दूसरी सत्त्वपरीक्षा

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग ५०

sakshibhaav-balasaheb-deoras- सरसंघचालकडॉक्टर हेडगेवार जी का निधन होने के पश्‍चात् श्रीगुरुजी के पास संघ का नेतृत्व आ गया। इस दौरान द्वितीय विश्‍वयुद्ध चल रहा था। यह दौर दुनिया भर के नेताओं के नेतृत्वगुणों की कसौटी का दौर था। उस दौर में गुरुजी ने संघ को अद्भुत नेतृत्व दिया। गुरुजी के नेतृत्व में संघ का बडी ही तेज़ी से विस्तार एवं विकास हुआ। जीवन के अनेक क्षेत्रों में संघ का कार्य ज़ोर शोर से शुरू हो गया और संघकार्य का क्षितिज नये नये आयाम प्रस्थापित करता गया। गुरुजी का निधन होने के बाद बाळासाहेब जी के पास संघ के सूत्र आ गये। उस व़क्त भी हालात चुनौती भरे ही थे।

१९७३  में सरसंघचालक पद की ज़िम्मेदारी का स्वीकार करने के बाद बाळासाहेब जी ने देशभर में प्रवास करना शुरू किया। हमारे समाज में क्या चल रहा है, इस बात का बाळासाहेब जी ने गहराई से निरीक्षण किया। हमारा समाज भ्रष्टाचार से, सत्ता की दहशत से ग्रस्त है। भ्रष्टाचार और गैरव्यवहार के कारण जनमानस निराश बन चुका है। हैरान हो चुकी जनता की समस्याओं को हल करने की ज़िम्मेदारी से सरकार मुँह मोड रही है और इन समस्याओं को हल करने की अपेक्षा सरकार को अपनी कुर्सी बचाने में ही अधिक दिलचस्पी है। जनता के मन में हमारी कार्यपद्धति के प्रति असंतोष बढ़ रहा है, इस बात का अहसास सरकार को हो चुका था, मग़र उसके विरुद्ध सरकार दमनतन्त्र का इस्तेमाल कर रहा था।

आगे चलकर तो यह दमनतन्त्र का इस्तेमाल इस कदर बढ गया कि देश में जनतन्त्र है या दमनतन्त्र यह सवाल उठने लगा। इस सरकार को जनता ने ही चुना था और जनतन्त्र में मनमानी करने का अधिकार सरकार को भी नहीं हो सकता। ज़ाहिर है, सरकार की तानाशाही के खिलाफ विरोधी पक्षों ने ज़ोरदार आव़ाज उठायी। ऐसे समय पर संवाद की भूमिका अपनाने के बजाय सरकार ने अपनी तानाशाही को अधिक ही तीव्र कर दिया। विरोधी पक्ष के नेताओं तथा कार्यकर्ताओं में भी असंतोष की भावना गहराती जा रही थी। इस दमनतन्त्र से देश को पुन: आज़ाद करने की आवश्यकता है, यह प्रबल भावना उनके मन में निर्माण हुई थी। संघ यह सब देख रहा था। समाज संकट में होते हुए संघ का चुप बैठे रहना असंभव था। इस दौर में, आज़ादी के बाद राजनीति त्यागकर देशसेवा में जीवन अर्पण कर चुके जयप्रकाश नारायण जी भी सरकार की कार्यपद्धति से नाराज़ थे। जनता की व्यथा दूर न कर सकने वाली सरकार उन्हें मंज़ूर नहीं थी। इसी कारण इस सरकार के विरोध में जन आंदोलन करने का विचार जयप्रकाश जी के मन में था।

काफी समय से राजनीति में सक्रिय न रहने वाले जयप्रकाश जी के पास जन आंदोलन करने के लिए आवश्यक रहने वाला संगठन नहीं था। इसलिए उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सहायता माँगी। संघ के ज्येष्ठ प्रचारक ‘नानाजी देशमुख’ से जयप्रकाश जी की चर्चा हुई। नानाजी ने ‘आपका आवाहन मैं सरसंघचालक तक पहुँचाता हूँ’ यह आश्‍वासन जयप्रकाश जी को दिया। परमपूज्य सरसंघचालक भी समाज की स्थिति देखकर व्यथित थे ही। साथ ही जनता के लिए ही जन आंदोलन करने के लिए जयप्रकाश जी ने संघ से सहायता माँगी थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यह राजकीय पक्ष नहीं है। अत एव जन आंदोलन करके उसका राजकीय फायदा उठाने की प्रवृत्ति संघ में नहीं है। इसीलिए संघ ने ठेंठ अपने नाम से यह जन आंदोलन न करते हुए, जयप्रकाश जी के पीछे अपनी शक्ति खडी करने का तय किया। स्वयंसेवक इस जन आंदोलन में सम्मिलित हों, यह आदेश सरसंघचालक ने दिया।

फिर क्या! जयप्रकाश जी के द्वारा किये गये आवाहन को उत्स्फूर्त प्रतिसाद (रिस्पाँज़) मिला। बेचैन रहने वाली जनता जयप्रकाश जी की अगुआई में इकट्ठा हो गयी। इस आंदोलन के लिए ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’ ने अपरंपार मेहनत की। सारे देश में व्यापक जन आंदोलन की आग भडक गयी। ऐसे समय पर दो कदम पीछे हटकर आंदोलन को शान्त करने के प्रयास सरकार के द्वारा किये जाना अपेक्षित था। यह आंदोलन जनता की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वाला आंदोलन था। उसे सकारात्मक प्रतिसाद देना यह लोकनियुक्त सरकार का फर्ज़ ही था, मग़र आंदोलकों की माँगें गैरकानूनी एवं जनतन्त्रविरोधी हैं, यह घोषित करके सरकार ने पहले से भी अधिक सख्त रवैया अपनाकर इस जन आंदोलन को दबा देने की कोशिश की। इस काम में सरकार ने सारी ताकत लगा दी।

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सहभाग के कारण देश भर में आंदोलन शुरू हो चुका था, मग़र शुरुआती दौर में गुजरात और बिहार ये दो राज्य सब से आगे थे। बिहार में स्वयं जयप्रकाश नारायण जी आंदोलन की अगुआई कर रहे थे। एक मोरचे में आगे रहकर निदर्शन करने वाले जयप्रकाश जी पर पुलिस ने बेरहमी से लाठी चार्ज किया। लाठी के एक घाव ने तो जयप्रकाश जी को घायल कर दिया होता, मग़र उनके साथ रहने वाले नानाजी देशमुख ने वह घाव अपने हाथ पर ले लिया। वह घाव इतना ज़ोरदार था कि नानाजी के हाथ की हड्डी टूट गयी। मग़र उन्होंने जयप्रकाश जी को बचा लिया। आप ने ऐसा क्यों किया, यह प्रश्‍न जयप्रकाश जी के द्वारा पूछे जाने पर नानाजी ने उसका बडा मार्मिक उत्तर दिया। ‘बचपन से संघ ने हम पर ये ही संस्कार किये हैं’, ऐसा नानाजी ने कहा था।

२५ जून १९७५  को इमर्जन्सी (आपातकाल) घोषित कर दी गयी। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने प्रधानमन्त्री इंदिरा जी गांधी के विरोध में निर्णय देकर उनके छह साल तक चुनाव लडने पर पाबंदी लगा दी थी, यह इमर्जन्सी लगाने के पीछे का निमित्त कारण साबित हो गया था। इमर्जन्सी लगने से पहले आंदोलन करना अलग था। इमर्जन्सी लगने के बाद सडक पर उतरकर सीधे सीधे सरकार को चुनौती देने का साहस करना यह आसान नहीं था। इसके लिए देशव्यापी संगठन की और कार्यकर्ताओं की शृंखला की आवश्यकता थी। इसी लिए संघ इस जन आंदोलन का समर्थन करें, ऐसा आवाहन राजकीय पक्षों की तरफ से किया जा रहा था। जयप्रकाश नारायण और अन्य ज्येष्ठ नेताओं के द्वारा देश के जनतन्त्र को बचाने के लिए किये गये आवाहन को संघ ने प्रतिसाद दिया।

इमर्जन्सी घोषित होने के बाद सरकारी यंत्रणाओं के दमनतन्त्र को अधिकृत रूप में मान्यता मिल गयी। देश भर में गिरफ्तारी का दौर शुरू हो गया। अब किसी भी तरह से इस आंदोलन को ध्वस्त कर देने का, आंदोलकों को गिरफ्तार करके उन्हें यातनाएँ देने की मानों परमिट ही पुलीस दल को मिल गयी थी। इस कारण देश भर में आक्रोश शुरू हो गया। समाचारपत्रों पर निर्बंध लगाये गये। उसी समय टीव्ही का देश में आगमन हो रहा था, लेकिन रेडिओ का प्रसार बहुत बडा था। लेकिन इन दोनों माध्यमों पर सरकारी नियंत्रण आ गया। विरोधकों के सारे समाचार दबा देने के लिए सरकार ने हर संभव कोशिश की। अधिक से अधिक संख्या में विरोधकों को सलाखों के पीछे डाल देने की कोशिश सरकार कर रही थी।

जयप्रकाश नारायण जी, अटलबिहारी वाजपेयी जी, लालकृष्ण अडवाणी जी और अन्य महत्त्वपूर्ण नेताओं को गिरफ्तार किया गया। ३० जून १९७५ को संघ शिक्षा वर्ग पूरा करके सरसंघचालक बाळासाहेब देवरस जी नागपुर जा रहे थे। उन्हें रेल में गिरफ्तार कर लिया गया। रेल के कंपार्टमेंट में कुछ पत्रकार उपस्थित थे। उन्होंने बाळासाहेब जी का इंटरव्ह्यू किया। उस समय बाळासाहेब जी ने संदेश दिया- ‘डरने की कोई भी बात नहीं है। मुझे गिरफ्तार किया गया और अन्य स्वयंसेवकों को भी जेल में डाल दिया गया, तब भी संघ के हज़ारों स्वयंसेवक भूमिगत रहकर सरकार्यवाह के मार्गदर्शन में देश भर में कार्य करते रहेंगे।’ सरसंघचालक का यह आदेश स्वयंसेवकों के लिए पर्याप्त था।

सरकार ने संघ पर पाबंदी लगा दी और लगभग एक लाख स्वयंसेवकों को गिरफ्तार किया। सरसंघचालक को येरवडा जेल में रखा गया। मग़र फिर भी संघ को रोकने में सरकार को बिलकुल भी सफलता नहीं मिली। उलटे संघ का कार्य इस तरह के चुनौती भरे दौर में अधिक ही तीव्र बन गया।

महात्मा गांधी जी की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या होने के बाद संघ पर निर्बंध लगाये गये थे। संघ के निर्दोष होने की बात आगे चलकर साबित हुई और सरकार को इन निर्बंधों को पीछे लेना ही पडा। इसके बाद इमर्जन्सी के दौर में संघ पर दूसरी बार पाबंदी लगायी गयी। यह पाबंदी यह संघ के लिए दूसरी सत्त्वपरीक्षा ही थी। संघ की क्षमता एवं सामर्थ्य अद्भुत है, इस बात का अहसास सारे समाज को इस दौरान हो गया। देश और समाज पर संकट आता है, तब संघ क्या कर सकता है, इस बात की झलक सब को देखने मिली। इस मुश्किल दौर में संघ के द्वारा दिखाया गया धैर्य बेजोड था।

(क्रमशः)

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