बाळासाहब की कार्यशैली

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग ४७

बाळासाहब की कार्यशैली बहुत ही अनोखी थी। स्वयंसेवकों को जनता के साथ लगातार संपर्क रखना चाहिए, ऐसा बाळासाहब का आग्रह रहता था। जो संघ की शाखा में नियमित रूप से उपस्थित रहता है, वही संघ का है, ऐसा मानने का कारण नहीं है। बल्कि, संघ की शाखा के चलते, जो कोई चेहरे पर कौतुक का भाव लेकर देख रहे होते हैं, वह भी संघ के ही हैं, ऐसा बाळासाहब का कहना था।

MadhukarDattatraya- बाळासाहब की कार्यशैली

शाखा में न आनेवाले, लेकिन संघ के प्रति मन में आदर और प्रशंसा का भाव रहनेवालों को भी हमारे कार्य में किसी न किसी प्रकार से सहभागी कर लीजिए, ऐसा संदेश बाळासाहब स्वयंसेवकों को देते थे।

आज के ज़माने में संवाद और संपर्क के कई माध्यम हमें उपलब्ध हैं। पचास-साठ साल पहले के हालात बहुत अलग थे। उस समय वृत्तपत्र, साप्ताहिक एवं मासिक पत्रिकाएँ यही माध्यम थे। इन माध्यमों का उपयोग संघकार्य के लिए हों, इसके लिए बाळासाहब ने विशेष रूप में पहल की। संघ की विचारधारा का पुरस्कार करनेवालीं कई मासिक-साप्ताहिक पत्रिकाएँ प्रकाशित हो ही रही थीं, लेकिन दैनंदिन स्तर पर जनता के साथ संवाद करनेवाले ‘वृत्तपत्र’ जैसे प्रभावी माध्यम का भी संघ को उपयोग करना चाहिए, ऐसे बाळासाहब के विचार थे।

वृत्तपत्र चलाना कोई आसान काम नहीं है। उसके लिए बड़े पैमाने पर साधनसंपत्ति की ज़रूरत रहती है। यह बात मान्य करने के बावजूद भी बाळासाहब को वृत्तपत्र की आवश्यकता महसूस हो रही थी। स्वयंसेवकों की गुरुदक्षिणा में से और सहयोग पर ही संघ का सारा कार्य शुरू है। यही स्वयंसेवक वृत्तपत्र का भी भार उठायेंगे, इस बात पर बाळासाहब को भरोसा था। इसीलिए उसके लिए पहल करके गुरुजी के आशीर्वाद से बाळासाहब ने सन १९४९  में ‘तरुण भारत’ इस संघ के वृत्तपत्र की स्थापना की। किसी कार्य या उपक्रम के शुरू करने से पहले बाळासाहब स्वयंसेवकों पर कुछ ज़िम्मेदारियाँ सौंपते थे। ‘हम जो कार्य हाथ में लेनेवाले हैं, उसकी जानकारी लोगों को दीजिए। हमारे इस कार्य के लिए वे क्या सहायता कर सकते हैं, यह जान लीजिए’ ऐसी सूचना बाळासाहेब स्वयंसेवकों को देते थे।

‘तरुण भारत’ की स्थापना से पहले भी बाळासाहब ने, लोगों को उसकी जानकारी देने की और लोगों से हमें किस प्रकार का सहयोग मिल सकता है इसके बारे में टटोलने की सूचनाएँ स्वयंसेवकों को दी थीं। स्वयंसेवकों को समाज से उत्साहवर्धक प्रतिसाद मिला। संघ के साथ ठेंठ रूप में संबंधित न होनेवाले कइयों ने इस वृत्तपत्र के लिए हर संभव सहायता करने का आश्‍वासन दिया। ‘तरुण भारत’ का केवल स्वयंसेवकों ने ही नहीं, बल्कि सारे समाज ने स्वागत किया। उसके पीछे बाळासाहब ने तैयार की हुई यह पार्श्‍वभूमि थी।

स्वयंसेवक समाज में से ही आते हैं। संघ को समाज के साथ दृढ़तापूर्वक जोड़े रखने का काम अन्य किसी से नहीं, बल्कि स्वयंसेवकों द्वारा ही हो सकता है, ऐसी बाळासाहब की धारणा थी। इसीलिए वे हमेशा जनता के साथ संपर्क बनाये रखने की सूचना स्वयंसेवकों को करते थे। बाळासाहब ने ‘युगधर्म’ नाम की हिंदी साप्ताहिक पत्रिका शुरू की। ‘तरुण भारत’ की पुणे आवृत्ति के साथ ‘युगधर्म’ की जबलपुर आवृत्ति भी शुरू हुई थी। जबलपुर के बाद रायपुर में भी ‘युगधर्म’ की आवृत्ति शुरू हुई थी। गाँधीजी की दुर्भागी हत्या के बाद संघ पर लगायी गयी पाबंदी के दौरान ‘पांचजन्य’ नामक साप्ताहिक पत्रिका शुरू हुई। उसके संपादक थे – ‘अटलबिहारी वाजपेयी’जी। उसके साथ ‘आर्गनायझर’ यह अँग्रेज़ी साप्ताहिक पत्रिका शुरू की गयी। इन सबके पीछे बाळासाहब के परिश्रम थे।

भारत के विभिन्न कोने कोने में अलग अलग भाषाओं की दैनिक, साप्ताहिक और मासिक पत्रिकाएँ शुरू होने के कारण, संघ के विचार और कार्य, धेय-नीतियाँ आमजनता तक आसानी से पहुँचने लगीं। संघ पर लगाये गये प्रतिबंध के दौरान ही, ९ जुलाई १९४८ को ज्ञान, चरित्र और एकता इन तत्त्वों पर आधारित रहनेवाली ‘विद्यार्थी?परिषद’ की स्थापना हुई। आज ‘विद्यार्थी परिषद’ यह छात्रों का दुनिया का सबसे बड़ा संगठन है। संघ पर लगायी गयी पाबंदी हटायी जाने के बाद, मज़दूरों के हित की रक्षा कर उद्योगक्षेत्र में सकारात्मक योगदान देनेवाले ‘भारतीय मज़दूर संघ’ की स्थापना की गयी। संघ लगायी गयी पाबंदी के दौरान, संसद में संघ का पक्ष प्रस्तुत करनेवाला कोई भी नहीं था। इसे मद्देनज़र रखते हुए, राजनीतिक क्षेत्र में भी संघ के स्वयंसेवकों को कार्य करना चाहिए, इस विचार से डॉ. श्यामाप्रसादजी मुखर्जी ने जनसंघ की स्थापना की।

डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ये कलकत्ता विश्‍वविद्यालय के कुलगुरू थे। डॉक्टर हेडगेवारजी ने जब बाळासाहब को ‘प्रचारक’ के रूप में बंगाल भेजा था, उस समय कलकत्ता में बाळासाहब का संपर्क डॉ. मुखर्जी से आया था। यहीं से डॉ. मुखर्जी का संघ के साथ संपर्क हुआ। बाळासाहब ने उन्हें संघ के उत्सव के अध्यक्ष के रूप में निमंत्रण दिया था। इससे हम, बाळासाहब ने ‘प्रचारक’ के रूप में किये हुए कार्य की महिमा को समझ सकते हैं। डॉ. मुखर्जी, हिंदुओं के हितों का विचार करनेवाले राजनीतिक पक्ष का निर्माण करना चाहते थे। इसीमें से ‘जनसंघ’ का निर्माण हुआ। सन १९५० में डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की श्रीगुरुजी के साथ तीन-चार बार चर्चा हुई थी।

उसके बाद गुरुजी ने ‘नानाजी देशमुख’, ‘बलराज मधोक’, ‘सुंदरसिंह भंडारी’, ‘जगन्नाथराव जोशी’, ‘लालकृष्ण अडवाणी’ इन्हें डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के हाथ सौप दिया और ‘भारतीय जनसंघ’ की शुरुआत हुई। एक साल के अंदर गुरुजी ने, पंडित दीनदयाळ उपाध्यायजी और अटलबिहारी वाजपेयीजी इन संघ के दो प्रचारकों को जनसंघ के कार्य के लिए नियुक्त किया।

पाबंदी हटायी जाने के बाद अगले चार वर्षों में संघ ने विभिन्न क्षेत्रों में प्रवेश किया। पूजनीय गुरुजी इन सभी उपक्रमों की शुरुआत करने से पहले बाळासाहब से चर्चा कर उनकी राय पूछते थे। बाळासाहब ने अपने आपको संघकार्य में समर्पित किया हुआ होते ही, उन्हें निजी स्तर पर बहुत बड़ा आघात सहना पड़ा। उनकी माता पार्वतीबाई का सन १९४६ मे निधन हो गया। बाळासाहब के छोटे भाई भाऊराव ये उस समय उत्तरप्रदेश में ‘प्रचारक’ के रूप में कार्यरत थे। यहाँ पर ‘संघ शिक्षा वर्ग’ शुरू रहने के कारण भाऊराव माँ के अंतिम दर्शन करने आ नहीं सके। बाळासाहब और भाऊराव पर उनकी माँ का बहुत बड़ा प्रभाव था। माँ ने ही उन्हें संघशाखा में जाने के लिए उत्तेजन दिया था। पिताजी का विरोध रहने के बावजूद भी, माँ के समर्थन के कारण ये दोनों भाई संघ का कार्य करते रहे और आनेवाले समय में दोनों ने भी संघ को ही अपना जीवन समर्पित किया।

बाळासाहब के पिताजी का पहले ही निधन हो चुका था। माँ के जाने के बाद बाळासाहब को एक पारिवारिक ज़िम्मेदारी उठानी पड़ी। ‘देवरस’ घराने की ख़ेती की ज़िम्मेदारी किसी न किसी को तो उठानी ही थी। बाळासाहब ने सन १९५०  से घर के ख़ेती की ज़िम्मेदारी अपने कन्धे पर ले ली। इस दौरान उन्होंने संघ के किसी भी पद का स्वीकार नहीं किया। ‘स्वयंसेवक’ के तौर पर कार्य करते रहकर वे ख़ेती की ओर ध्यान देने लगे। बचपन से ही बाळासाहब को ख़ेती करना पसन्द था। इसीलिए हालाँकि नागपुर में उनका बचपन गुज़रा, फिर भी वे बारंबार ख़ेतज़मीन के स्थान पर जाते थे। दरअसल उस ज़माने में उच्चशिक्षा अर्जित करने के बाद कोई भी ख़ेती की ओर ध्यान नहीं देता था। लेकिन बाळासाहब उसके लिए अपवाद (एक्सेप्शन) साबित हुए। उन्होंने ख़ेती की ओर ध्यान दिया और थोड़े ही समय में ‘प्रगतिशील किसान’ के रूप में विख्यात हुए। कम पानी में अधिक से अधिक फ़सल कैसे उगायें, यह बाळासाहब को अवगत था। वे ख़ेती में विशेषज्ञ थे और उनके इस अनुभव एवं हुनर का फ़ायदा उन्होंने आसपास के किसानों को भी कराके दिया।

ख़ेती से प्राप्त होनेवाली आमदनी बाळासाहब संघकार्य के लिए देते थे। अपने उपर रहनेवालीं पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ निभाते हुए भी संघ का कार्य बेहतरीन रूप में किया जा सकता है, यह बाळासाहब ने इस दौरान सबको दिखा दिया। सन १९५०  से १९६० के बीच बाळासाहब संघ के किसी भी पद पर नहीं थे। फिर भी संघ द्वारा शुरू किये गये सभी उपक्रमों पर बाळासाहब का बारिक़ी से ध्यान रहता था। जब जब गुरुजी को बाळासाहब की आवश्यकता महसूस हुई, उस समय वे वहाँ पर उपस्थित रहते थे।

ख़ेती की सारी व्यवस्था सुचारु रूप में करके सन १९६० से बाळासाहब पुनः संपूर्ण रूप से संघकार्य में सहभागी हुए।

(क्रमशः)

 

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