म़िठाई बाँटी जा रही थी। महारानी व्हिक्टोरिया के राज्याभिषेक को ६० वर्ष पूरे हो चुके थे। इस अवसर पर, अपने अधीन रहनेवाले सभी देशों में आनंदोत्सव मनाने का आदेश अंग्रेज़ों ने दिया था। इसीलिये यहाँ पर म़िठाइयाँ बाँटी जा रही थीं। परन्तु केशव ने म़िठाई लेने से इन्कार कर दिया। अध्यापक ने ज़बरन् मिठाई उनके हाथों में ठूस दी। केशव ने इस म़िठाई को कूडेदान में फ़ेंक दिया। उन्होंने ऐसा क्यों किया, यह उनके दोस्तों की समझ में नहीं आया, परन्तु केशव ने उन्हें सारी बात समझाकर बतायी।

‘इस म़िठाई से मुझे गुलामी की बू आ रही है।’ यह बाल केशव की प्रखर राष्ट्रभक्ति की प्रथम हुँकार थी। अपने मित्रों को भी केशव ने समझाया- ‘यह म़िठाई खाकर तुम्हें क्या मिला? यह अँग्रेज़ों की चाल है। ऐसी चीज़ें देकर वे हमारे अंदर गुलामी की मानसिकता तैयार कर रहे हैं।’ यह बात उन बच्चों को भी ठीक लगी। इन बच्चों का नेतृत्व अपने आप ही केशव के पास आ गया। इसी घटना के सिलसिले में एक और घटना का वर्णन करना चाहता हूँ। सन् १९०१ में ब्रिटन के ‘सातवें एडवर्ड’ के राज्याभिषेक का उत्सव मनाया जा रहा था। इस अवसर पर भारत में भी कई स्थानों पर उत्सव मनाया जा रहा था। चारों ओर रोशनी की गयी थी। नागपूर में भी ये सब तैयारियाँ हो रही थी। परन्तु केशव और समान विचारों वाले उनके मित्रों ने कई स्थानों पर जाकर इसका विरोध किया। ‘इसमें हमारे लिये उत्सव मनाने जैसा क्या है? बल्कि यह तो हमारे लिये लज्जास्पद बात है’ इस बात पर ग़ौर करने के लिए उन्होंने जनता से कहा।

जब केशव किशोरावस्था में थे, तभी नागपूर में प्लेग की महामारी फैली थी। प्लेग के कारण काफी संख्या में लोग मर रहे थे। इसी महामारी में केशव के माता-पिता का एक ही दिन निधन हो गया। यह हेडगेवार परिवार पर बड़ा आघात था। नागपूर में प्लेग से कई लोगों की मौत हो गयी। परन्तु देश पर इसकी तुलना में कई गुना बड़े संकट आये थे। अँग्रेज़ों ने अपनी हुकूमत को और ज़्यादा मजबूत करने के लिए धीरे-धीरे, परन्तु ठोस कदम उठाने शुरू कर दिये थे। भारतीय समाज में एकता ना हों, समाज में भाईचारा उत्पन्न न हों, इसके लिये जाति-पाति, पंथ और भाषाओं के आधार पर समाज का किस प्रकार बँटवारा हो सकता है, उस दिशा में अँग्रेज़ों ने तीव्र कूटनीति अपनायी। इसी सूत्र को क़ायम रखकर लॉर्ड कर्झन ने बंगाल का विभाजन किया था। इसके विरोध में संपूर्ण भारत एक हो गया था।

केशव ने भी अपने मित्रों के साथ बंगाल के विभाजन के विरोध में जुलूस निकाला था। ‘बंगाल हमारी भारतमाँ का ही हिस्सा है। हम कभी भी बंगाल का विभाजन नहीं करने देंगें’ ऐसा केशव ने दृढ़तापूर्वक कहा था। इस जुलूस में, बकिमचंद्र द्वारा लिखा गया ‘वंदे मातरम्’ यह गीत स्वयं केशव ने ही गाया था। यह गीत उन्हें कंठस्थ था। इसे सुनकर उनके सहकर्मी बहुत ही प्रभावित हुए थे। आगे चलकर जब कभी ये मित्र आपस में मिलते थे, तो ‘वंदे मातरम्’ से ही अभिवादन किया करते थे। स्थान-स्थान पर ‘वंदे मातरम्’ के जयघोष की गूँज शुरू हो जाने से अँग्रेज़ बेचैन हो उठे थे।

नील सिटी हायस्कूल में पढ़ाई करते समय १४ वर्षीय केशव ने, स्कूल में आनेवाले अँग्रेज़ सुपरवायझर का स्वागत ‘वंदे मातरम्’ से करने का तय किया। इसके लिये अपने छात्र मित्रों को उन्होंने तैयार किया। सुपरवायझर केशव की कक्षा में आये, तो सभी ने एक स्वर में ‘वंदे मातरम्’ का जयघोष किया। इसके बाद पूरे स्कूल में ‘वंदे मातरम्’ का जयघोष शुरू हो गया। वह सुनकर अँग्रेज़ सुपरवायझर आगबबूला हो गया। उन्होंने मुख्याध्यापक को आदेश दिया कि इसके पीछे जिस किसी का भी हाथ है, उसका पता लगाकर उसे कड़ी से कड़ी सजा दो। लेकिन छात्रों में से किसी ने भी केशव का नाम नहीं लिया। परन्तु केशव ही बिना गर्दन झुकाए खुद ही आगे आये और बता दिया कि ‘यह सब कुछ मैंने किया है।’ इसके बाद केशव को स्कूल से निकाल दिया गया।

केशव के चाचा आबाजी हेडगेवार ‘रामपायली’ में रहते थे। आगे की पढ़ाई के लिये केशव यहाँ आ गये। अब ‘यह सब’ छोड़कर पढ़ाई पर ध्यान दो, ऐसी सलाह चाचा के मित्रों ने केशव को दी। वह सुनकर केशव को काफ़ी बुरा लगा। वास्तव में, इन सबको ‘यह सब’ करना चाहिये था। इस सलाह को सुनने के बाद भी केशव ने अपना निर्धार बता दिया- ‘अब मैं अंग्रेज़ों के द्वारा चलाये जा रहे स्कूलों में पढ़ाई नहीं करूँगा। इन स्कूलों के माध्यम से ही वे हमें गुलाम बनाते जा रहे हैं।’ उनके इन दृढ़ उद्गारों को सुनने के बाद भविष्य में कोई भी उन्हें सलाह देने के चक्कर में नहीं पड़ा।

रामपायली में केशव आराम से नहीं बैठे थे। एक रात यहाँ के पुलिस स्टेशन पर किसी ने बम फेंका। यह काम केशव ने ही किया था। आबा हेडगेवार को जब इस बात का पता चला, तो उन्होंने केशव को नागपुर वापस भेज दिया। परन्तु केशव नागपुर में स्थित अपने घर पहुँचे ही नहीं। वे डॉ. मुंजे से मिले। डॉ. मुंजे एक महान देशभक्त थे और ‘हिन्दु महासभा’ के संस्थापक थे। नाशिक का ‘भोसला मिलिटरी स्कूल’, जहाँ पर नवयुवकों को सैनिकीय प्रशिक्षण दिया जाता है, उस संस्था के भी वे संस्थापक थे।

डॉ. मुंजे केशव से बहुत प्यार करते थे। केशव ने डॉ. मुंजे को अपनी समस्या बतायी। उसपर डॉ. मुंजे ने केशव को एक परिचय-पत्र दिया और यवतमाल भेज दिया। यवतमाल में तपस्वी बाबासाहेब परांजपे एक ‘विद्यागृह’ चलाते थे। यह विद्यागृह, केवल शिक्षा प्रदान करनेवाली पाठशाला नहीं थी, बल्कि छात्रों में राष्ट्रभक्ति का निर्माण करना, यह इस ‘विद्यागृह’ का प्रमुख ध्येय था। यवतमाल में लोकमान्य तिलक से प्रभावित हो चुके लोग काफ़ी संख्या में थे। बाबासाहेब परांजपे भी लोकमान्य तिलक के अनुयायी और सेवाव्रती थे। उनके ‘विद्यागृह’ में केशव को अपने व्यक्तित्व का विकास करने का पूरा मौका मिला।

यहाँ पर केशव ने काफी परिश्रम करके बलशाली शरीर-संपदा अर्जित की। इसके साथ-साथ बौद्धिक और मानसिक क्षमता भी विकसित की। ‘विद्यागृह’ के सभी शिक्षक, बिना वेतन लिये पढ़ाते थे और विद्यार्थियों से किसी भी प्रकार का शुल्क नहीं लिया जाता था। यहाँ पर सभी को नि:शुल्क शिक्षा दी जाती थी। फलस्वरूप इस विद्यागृह का वातावरण राष्ट्रभक्ति एवं सेवावृत्ति से भरा रहता था। यहाँ पर लोकमान्य तिलक का ‘केसरी’ और शिवरामपंत परांजपे का ‘काळ’ ये समाचारपत्र नियमित रूप से पढ़े जाते थे। उनपर चिंतन एवं चर्चा की जाती थी। इस तरह का वातावरण ही केशव को अपेक्षित था। यहाँ पर केशव अपने मन के विचार प्रभावी रूप से प्रस्तुत करने लगे। स्वाभाविक रूप से, इसलिये युवकों ने उन्हें अपना नेता मान लिया। यहाँ के छोटे और बड़े लोग भी केशव का आदर करने लगे और आदरपूर्वक उनका नामोल्लेख ‘केशवराव’ ऐसा किया जाने लगा।

राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत विद्यागृह पर अँग्रेज़ों की कड़ी नज़र थी। विद्यागृह पर लगातार पुलिस के छापे पड़ने लगे। अंतत: विद्यागृह को बंद करना पड़ा। केशवराव अब डॉ. मुंजे की सलाह के अनुसार पुणे आ गये। पुणे में उस समय के बड़े बड़े नेताओं के साथ केशवराव का सम्पर्क हुआ। पुणे में अध्ययन पूरा करने के बाद वे नागपुर में अपने घर लौटे। इस दौरान घर की आर्थिक परिस्थिति खराब थी। अत: केशवराव शिक्षक बन गये, उन्होंने ट्युशन्स लेना शुरू किया। इससे प्राप्त होने वाली आय से उन्होंने घर सँभाला और कुछ पैसे भविष्य में अपने अध्ययन हेतु बचाकर रखे। केशवराव डॉक्टर बनकर समाज की सेवा करना चाहते थे। वैद्यकीय शिक्षा के लिये वे बंगाल जाना चाहते थे। इस वंगभूमि के प्रति केशवराव के मन में प्रचंड आकर्षण था। क्योंकि यह महान भगवद्भक्त गौरांग चैतन्य महाप्रभु की भूमि थी। वंगभूमि में महिषासुरमर्दिनी काली माता की उपासना होती है।

डॉ. मुंजे ने केशवराव को परिचय पत्र देकर कलकत्ता भेजा। कलकत्ता पहुँचते-पहुँचते ही केशवराव ने क्या किया होगा? केशवराव ने आदरपूर्वक यहाँ की मिट्टी को अपने माथे पर लगाया। भक्तिभाव से गंगामाता के दर्शन किये। काफ़ी कम समय में ही उन्होंने बंगाली भाषा पर अपना प्रभुत्व संपादित कर लिया और वे बंगाली भाषा में धाराप्रवाह भाषण देने लगे। सभी लोगों को इस बारे में आश्‍चर्य हो रहा था। देशभक्तिमय भाषण देकर जन-जागृति करते हुए उन्होंने अपनी पढ़ाई पर भी ध्यान केंद्रित रखा। धन की कमी के कारण उनके पास पाठ्यक्रम की पुस्तकें तक नहीं थीं। परन्तु सहपाठियों की पुस्तकें लेकर वे रात के समय अध्ययन किया करते थे और सबेरे उन्हें उनकी पुस्तके वापस कर दिया करते थे। इस प्रकार उन्होंने अपनी वैद्यकीय पढ़ाई पूरी की। इस दौरान उनका बंगाल के अतिप्रतिष्ठित एवं मान्यवर परिवारों में आना जाना शुरू हो गया। इन में प्रफुल्लचंद्र गांगुली, श्यामसुंदर चक्रवर्ती और बिपिनचंद्र पाल का समावेश था। सौजन्यशील, विनम्र आचरण के कारण केशवराव सर्वप्रिय बन गये थे। ‘मैं महाराष्ट्र का हूँ, बंगाल के रहन-सहन, भाषा और संस्कृति से मुझे क्या लेना-देना है’ इस तरह का संकुचित विचार उनके मन में कभी भी नहीं आया। रामकृष्ण आश्रम के द्वारा बाढ़-पीड़ितों की जो सेवा की जा रही थी, उस सेवा में केशवराव मन:पूर्वक शामिल हुए थे।

इसी दौरान नेताजी सुभाषचंद्र बोस की ‘स्वदेशी प्रदर्शनी’ में वे स्वयंसेवक बनकर यहाँ आनेवालों का मार्गदर्शन करने लगे। यहीं पर उनका संपर्क बंगाल के क्रान्तिकारी समूह से हुआ।

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