उदार एवं व्यापक

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग ४१

RSS - Rameshbhai Mehtaसन १९६९ में कर्नाटक के उडिपी शहर में ‘विश्व हिंदु परिषद’ का सम्मेलन आयोजित किया गया था। यह सम्मेलन ऐतिहासिक साबित हुआ। इस सम्मेलन में हिंदु धर्म के सभी पंथों के आचार्य एकत्रित हुए थे और इसमें बहुजन समाज के पीठाधीश भी मंच पर विराजमान थे। सम्मेलन के लिए पूरे कर्नाटक से १५  हज़ार प्रतिनिधि आये थे। इन सबके सामने धर्माचार्यों ने एकमत से -‘अस्पृश्यता को हिन्दु धर्म में स्थान नहीं’ ऐसा निर्णय किया और यह प्रस्ताव पारित हुआ। यह संदेश केवल शाब्दिक नहीं था, बल्कि पेजावर के पूज्य मठाधीश श्री विश्वेश्वर तीर्थस्वामी ने नया मंत्र दिया – ‘हिंदव: सहोदर: सर्वे’। इसका अर्थ, ‘सारे हिंदु एकसमान हैं।’

हज़ारों वर्षों से हिन्दु धर्म में प्रविष्ट हुई विकृति ने हमारे ही धर्म की जनता को विभिन्न कारणों से दूर किया था। जातिपाति-उच्चनीच भेदभाव और कुछ पागलपन जैसी धारणाएँ इनके कारण, हमारे लोगों को दूसरे धर्म में धकेलकर हिंदु धर्मियों ने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली। कुएँ में फेंके पाव (ब्रेड़) के टुकड़े के कारण कई लोग दूसरे धर्म में गये। वैसे ही, अनजाने में किसी मटके का पानी पीने के कारण भी हमने कइयों को धर्म से निकाल बाहर कर दिया। यह करने का अधिकार हमें किसने दिया?

दरअसल हिंदु धर्म का तत्त्वज्ञान इतना व्यापक और उदार है कि उसमें किसी भी प्रकार की संकुचितता को स्थान हो ही नहीं सकता। समय की धारा में प्रविष्ट हुए दोष एवं रूढ़ियाँ यानी हिंदु धर्म नहीं, यह डँटकर कहने की ज़रूरत थी। सन १९६९ का उडिपी का यह सम्मेलन और उससे पहले सन १९६६ में, प्रयाग के कुंभमेले के पावन पर्व पर आयोजित किया गया ‘विश्व हिंदु परिषद’ का सम्मेलन इस दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण साबित हुआ था। सदियों से हिंदु समाज में प्रविष्ट हुए उच्चनीच भेदभाव को दूर करने के लिए धर्माचार्यों ने इन सम्मेलनों में पहल की थी।

उडिपी में हुए सम्मेलन में शंकराचार्य श्री विश्वेश्वर तीर्थस्वामी ने बहुजन बांधव से गले मिलकर, ‘मैं उच्चनीच और जातिपाति भेदभाव नहीं मानता’ यह घोषित किया था। यह दृश्य देखकर श्रीगुरुजी भावविभोर हुए। ‘मुझे यही अपेक्षित था’ ऐसा गुरुजी ने कहा। इस समय हुए अभूतपूर्व ऐसे जयघोष में गुरुजी ने भी अपना स्वर मिलाया था। संघ के ज्येष्ठ प्रचारक श्री. यादवरावजी जोशी भी इस समय उपस्थित थे। यह गुरुजी के जीवन में परमोच्च आनंद का क्षण था, ऐसा यादवरावजी ने कहा था।

एक बार जब कोई हिंदु धर्म से बाहर गया कि फिर उसे पुनः धर्म में प्रवेश मिल नहीं सकता, ऐसी ग़लत धारणा समाज ने बना ली थी। इससे हमारे धर्म की बड़ी हानि हुई। हिंदुओं की संख्या इससे लगातार कम होती गयी और दूसरे धर्म की संख्या बढ़ती गयी। इस ग़लती को सुधारने के लिए प्रयाग के इस ‘विश्व हिंदु परिषद’ सम्मेलन में क्रांतिकारी घोषणा की गयी। ‘हिंदु धर्म में पुनः प्रवेश करना संभव है। किसी भी कारणवश दूसरे धर्म में गये हिंदुओं को पुनः अपने धर्म में प्रवेश करना संभव है। ‘न हिंदू: पतितो भवेत्’ अर्थात् हिंदु यदि अहिंदु भी हो गया, तब भी वह पुनः अपने मूल धर्म में लौट सकता है’, इस तत्त्व का इस सम्मेलन में स्वीकार किया गया।

हिंदु धर्म के विभिन्न पंथाचार्य, मठाधीश अपने आश्रमों एवं मठों से बाहर निकलकर धर्म को चेतना देने का कार्य करें, धर्म का व्यापक स्वरूप समाज के सामने प्रस्तुत करें, ऐसी गुरुजी की अपेक्षा थी। इसलिए वे निरन्तर संतशक्ति से आवाहन करते थे। उनके आवाहन को बहुत बड़ा प्रतिसाद मिला और उससे निर्माण हुई धार्मिक चेतना में से कई सकारात्मक बातें हुई हैं। विश्व हिंदु परिषद के प्रयाग एवं उडिपी में संपन्न हुए इन सम्मेलनों में लिये गये ये क्रांतिकारी निर्णय, यह गुरुजी के इन्हीं परिश्रमों का फलित  था।

गुरुजी देशभर में प्रवास करते रहते थे। उस समय संपर्क के आज जैसे माध्यम उपलब्ध नहीं थे। इसी कारण पत्रव्यवहार को बहुत बड़ा महत्त्व था। गुरुजी ने अपने जीवन भर में इतना बड़ा पत्रव्यवहार किया है कि उसे दर्ज़ करना भी मुश्किल होगा। देश के कोने कोने से लेकर, विदेश में कार्यरत रहनेवाले संघ के स्वयंसेवकों को एवं देशभर के धर्माचार्यों को गुरुजी निरन्तर पत्र लिखकर उनके साथ संपर्क बनाये रखते थे। ये पत्र गुरुजी स्वयं लिखते थे। कभीकभार वे अपने निजी सहायक डॉ. आबाजी थत्ते के हाथों पत्रव्यवहार करते थे। डॉ. आबाजी थत्ते का सहवास मुझे प्राप्त हुआ है। इसलिए आबाजी संघ के प्रचारक कैसे बने, इसकी कहानी मुझे ज्ञात है।

आबाजी के मातापिता उनके बचपन में ही गुज़र गये। उनके बड़े भाई और भाभीजी ने आबाजी की, अपनी सन्तान की तरह परवरिश की।

‘मैं आबाजी को अपनी सन्तान की तरह पालूँगी’ ऐसा भाभीजी ने अपनी सास के आख़िरी समय में उसे वचन दिया था। इस कारण भाभीजी तो आबाजी के लिए मानो ‘माँ’ ही थीं। आबाजी ने अच्छी शिक्षा हासिल की और वे डॉक्टर बन गये। शिक्षा के दौरान ही वे संघ की शिवाजी पार्क शाखा में जाने लगे। आगे चलकर, अपना सारा जीवन संघ के लिए समर्पित करने की इच्छा आबाजी के मन में उत्पन्न हुई। लेकिन संघ का आजीवन प्रचारक होने की उनकी इच्छा भाभीजी को हरगिज़ पसन्द नहीं थी।

‘आबाजी का ब्याह करा दूँ, उनकी अच्छीख़ासी गृहस्थी बसें’ ऐसा भाभीजी को लगता था। इसलिए वे कोशिश कर रही थीं। भाभीजी का दिल तोड़ना आबाजी के लिए मुमक़िन नहीं था। अब क्या करें, यह बड़ी समस्या ही थी। श्रीगुरुजी ने इस समस्या को अलग ही ढंग से सुलझाया। आबाजी उलझन में फंस गये हैं, इस बात का पता चलते ही गुरुजी शिवाजी पार्क स्थित उनके घर आये। भाभीजी ने गुरुजी का मनःपूर्वक स्वागत किया। आदरातिथ्य के बाद गुरुजी ने भाभीजी से आबाजी की बात छेड़ी। ‘मैं देशभ्रमण करता रहता हूँ। मेरी सहायता के लिये यदि आबा मेरे साथ आया, तो कितना अच्छा होगा’ ऐसा गुरुजी ने कहा। ‘कितने दिनों के लिए?’ ऐसा भाभीजी ने पूछा। गुरुजी ने बोल दिया, ‘हमेशा के लिए’।

यह सुनने के बाद भाभीजी के तो पैरोंतले की जमीन ही खिसक गयी। उन्होंने गुरुजी को स्पष्ट शब्दों में ‘ना’ कह दिया। ‘मुझे आबा की शादी करानी है, उसकी गृहस्थी देखनी है’ यह भाभीजी की बात सुनकर गुरुजी शांति से बात करने लगे – ‘अच्छा खयाल है। शादी तो मुझे भी करनी है। मैं आबा से बड़ा हूँ कि नहीं? फिर पहले शादी बड़े भाई की होगी या छोटे भाई की?’ स्वाभाविक  रूप में, बड़े भाई की शादी ही पहले होगी, यह बात भाभीजी को मंज़ूर करनी ही पड़ी। गुरुजी ने कहा, ‘ठीक है फिर, पहले मैं शादी करूँगा और फिर आबा। लेकिन शादी होने तक तो मैं आबा को ले जा सकता हूँ कि नहीं?’ बेचारी भाभीजी को गुरुजी की बात माननी ही पड़ी। इस प्रकार आबाजी आजीवन प्रचारक बन गये।

गुरुजी की शादी होने का सवाल ही पैदा नहीं हो सकता था। इस कारण आबाजी की शादी का भी सवाल नहीं आ रहा था। यह कहानी मुझे स्वयं आबाजी ने बतायी है। यह कहानी उन्हींके शिवाजी पार्क स्थित घर में मुझे आबाजी ने सुनायी थी। उस समय आबाजी के बड़े भाई और भाभीजी भी उपस्थित थीं। यह सुनते समय उनसे भी हँसी रोकी नहीं जा रही थी। डॉ. आबाजी थत्ते ने अपना सारा जीवन संघ को समर्पित किया था। गुरुजी के बाद ‘सरसंघचालक’ बने श्री. बाळासाहब देवरस के भी निजी सचिव के तौर पर आबाजी थत्ते ने काम किया था।

गुरुजी अपने मातापिता की आठ संतानों में से जीवित बची हुई एक ही संतान थे। स्वाभाविक तौर पर गुरुजी के मातापिता की उनसे बहुत ही अलग अपेक्षाएँ थीं। लेकिन गुरुजी ने अध्यात्म के लिए जीवन समर्पित करने का निर्णय लिया। डॉक्टर हेडगेवार के संपर्क में आने के बाद, ‘संघकार्य के द्वारा समाज और राष्ट्र की सेवा करना’ यही गुरुजी का अध्यात्म बना। स्वाभाविक तौर पर, इसके लिए अपना सारा जीवन समर्पित करनेवाले गुरुजी ने स्वयंसेवकों को किये हुए आवाहन को बहुत बड़ा नैतिक अधिष्ठान था। अपने उदाहरण के ज़रिये ‘सरसंघचालक’ को स्वयंसेवकों के सामने आदर्श रखना होगा, ऐसा गुरुजी का मानना था। ज़ाहिर है, उन्हें देखकर उनके जैसा समर्पित जीवन जीने की कइयों की इच्छा होती थी। अपने स्वास्थ्य का खयाल न रखते हुए गुरुजी अन्त तक संघकार्य के लिए अविश्रांत प्रवास करते ही रहे। इस संदर्भ में घटित एक घटना मैं बताना चाहता हूँ।

गुरुजी का स्वास्थ्य ठीक नहीं था। उन्हें विश्राम की आवश्यकता थी। लेकिन गुरुजी का प्रवास तय हो चुका था। उसे रद करने के लिए गुरुजी तैयार नहीं थे। ‘स्वयंसेवक मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे, मैं उन्हें कैसे निराश कर सकता हूँ?’ यह कहकर गुरुजी ने प्रवास की तैयारी की। आबाजी ने विरोध करके देखा, लेकिन गुरुजी ने एक नहीं सुनी। आख़िरकार आबाजी ने, उस समय ‘सरकार्यवाह’ रहनेवाले बाळासाहब देवरस को यह सारी परिस्थिति बयान की।

‘सरकार्यवाह’ यानी संघ का बहुत ही महत्त्वपूर्ण पद। ‘सरसंघचालक’ भी ‘सरकार्यवाह’ द्वारा किये गए सुझावों पर गंभीरतापूर्वक विचार करते हैं। बाळासाहब देवरस गुरुजी से मिले और यह प्रवास रद करने की विनति उन्होंने गुरुजी से की। गुरुजी ने उसे अनदेखा कर दिया। यह देखकर बाळासाहब एकदम दृढ़ स्वर में बोलने लगे, ‘मैं ‘सरकार्यवाह’ बाळ देवरस! आपसे कहता हूँ कि आप यह प्रवास न करते हुए डॉक्टर की सूचना के अनुसार विश्राम करें। आपकी प्रतीक्षा करनेवाले स्वयंसेवकों तक सूचना पहुँचायी जायेगी।’

यह सुनकर गुरुजी हँसने लगे। ‘सरकार्यवाह की सूचना का विरोध करके प्रवास करने की मुझमें हिम्मत नहीं है’ ऐसा कहकर गुरुजी ने बाळासाहब की विनति का मान रखा। इससे गुरुजी का व्यक्तित्व तो स्पष्ट होता ही है; साथ ही, संघ का नेतृत्व कितने प्रेम से एक-दूसरे के साथ जुड़ा हुआ है, यह भी इससे दिखायी देता है। इसी वजह से पिछले नौं दशकों से संघ का विस्तार होता गया और इसके आगे भी संघ का विकास होता ही रहेगा।

(क्रमश:)

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