ध्येय-अनुवर्ती

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग ४९

गुरुजी का निधन होने के बाद संघ की प्रगति के संदर्भ में चिन्ता व्यक्त करने वाला लेख ‘स्टेट्समन’ नाम के एक पश्‍चिमी समाचारपत्र ने प्रकाशित किया था। डॉक्टर हेडगेवार जी और गुरुजी के द्वारा बनाये गये इस विशाल संगठन का आगे चलकर क्या होगा, क्या नया नेतृत्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ज़िम्मेदारी उठा सकेगा, इस तरह के प्रश्‍न इस लेख में उपस्थित किये गये थे।

sakshibhaav-balasaheb-deoras- ध्येय-अनुवर्तीसरल शब्दों में कहा जाये तो ‘डॉक्टर हेडगेवार जी और श्री गुरुजी के जितना संगठनकौशल और क्षमता क्या बाळासाहब जी के पास है, यह आशंका ‘स्टेट्समन’ ने अभिव्यक्त की थी। बाहर से देखने वाले के मन में संघ के बारे में हमेशा ही इस तरह के प्रश्‍न उठते हैं। संघ के बारे में, ‘सरसंघचालक के आदेश के अनुसार चलने वाला संघ यह ‘एकचालकानुवर्ती’ संगठन है, अत एव सरसंघचालक जिस दिशा में आगे ले जायेंगे, उसी दिशा में संघ आगे बढ़ता है’, ऐसी राय उनकी होती है, जिनके पास संघ के ध्येय, नीति और कार्यशैली की अधूरी जानकारी रहती है। ‘स्टेट्समन’ के लेख में अभिव्यक्त की गयी आशंका के पीछे का कारण भी यही था। मग़र बाळासाहेब जी ने इसका यथोचित उत्तर दिया।

बाळासाहेब जी ने सरसंघचालक बन जाने के बाद पहले दिल्ली का दौरा किया। उस समय उनके द्वारा दिये गये व्याख्यान में ‘धी स्टेट्समन’ के द्वारा उपस्थित की गयी आशंका का उल्लेख किया गया। इस समाचारपत्र के द्वारा व्यक्त की गयी चिन्ता यह मेरे लिए और साथ ही संघ के लिए भी अच्छी ही है। अहम बात यह है कि इस समाचारपत्र का कहना बिलकुल ठीक है। डॉक्टर और गुरुजी इन दोनों का व्यक्तित्व गगनस्पर्शी था। उनकी बराबरी कोई भी नहीं कर सकता। लेकिन ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ यह ‘नेतृत्व-अनुवर्ती’ संगठन नहीं है, बल्कि यह ‘ध्येय-अनुवर्ती’ संगठन है। इसलिए डॉक्टरसाहब जी का निधन होने के बाद भी संघ का  बहुत बडे प्रमाण में विस्तार हुआ। डॉक्टर और गुरुजी ने मुझ जैसे स्वयंसेवकों का समय समय पर मार्गदर्शन किया। उन्होंने संघ की रचना ही इस तरह से कर रखी है कि डॉक्टर जी और गुरुजी भले ही इस दुनिया से विदा ले चुके हों, मग़र तब भी उनका मार्गदर्शन हमें मिलता ही रहेगा। अत एव इसके बाद भी संघ का विस्तार होता ही रहेगा।

बाळासाहेब जी के इन शब्दों की यथार्थता आज भी हम अनुभव कर सकते हैं। संघ का नेतृत्व किसके पास है, इस बात पर संघ का कार्यविस्तार निर्भर नहीं है, क्योंकि संघ की स्थापना करते समय ही डॉक्टर जी ने ‘संघ यह किसी एक व्यक्ति से जुडा नहीं होगा’ यह सावधानी बरती थी। व्यक्ति पद पर आते हैं और जाते हैं, पीछे रहता है कार्य; और इसी लिए संघ कार्य को सब से अधिक महत्त्व देता है।

सरसंघचालक पद की ज़िम्मेदारी उठाते ही बाळासाहेब जी ने जगह जगह विचरण करना शुरू किया। गुरुजी के निजी सचिव रहने वाले डॉ. आबाजी थत्ते अब बाळासाहेब जी के निजी सचिव बन गये थे। आबाजी साये की तरह गुरुजी के साथ विचरण करते थे। अब बाळासाहेब जी के साथ आबाजी भी लगातार सफर करते रहते थे। गुरुजी के कार्यकाल में बाळासाहेब जी आठ वर्ष तक सरकार्यावह के पद पर कार्य कर रहे थे। इस दौरान भी उन्होंने काफी सफर किया था। लेकिन सरसंघचालक के रूप में करने वाला प्रवास बहुत ही अधिक था। बाळासाहेब जी ने संघ के कार्य को अधिक ऊर्जा मिलें, इस दिशा में प्रयास करना शुरू किया। साथ ही संघ का अनुशासन बरकरार रहें, इस मामले में भी वे दक्ष थे।

कभी कभी स्वयंसेवकों के द्वारा ‘परमपूज्य बाळासाहेब जी’ इस तरह का उल्लेख किया जाता था। बाळासाहेब जी स्वयंसेवकों को वहीं पर रोक देते थे। ‘सरसंघचालकों को परमपूज्य कहना योग्य होगा, लेकिन मेरे नाम के आगे परमपूज्यता की उपाधि लगाना, यह बात संघ के अनुशासन के विरुद्ध है। अत एव परमपूज्य कहकर यदि उल्लेख करना चाहते हो तो वह केवल सरसंघचालकों का कीजिए, बाळासाहेब जी का नहीं’ ऐसा बाळासाहेब जी ने निग्रहपूर्वक कहा था।

देश भर के प्रवास के दौरान बाळासाहेब जी ने ‘भारत यह हिंदुराष्ट्र है’ यह बात निर्धारपूर्वक बतायी। लेकिन हमारा समाज आज असंगठित है और इसी कारण निर्बल बन गया है। कोई भी देश उस देश की सरकार से बडा नहीं बन सकता, बल्कि संगठित समाज के कारण देश बडा एवं बलशाली बनता है। आखिर समाज में से ही सरकार बनती है और समाज में से ही सेना बनती है। अत एव संगठित समर्थ समाज बनाना यही संघकार्य है, ऐसा कहकर बाळासाहेब जी इस संदर्भ में इस्रायल का उदाहरण देते थे। इस्रायल संगठित है इसी कारण ताकतवर है, ऐसा बाळासाहेब जी हमेशा बताते थे।

बाल स्वयंसेवक होते समय ही बाळासाहेब जी जाति-उपजातिवाद के प्रखर विरोधक थे। सरसंघचालक बनने के बाद बाळासाहेब जी ने सामाजिक समरसता पर सब से अधिक ज़ोर दिया। हमारे समाज में से अस्पृश्यता का निवारण करने के लिए हम जितना कर सकें उतना कार्य करने के लिए हमें तैयार रहना चाहिए, यह संदेश बाळासाहेब जी स्वयंसेवकों को देते थे। आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर रहने वाले समाज की सेवा के विशेष उपक्रम हाथों में लेने के आदेश बाळासाहेब जी ने दिये थे। वनवासी बांधवों की संख्या बहुत अधिक है। उन्हें आदिवासी संबोधित करके दूसरों से अलग करने की नीति संघ को बिलकुल भी मंज़ूर नहीं है। इसी कारण ‘उन्हें आदिवासी न कहते हुए वनवासी कहिए’, यह बाळासाहब जी का आग्रह था। भगवान श्रीराम भी चौदह वर्ष तक वनवास में थे। ‘जो वन में रहते हैं वे वनवासी’ इतना सरल एवं सीधा अर्थ इस शब्द का है।

बाळासाहेब जी जब सरसंघचालक थे, तभी रामजन्मभूमि आंदोलन शुरू हुआ। अयोध्या के राममंदिर के लिए बाळासाहेब जी आग्रही थे। यहाँ पर राममंदिर होना ही चाहिए, मग़र उसमें राजनीति की दखलअंदाज़ी नहीं होनी चाहिए। यह राजनीति का विषय नहीं है, बल्कि देश के करोडों लोगों के श्रद्धास्थान का विषय है, ऐसी बाळासाहेब जी की भूमिका थी। इसी कारण उन्होंने जनजागृति हेतु देश भर में स्वयंसेवकों को भेज दिया। इस दौरान तमिलनाडू के ‘मीनाक्षीपुरम्’ में दो हज़ार हिंदू परिवारों का धर्मांतरण हुआ। इस धर्मांतरण का मूल कारण था, अस्पृश्यता और गरिबी। इसी का फायदा परधर्मियों ने उठाया और यह धर्मांतरण करवाया था। उस समय प्रधानमन्त्री पद पर रहने वालीं इंदिरा जी गांधी ने भी इस घटना पर चिन्ता जतायी थी। इस घटना की गंभीरता को ध्यान में रखकर ही बाळासाहेब जी ने धर्मजागृति के लिए स्वयंसेवकों को अधिक व्यापक प्रमाण में कार्य शुरू करने के आदेश दिये। इसके कुछ समय बाद परधर्म में गये इन परिवारों को पुन: अपने धर्म में समाविष्ट कराया गया। साथ ही उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार करने की व्यवस्था भी की गयी।

१९८९ यह वर्ष डॉक्टर हेडगेवार जी का जन्मशताब्दि वर्ष था। उसका औचित्य रखकर बाळासाहेब जी ने मुंबई में हुए कार्यक्रम में एक लाख सेवाकार्य शुरू करने की बहुत ही महत्त्वाकांक्षी घोषणा की। देश में अब तक इतने बडे प्रमाण में किसी ने भी सेवाकार्य नहीं शुरू किया था। संघ के लिए यह बहुत बडी चुनौती साबित होगी, ऐसा संघ के हितचिंतकों को भी लग रहा था। लेकिन बाळासाहेब जी ने आत्मविश्‍वास के साथ यह घोषणा की और स्वयंसेवकों ने कड़ी मेहनत करके बाळासाहेब जी के विश्‍वास को सार्थक बनाया। आज ‘सेवा भारती’ इस मध्यवर्ती संगठन के द्वारा कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, कच्छ से लेकर असम तक संघ के लगभग एक लाख ७५  हज़ार से भी अधिक सेवाप्रकल्प कार्यरत हैं।

यह कार्य विशाल है, मग़र तब भी इस से संघ संतुष्ट नहीं है। राष्ट्र की समस्याओं को ध्यान में रखते हुए इन से भी अधिक सेवाप्रकल्पों की आवश्यकता है, इस बात का अहसास संघ को है।

(क्रमशः)

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