संगठनशास्त्र का विज्ञान

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग ४०

pg12_RSS-flag‘शारदापीठ’ के ‘शंकराचार्य’ का देहान्त हो गया और उनका स्थान रिक्त हो गया। यह स्थान अब कौन विभूषित करेगा, इसपर विचारविनिमय शुरू हुआ। उस समय द्वारकापीठ के शंकराचार्य ‘अभिनव सच्चितानंदजी’ ने श्रीगुरुजी के सामने प्रस्ताव रखा। ‘शारदापीठ के ‘शंकराचार्य’पद का स्वीकार करने के लिए गुरुजी जैसा अन्य सुयोग्य व्यक्ति नहीं मिलेगा। इस कारण गुरुजी इस स्थान का स्वीकार करें’ ऐसा आग्रह शंकराचार्य अभिनव सच्चितानंदजी ने किया। अन्य संतमहंतों का भी यही मत था। इसे गुरुजी ने दिया हुआ उत्तर उनके व्यक्तित्त्व को शोभा देनेवाला ही था।

गुरुजी ने शंकराचार्य अभिनव सच्चितानंदजी को उत्तर भेजा, ‘‘जगत्गुरु! आपकी आज्ञा मुझे शिरोधार्य है। लेकिन इससे भी पहले मैंने एक महान कार्य की ज़िम्मेदारी अपने सिर पर ले रखी है। ‘संघ की शाखा’ यह मेरे जीवन की श्रद्धा है। ‘शंकराचार्य’ के स्थान का स्वीकार करके भी जितनी सेवा मैं कर नहीं सकता, उतनी सेवा मैं संघ की शाखा के माध्यम से कर सकता हूँ। आप मुझे उदार अंत:करण से क्षमा करेंगे, ऐसी उम्मीद है। समाज और राष्ट्र का निर्माण करने के कार्य को मैंने अपने आपको समर्पित किया है। इस कार्य को आप जैसे संतों की शक्ति के आशीर्वाद की ज़रूरत है। मैं हमेशा आपसे मार्गदर्शन प्राप्त करता आया हूँ। इससे आगे भी आपके आशीर्वाद एवं मार्गदर्शन का मुझे लाभ होता रहें, ऐसी मेरी आपसे प्रार्थना है।’’

गुरुजी द्वारा दिये गये विनम्र इनकार से यही स्पष्ट होता है कि वे समाज और देश के बारे में कितने तहे दिल से विचार करते थे। गुरुजी शंकराचार्य का, संतमहंतों का बहुत ही आदर करते थे। उनसे मिलने का अवसर यदि गुरुजी को मिल जाता था, तो गुरुजी यक़ीनन ही उसका लाभ उठाते थे। एक बार तमिलनाडू की यात्रा पर रहते हुए, गुरुजी ने कांचीकामकोटी पीठ के ‘शंकराचार्य’ श्री चंद्रशेखरसरस्वतीजी के दर्शन करने की इच्छा ज़ाहिर की। ‘गुरुजी उनकी सुविधा के अनुसार कभी भी यहाँ पर आ सकते हैं, मैं उनसे मिलूँगा’ ऐसा सन्देश शंकराचार्य चंद्रशेखर सरस्वतीजी ने भेजा। उसके अनुसार गुरुजी कामकोटी के शंकरमठ में आए।

शंकराचार्यजी उस समय उनके पूजागृह में आसन पर बैठकर अर्चना कर रहे थे। इस मठ का एक नियम था। एक बार जब अर्चना शुरू हो जाती थी, तब इस स्थान पर किसी को भी प्रवेश नहीं मिलता था, यहाँ तक कि शंकराचार्य के शिष्य को भी। अर्चना शुरू होने के बाद प्रवेश न देने के नियम का यहाँ पर बारिक़ी से पालन होता था। लेकिन जब चंद्रशेखर सरस्वतीजी को यह पता चला कि गुरुजी का आगमन हुआ है, तब उन्होंने गुरुजी को पूजागृह में बुलाया। इतना ही नहीं, बल्कि अपने पास बिठाकर अर्चना शुरू की। अर्चना ख़त्म होने के बाद गुरुजी वहाँ से जाने निकले, तब चंद्रशेखर सरस्वतीजी के ही एक शिष्य ने इस बारे में प्रश्‍न उपस्थित किया।

‘अर्चना शुरू होने के बाद आप किसी को भी यहाँ आने नहीं देते। फिर इन्हें यहाँ कैसे प्रवेश प्राप्त हुआ?’ ऐसा प्रश्‍न इस शिष्य ने किया। शंकराचार्य चंद्रशेखर सरस्वतीजी ने अपने शिष्य को उत्तर दिया, ‘श्रीगुरुजी ‘चंद्रमौलीश्‍वर’ स्वरूप हैं। उनके यहाँ पधारने से हम सभी धन्य हो गये हैं। संस्कार और ज्ञान में वे मुझसे ज़रा भी कम नहीं हैं। उन्होंने बहुत बड़े कार्य का संकल्प किया है।’ यह कहकर शंकराचार्यजी ने, ‘समाज और राष्ट्र के निर्माण का कार्य सर्वश्रेष्ठ है’ यह बात अपने शिष्य के मन पर अंकित की। उनके इस उत्तर से शिष्य का समाधान हो गया।

उसके बाद गुरुजी म्हैसूर के रामकृष्ण मिशन के विद्यामंदिर में गये। यहाँ पर स्वामी अमिताभ महाराज ने गुरुजी के स्वागतपर प्रवचन किया, ‘‘श्रीगुरुजी ने कठोर परिश्रम और धैर्य के साथ सारागाछी आश्रम में स्थिर रहकर कठिन साधना की थी। उस समय मुझे प्राप्त हुई उनकी सन्निधता से मैं इतना ही अवश्य कह सकता हूँ कि ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ ने अपने नेता के रूप में ‘नरेंद्र’ को ही प्राप्त किया है।’’ इस प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र के अधिकारी व्यक्ति पूजनीय गुरुजी की ओर बड़े आदर के साथ देखते थे। गुरुजी हर संतमहंत का मनःपूर्वक आदर करते थे। गुरुजी की प्रवृत्ति भी आध्यात्मिक ही थी। लेकिन डॉक्टर हेडगेवार ने गुरुजी को बड़ी ख़ूबी के साथ संघकार्य में समा लिया और संघकार्य की ज़िम्मेदारी उनके कन्धे पर सौंपी थी।

गुरुजी के पास संघ के नेतृत्व की बागड़ोर आ जाने के बाद चार-पाँच सालों में ही एक स्वयंसेवक ने यह प्रस्ताव उनके सामने रखा कि ‘संघ अपनी कार्यशैली को बदलें’। यह प्रस्ताव उन्होंने ठेंठ ‘सरसंघचालक’ रहनेवाले गुरुजी के सामने रखा। गुरुजी की एक ख़ासियत थी। वे हर किसी की बात शान्तिपूर्वक सुन लेते थे। ‘संघ ने यदि अपनी कार्यशैली नहीं बदली, तो संघ नामशेष हो जायेगा’, ऐसा इस स्वयंसेवक ने गुरुजी से कहा। उसकी बात सुनकर गुरुजी ने उसे जवाब भी दिया। ‘डॉक्टरसाहब ने गहराई से चिंतन करके ही संघ की कार्यशैली की रूपरेखा बनायी है। इस कार्यशैली को बदलने की कतई आवश्यकता नहीं है। संघ यदि इस कारण नामशेष भी हुआ, तो भी चिंता का कोई कारण नहीं है। मैं नये सिरे से शुरू करके संघ का पुनर्निर्माण करूँगा। लेकिन ऐसा हरगिज़ नहीं होगा। संघ का विस्तार तो होकर ही रहेगा’ यह कहकर गुरुजी ने स्वयंसेवक की शंका का समाधान किया।

संघ के विस्तार हेतु विभिन्न योजनाएँ गुरुजी के सामने निरन्तर प्रस्तुत की जाती थीं। यह सबकुछ गुरुजी ग़ौर से सुनते थे। लेकिन इस मामले में उनके विचार बिलकुल सुस्पष्ट थे। संघ का प्राण यानी शाखा। हर एक स्वयंसेवक को चाहिए कि वह नियमित रूप में शाखा में जायें। शाखा के माध्यम से समाज के साथ संपर्क बढ़ाना चाहिए। इससे संघ की व्यापकता बढ़ती जायेगी, ऐसा गुरुजी का दृढ़ विश्‍वास था।

सन १९४६ के फ़रवरी महीने में गुरुजी का कोलकाता का प्रवास शुरू हुआ था। यहाँ के प्रतिष्ठित नागरिकों के साथ गुरुजी की एक बैठक आयोजित की गयी थी। गुरुजी ने संघ की ध्येय-नीतियाँ और लक्ष्यों की जानकारी इस बैठक में दी। उसे सुनकर सभी उपस्थित प्रभावित हुए। उपस्थितों में आये हुए एक प्रौढ डॉक्टर गुरुजी से बात करने लगे। ‘आपका ध्येय बिलकुल उदात्त है, इसमें कोई सन्देह ही नहीं है। लेकिन शाखा में जाकर ‘दक्ष-आराम-दंड-कबड्डी’ करने से यह उदात्त ध्येय भला कैसे साध्य होगा?’ ऐसा सवाल इन डॉक्टर ने पूछा।

‘आपके वैद्यकशास्त्र में सबसे ‘मास्टर ड्रग’ कौनसा है?’ ऐसा प्रश्‍न गुरुजी ने उनसे पूछा। डॉक्टर ने जवाब दिया- ‘पेनिसिलिन’। ‘यह पेनिसिलिन बनता किससे है?’ गुरुजी ने अगला सवाल किया। ‘सड़े हुए अन्नपदार्थ से, दुर्गंधि से भरा हुआ होता है’ डॉक्टर ने जवाब दिया। उसपर गुरुजी ने कहा, ‘इसका अर्थ, सुयोग्य व्यक्ति के हाथ आने पर ख़राब चीज़ का भी सदुपयोग होता है। यही संगठनशास्त्र का विज्ञान है और हम इसी विज्ञान में माहिर हैं।’ सीधीसादी प्रतीत होनेवाली बातों से बहुत बड़े कार्य संपन्न होते हैं, यह बात गुरुजी ने सप्रमाण डॉक्टर के गले उतारी थी।

‘स्वयंसेवक’ के लिए एक घण्टे की शाखा और शेष २३  घण्टों के लिए चिंतन, यानी कि संघकार्य। एक घण्टे में शाखा में प्राप्त होनेवाले संस्कारों का दिनभर में सदुपयोग करने के प्रयास करना, यही संघकार्य का सार है। ‘मैं’ नहीं, बल्कि ‘हम’ कहना सीखो, यह स्वयंसेवकों को गुरुजी की सीख थी। ‘सरसंघचालक’ होते हुए भी गुरुजी अपने आपको सर्वप्रथम स्वयंसेवक ही मानते थे और स्वयंसेवक के सारे कर्तव्यों का गुरुजी स्वयं पालन करते थे। ‘सरसंघचालक’ को चाहिए कि वे अपने आचरण के द्वारा स्वयंसेवकों के सामने आदर्श रखें, ऐसा गुरुजी का नियम था।
(क्रमश:)

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