संघ का प्रभाव

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग ५५

सरसंघचालक का देशभर में प्रवास शुरू हो गया। इमर्जन्सी का दौर ख़त्म होकर देश में चुनाव संपन्न हुए थे और जनता पार्टी की सरकार सत्ता पर आयी थी। इमर्जन्सी के दौर में जो कुछ भी हुआ, उसे पीछे छोड़कर संघ पुनः अपने कार्य पर ध्यान केंद्रित करें, इसके लिए पूजनीय सरसंघचालक अपने प्रवास में विशेष प्रयास कर रहे थे। नयी दिल्ली के प्रवास के दौरान, तत्कालीन उपप्रधानमंत्री बाबू जगजीवनराम ने बाळासाहब से मिलने की इच्छा प्रदर्शित की। लेकिन बाळासाहब बहुत ही व्यस्त थे। इस कारण यह मुलाक़ात नहीं हो सकी। ‘अगली बार जब मैं दिल्ली आऊँगा, तो आपसे अवश्य मिलूँगा’ ऐसा आश्‍वासन बाळासाहब ने दिया।

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उसके बाद पुनः बाळासाहब दिल्ली आये और बाबू जगजीवनराम ने उन्हें अपने घर भोजन के लिए निमंत्रित किया। लाला हंसराजजी गुप्त को साथ लेकर बाळासाहब जगजीवनरामजी के घर गये। इस समय हुई चर्चा में जगजीवनरामजी ने बाळासाहब के पास, संघ ने किये कार्य की मुक्तकंठ से प्रशंसा की। ‘मैं संघ के बारे में ज़ाहिर रूप में बोलता नहीं, लेकिन मुझे संघ के कार्य के प्रति आदर है’ यह जगजीवनरामजी ने मनःपूर्वक कहा। उसके बाद उन्होंने अपनी व्यथा भी प्रस्तुत की। जनता पार्टी की सरकार स्थापन हुई। विभिन्न पार्टियाँ और विचारों के नेता इस सरकार में सहभागी हुए थे। इमर्जन्सी के अनुभव के बाद, दरअसल इन सबने देशहित को प्राथमिकता देकर सारे मतभेद गाड़ने चाहिए थे। लेकिन उलटा ही घटित हो रहा था। ‘जनता पार्टी की सरकार के मंत्री चौधरी चरणसिंग बार बार मुझे अपमानित करते रहते हैं, ऐसा खेद जगजीवनरामजी ने व्यक्त किया।

‘आप चरणसिंगजी को समझाकर बताइए’ ऐसी विनति जगजीवनरामजी ने बाळासाहब से की। यह सबकुछ सुनकर बाळासाहब ने, ‘इस बारे में आप ठेंठ चरणसिंगजी से ही बात क्यों नहीं करते?’ ऐसा पूछा। लेकिन जगजीवनराम का कहना अलग ही था। ‘यदि आप ये बात चरणसिंगजी से करेंगे, तो उसका प्रभाव अलग होगा’ ऐसा जगजीवनरामजी ने बाळासाहब से कहा। ‘चौधरी चरणसिंग कोई संघ के स्वयंसेवक नहीं हैं। इसलिए मेरी बात पर मर्यादाएँ आती हैं। फिर भी, अवसर मिलने पर मैं इस बारे में चरणसिंगजी से अवश्य बात करूँगा’ ऐसा आश्‍वासन बाळासाहब ने दिया।

कुछ समय बाद चौधरी चरणसिंगजी का सन्देश बाळासाहब को मिला। वे भी बाळासाहब से मिलना चाहते थे। उनके मुलाक़ात के दौरान चरणसिंगजी ने अलग ही शिक़ायत बाळासाहब से की। ‘प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई मुझसे ठीक ढ़ंग से पेश नहीं आते। ‘मैं राष्ट्रीय नेता नहीं हूँ, छोटे समाजगुट का नेता हूँ’ ऐसा कहकर मोरारजी हमेशा मुझे नीचा दिखाते हैं। वे ऐसा न करें, यह आप उन्हें बताइए’ ऐसा चरणसिंगजी ने कहा। बाळासाहब ने यह बात भी सुन ली। ऐसी कई बातें बाळासाहब हमेशा ही शान्तिपूर्वक सुन लिया करते थे।

जनता पार्टी की सरकार के रहते हुए भी संघ का प्रभाव कितना भारी था, यह दर्शाने के लिए ये दो वाक़ये काफ़ी होंगे। अपितु इस प्रभाव का संघ ने कभी भी इस्तेमाल नहीं किया, वह बात अलग है। लेकिन जनता पार्टी की सरकार में सहभागी हुए जनसंघ के नेता बहुत ही प्रभावी ढ़ंग से कार्य कर रहे हैं, यह अन्यों को चुभ रहा था। कार्यकर्ताओं का बड़ा नेटवर्क उपलब्ध रहनेवाले जनसंघ के मंत्रियों का काम काम अधिक ही प्रभावी होता है, उसके आगे हम निष्प्रभ साबित होंगे, ऐसा डर जनता पार्टी के कुछ लोगों को लगने लगा। उसमें से निर्माण हुई असुरक्षिता की भावना के कारण उन्होंने अपनी ही सरकार के विरोध में कारनामें शुरू किये।

मधु लिमये, राजनारायण इन्होंने, ‘अपनी सरकार में रहनेवाले जनसंघ के नेता, संघ के प्रति होनेवाली अपनी निष्ठा उन्होंने क़ायम रखी है’ ऐसा होहल्ला मचाना शुरू किया। सरकार में रहनेवाले जनसंघ के नेता संघ के साथ कुछ भी ताल्लुक न रखें, ऐसी ज़िद समाजवादियों से की जाने लगी। हर एक स्वयंसेवक की यह धारणा रहती है कि मैं पहले स्वयंसेवक हूँ और बाक़ी की सारीं बातें उसके बाद आनेवाली हैं। इसलिए जनसंघ से आये लोगों ने समाजवादियों की इस माँग को स्पष्ट रूप में ख़ारिज़ कर दिया। हम चाहे तो मंत्रिपद और अन्य महत्त्वपूर्ण पदों का त्याग करेंगे, लेकिन संघ के साथ रहनेवाला रिश्ता नहीं तोड़ेंगे, ऐसा जनसंघ के मंत्रियों ने एवं कार्यकर्ताओं ने बता दिया।

संघ कोई राजनीतिक पार्टी नहीं थी, बल्कि यह सामाजिक-सांस्कृतिक संघटन था। इन्हीं लोगों ने इमर्जन्सी के दौरान संघ से सहयोग लिया था। यह सहयोग प्राप्त हों, इसलिए संघ की प्रार्थना भी की थी। उस समय उन्हें संघ के साथ के मतभेद याद नहीं आये थे। लेकिन सरकार स्थापन होने के बाद इन लोगों का संघविरोध उबलकर बाहर आया।

नागपुर हवाईअड्डे पर बाळासाहब की, जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखरजी के साथ मुलाक़ात हुई। उस ज़माने में चंद्रशेखरजी ‘तरुण तुर्क’ के रूप में जाने जाते थे। यह भेट पूर्वनियोजित नहीं थी। इसलिए दोनों की चर्चा में अन्य किसी का भी समावेश नहीं था। इस ठेंठ चर्चा में बाळासाहब ने संघ की भूमिका स्पष्ट की।

‘‘संघ कभी भी अपनी वैचारिक भूमिका के साथ समझौता नहीं करेगा। राष्ट्रहित और राष्ट्र की सुरक्षा इनके प्रति संघ हमेशा जागरूक पहरेदार का काम करता आया है। इसीलिए किसी भी पार्टी या संगठन या व्यक्ति के राष्ट्रविरोधी कार्य का संघ विरोध ही करेगा। संघ के पदाधिकारी किसी भी राजनीतिक पार्टी के मंच पर नहीं जाते, लेकिन स्वयंसेवकों को किसी भी राजनीतिक मंच पर जाने का अधिकार है। वे किसी भी राजनीतिक पार्टी के साथ जुड़ सकते हैं। वे किसी भी पार्टी में जायें, लेकिन ज़िम्मेदारी से काम करें, इसके लिए संघ हमेशा आग्रहशील रहता है। जनसंघ जनता पार्टी में विलयित हो चुका है, उनके कार्य में हम दख़लअन्दाज़ी नहीं करते। संघ के संस्कारों के कारण, ये कार्यकर्ता जहाँ कहीं भी काम करेंगे, उसमें प्रामाणिकता और अनुशासन होगा ही। राष्ट्रहित सभी के लिए सर्वोपरी रहना चाहिए’ ऐसा बाळासाहब ने चंद्रशेखरजी से किया।

आख़िरकार इन ज़िद्दी लोगों ने दोहरी निष्ठा का आरोप कर जनता पार्टी की सरकार गिरा दी। जनता ने बड़ी उम्मीदें लेकर इन सबको बहुमत दिया था। हम जनभावना का अपमान कर रहे हैं, इसका भी एहसास इन लोगों को नहीं रहा। इसके परिणाम भविष्य में इन लोगों को भुगतने पड़े। इसके बाद सन १९८० में जनसंघ के लोगों ने ‘भारतीय जनता पार्टी’ की स्थापना की। पहले आये कटु अनुभवों का सदोष विश्‍लेषण करने के कारण या फिर किसी अन्य कारणवश, भारतीय जनता पार्टी ने अपनी हमेशा की वैचारिक भूमिका को त्यागकर उदार समाजवाद की नयी संकल्पना प्रस्तुत की। अपने जनाधार को अधिक बढ़ाने के लिए यह तथाकथित उदार भूमिका का हम स्वीकार कर रहे हैं, ऐसी धारणा इस नयी पार्टी ने उस समय बना ली थी। दरअसल इसकी कोई ज़रूरत ही नहीं थी।

हिंदु संस्कृति एवं परंपरा इन्हें कोई उदारमतवाद सिखाने की ज़रूरत नहीं है। दुनिया में हिंदुओं जितनी उदारता अन्य किसीने किसीके प्रति दिखायी नहीं होगी। इसीलिए इस देश में दुनियाभर के अल्पसंख्यांकों का विशाल मन से स्वागत हुआ। हीनदीन परिस्थिति में भारत में आये जनसमुदायों का यहाँ पर विस्तार हो गया और वे यहाँ फूलेफले, इसके पीछे हिंदुओं की विशालता नहीं, तो और क्या था? इसलिए भारतीयों को उदारमतवाद की विदेशी संकल्पनाओं का स्वीकार करने की ज़रूरत ही नहीं है। कुछ समय बाद भारतीय जनता पार्टी की भी समझ में यह बात आ गयी। लेकिन इस दौरान एक महत्त्वपूर्ण घटना घटित हुई, उसके बारे में मैं बताना चाहता हूँ।

तथाकथित उदार समाजवाद के प्रयोग जारी थे, तब काँग्रेस के एक ज्येष्ठ नेता ने सरसंघचालक से संपर्क कर उन्हें अपने घर भोजन के लिए निमंत्रित किया। अपने विचारों पर संघ की आत्यंतिक निष्ठा है, इसका मतलब यह नहीं है कि दूसरे विचारों के लोग अपने शत्रु हैं ऐसा संघ मानता हो। इस कारण संघ के स्वयंसेवक और प्रचारक सभी के साथ प्रेम से संबंध रखते हैं। बाळासाहब इन नेता के घर गये। साथ में डॉ. आबाजी थत्ते थे। इस समय काँग्रेस के इन नेता ने अपना मन्तव्य ज़ाहिर किया।

‘मेरी उम्र हो चुकी है। इस बार मुझे चुनाव नहीं लड़ने थे। लेकिन नेतृत्व के आग्रह के कारण मैंने चुनाव लड़े। यह मेरे जीवन के आख़िरी चुनाव हैं। आगे मुझे किसी भी बात में दिलचस्पी नहीं रही। लेकिन एक बात का बुरा लग रहा है। भारतीय जनता पार्टी ने अपनी हमेशा की व्यापक हिंदुत्व की भूमिका को त्याग दिया, यह उचित नहीं किया। कम से कम यह पार्टी तो हिंदुत्व की भूमिका न त्यागें। अन्यथा काँग्रेस और भारतीय जनता पार्टी में कुछ फ़र्क़ ही नहीं रहेगा। हिंदुत्व के अलावा देश को और कोई चारा ही नहीं है। आज नहीं तो कल हिंदुत्व का प्रभाव दिखायी देने ही वाला है। आनेवाले समय में इस देश में हिंदुत्ववादी पक्ष ही सत्ता पर आनेवाला है। वही देश के लिए सर्वोत्तम समय होगा’, ऐसा इन नेता ने कहा था।

यह सब बाळासाहब ने शान्तिपूर्वक सुन लिया। यह उनकी ख़ासियत थी। वे हमेशा ही शान्तिपूर्वक सबकी सुन लेते थे। समय की धारा में आगे क्या हुआ, यह हम सब जानते हैं। भारतीय जनता पार्टी ने अपनी हिंदुत्ववादी वैचारिक भूमिका स्पष्ट की और उसके बाद इस पार्टी का विस्तार हुआ। आज हम, जनमानस की नाड़ी समझ में आ चुके और भविष्य का अँदाज़ बतानेवाले, काँग्रेस के उन ज्येष्ठ नेता की भविष्यवाणी हूबहू सच में आयी होने का अनुभव कर रहे हैं। इससे अधिक और क्या कहें!

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