अशोकजी सिंघल

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग ३९

ashok-singhal

जब भी विश्‍व हिंदु परिषद के कार्य का ज़िक्र होता है, तब ‘अशोकजी सिंघल’ आँखों के सामने आ जाते हैं। ‘विश्‍व हिंदु परिषद’ का कार्य देशविदेश में जोरों-शोरों से आगे बढ़ रहा था। ऐसी परिस्थिति में सन १९८२ में अशोकजी पर विश्‍व हिंदु परिषद की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी। उससे पहले वे संघ के प्रचारक के तौर पर कार्यरत थे। अशोकजी का जन्म २७ सितम्बर १९२६ को आग्रा में हुआ। सात संतानों में अशोकजी चौथी संतान थे। अशोकजी का परिवार मूलतः उत्तर प्रदेश के अलीगडस्थित बिजोली गाँव से था। उनके पिताजी महावीरसिंह सिंघल शासकीय नौकरी में उच्चपद पर कार्यरत थे। लक्ष्मी के साथ साथ सरस्वती का भी वरदान प्राप्त रहनेवाले इस घर में संपन्नता और शिक्षा की विरासत चलती आयी थी।

अशोकजी के मातापिता अपने घर में हमेशा ही संन्यासियों तथा साधुसन्तों का स्वागत किया करते थे। इस कारण इस घर में धार्मिक माहौल था। ऐसे वातावरण में पले-बढ़े अशोकजी को सन १९४२  में, उनकी छात्रावस्था में ही रज्जूभैय्या ने संघ का स्वयंसेवक बनाया। रज्जूभैय्या और अशोकजी के परिवार के घनिष्ठ संबंध थे। रज्जूभैय्या ने एक बार संघ की प्रार्थना, अशोकजी की माँ विद्यावतीजी को सुनायी थी। उस प्रार्थना को सुनकर विद्यावतीजी इतनी प्रभावित हुईं कि उन्होंने अशोकजी को संघकार्य करने के लिए प्रोत्साहित किया और इस प्रकार अशोकजी का संघजीवन शुरू हुआ।

अशोकजी को संगीत की उत्तम जानकारी थी। उन्होंने शास्त्रीय संगीत सीखा था। वे खुद बहुत अच्छे गाते भी थे। इसीलिए उन्होंने अपनी महाविद्यालयीन शिक्षा की अवधि में देशभक्तिपर गीत रचे और उन्हें संगीतबद्ध भी किया। उनके गीतों से युवक अत्यधिक प्रभावित होते थे। बनारस हिंदु विश्‍वविद्यालय से ‘धातुविज्ञान’ इस विषय में अशोकजी ने इंजिनिअरिंग की डिग्री अर्जित की।

सन १९४७ में भारत को आज़ादी मिली और देश का बँटवारा भी हो गया। उस समय हज़ारों स्वयंसेवक, देश के बँटवारे को लेकर व्यथित हुए थे। उनमें से एक अशोकजी भी थे। इसी दौर में अशोकजी ने, अपना सारा जीवन संघकार्य और राष्ट्र के लिए समर्पित करने का निर्णय लिया। सन १९५० में अशोकजी संघ के पूर्णसमय प्रचारक के रूप में कार्य करने लगे। शुरुआती दौर में गोरखपुर, प्रयाग, सहारनपुर और कानपुर इन स्थानों के कार्य की ज़िम्मेदारी अशोकजी को सौंपी गयी थी। सरसंघचालक श्रीगुरुजी और अशोकजी के बीच बहुत ही आत्मीयतापूर्ण संबंध थे।

वेदों के प्रकांडपंडित रहनेवाले, कानपुर के रामचंद्र तिवारीजी के संपर्क में अशोकजी आये। ‘श्रीगुरुजी और रामचंद्र तिवारीजी इन दोनों का मेरे जीवन पर सर्वाधिक प्रभाव है’ ऐसा अशोकजी हमेशा कहते थे।

ईमर्जन्सी (आपात्-स्थिति का दौर) के पश्‍चात् दिल्ली और हरियाणा के प्रांतप्रचारक के तौर पर अशोकजी कार्य करने लगे। सन १९८२ में विश्‍व हिंदु परिषद के ‘संयुक्त महामंत्री’पद का दायित्व अशोकजी को सौंपा गया। राष्ट्रीय एकात्मता रथयात्रा, श्री रामजानकी रथयात्रा, संस्कृति रक्षानिधि और श्रीरामजन्मभूमि-मुक्ति-आंदोलन, इनके कारण केवल भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनियाभर में बड़े पैमाने पर जनजागृति हुई। इससे ‘विश्‍व हिंदु परिषद’ का नाम दुनियाभर में विख्यात हो गया। उसके पश्‍चात् के समय में गोरक्षा, गंगारक्षा, परावर्तन, बजरंग दल, संस्कृत संवर्धन, एकल विद्यालय इन, विश्‍व हिंदु परिषद ने शुरू किये हुए सेवाकार्यो एवं उपक्रमों ने बड़ी तेज़ रफ़्तार पकड़ ली। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण साबित हुआ, वह श्रीरामजन्मभूमि आन्दोलन! इस आन्दोलन ने देश का सामाजिक और राजनीतिक रूख़ ही बदल दिया।

अशोकजी पहले विश्‍व हिंदु परिषद में ‘संयुक्त महामंत्री’ बने। उसके बाद ‘महामंत्री’पद एवं ‘कार्याध्यक्ष’पद की ज़िम्मेदारी अशोकजी पर सौंपी गयी। सन २००५  में अशोकजी विश्‍व हिंदु परिषद के ‘अध्यक्ष’ बने। सन २०११ के बाद अशोकजी अपनी बढ़ती उम्र के लिहाज़ से, उनपर सौंपी हुई ज़िम्मेदारी से मुक्त हो गये। लेकिन उनका कार्य नहीं रुका। स्वतन्त्र रूप से वे कार्यकर्ताओं को मार्गदर्शन कर ही रहे थे। संतमहंतों से चर्चाएँ करते हुए, धार्मिक चेतना और समाजसेवा के लिए अशोकजी आख़िर तक परिश्रम करते रहे।

‘संतमहंतों की धर्मशक्ति मठ-मंदिरों तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिए। समाज के विकास के लिए धर्म की इस शक्ति का सदुपयोग होना ही चाहिए’ ऐसा अशोकजी का आग्रह था। उसके लिए उन्होंने संतमहंतों से आवाहन किया। इस कारण विश्‍व हिंदु परिषद के जनआंदोलन में कई संतमहंत सम्मिलित हो गये और यह जनआंदोलन व्यापक, सर्वसमावेशक बना। अशोकजी का व्यक्तित्त्व गगनस्पर्शी था। उनकी वाणि अमोघ थी। इसलिए युवाशक्ति पर अशोकजी का बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा। इसीलिए रामजन्मभूमि के आंदोलन को, आम जनता से और ख़ासकर युवाशक्ति से उत्स्फूर्त प्रतिसाद मिला और उसके आगे का इतिहास तो सभी को ज्ञात है।

रामजन्मभूमि आंदोलन और सन १९९२  में घटित घटनाओं का ज़िक्र, उस समय की दुनियाभर की प्रमुख घटनाओं में किया गया और सारी दुनिया ने उसपर ग़ौर किया। अशोकजी ने कई देशों में यात्रा की। उनके साथ प्रवास करने का सौभाग्य मुझे मिला है। सन १९९८ में नैरोबी में हुई ‘ऑल अफ्रीका हिंदु कॉन्फरेंस’ में अशोकजी सम्मिलित हुए थे। उस समय मैं उनके साथ था। अशोकजी ने ही मुझपर विश्‍व हिंदु परिषद के ‘विश्‍व विभाग’ की ज़िम्मेदारी सौंपी थी। इस कारण, कार्य हेतु मेरा कई देशों में प्रवास हुआ। अशोकजी के मार्गदर्शन और आग्रह की बदौलत ही ‘ऑल अफ्रीका हिंदु कौन्सिल’ की स्थापना हुई थी।

सारा जीवन देश और धर्म के लिए ही खर्च करनेवालें अशोकजी ने, अपने स्वास्थ्य की परवाह न करते हुए आख़िर तक कार्य शुरू ही रखा था। निधन होने के तीन महीने पूर्व अशोकजी हॉलंड़, इंग्लैंड़, अमरीका के दौरे पर जाकर आये थे। शरीर हालाँकि थका हुआ था, मग़र फिर भी अशोकजी ने इस दौरे में वहाँ के कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ाने में कोई कसर बाक़ी नहीं छोड़ी।

गत वर्ष के नवम्बर महीने में अशोकजी की तबियत अधिक ही बिगड़ गयी। १० नवम्बर को नयी दिल्ली के ‘वेदांता हॉस्पिटल’ में अशोकजी को भर्ती कराया गया। ऐसी स्थिति में भी अशोकजी ने, उनसे मिलने आये सरसंघचालक श्री. मोहनरावजी भागवत से विचारों का आदानप्रदान किया। आख़िरी पल तक अशोकजी राष्ट्र और धर्म का ही विचार करते रहे। अशोकजी का जन्म किसी राजकुमार की तरह, संपन्न, सुविद्य परिवार में हुआ था। कर्म से वे योगी थे और उनके जीवन का अंत किसी संन्यासी की तरह ही हुआ।
१७ नवम्बर २०१५  को अशोकजी ने इहलोक से विदा ली। उस समय अशोकजी की आयु ८९ वर्ष की थी और ‘शायद उतने ही घंटे उन्होंने जीवन में आराम किया होगा’, ऐसा मैंने कहीं तो पढ़ा था। मैंने वह पूरी तरह मान लिया। क्योंकि अशोकजी को आराम करते हुए देखना, यह बिलकुल दुर्लभ ही दृश्य था।

‘परमपूज्य श्रीगुरुजी कह गये हैं कि आराम का स्थान चिता ही होता है’ ऐसा अशोकजी ने ही एक बार बताया था। राममंदिर का निर्माण पूरा होना, यही इस महान व्यक्तित्त्व को अर्पित की गयी वास्तविक श्रद्धांजली साबित होगी।
(क्रमश:)

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