विवेकानंद केंद्र

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग ३१

pg12_SHriGuruji2सन १९५६  में श्रीगुरुजी का ५१वाँ जन्मदिन था। गुरुजी ने संघ की बागड़ोर सँभाले हुए १६ वर्ष बीत चुके थे। इन १६ वर्ष की अवधि में गुरुजी के नेतृत्व में संघ ने जो कुछ भी प्रगति की, उसे ‘अद्भुत’ ही कहना होगा। इस दौरान संघ के सामने कई कठिन चुनौतियाँ खड़ी हुईं। लेकिन संघ की प्रगति पर उसका असर नहीं हुआ। उल्टा, संघ अधिक ही सशक्त होकर निखर आया। अलग अलग क्षेत्रों में विभिन्न संगठनों के ज़रिये संघ का कार्य अधिक ही व्यापक बनता गया। यह सबकुछ गुरुजी के मार्गदर्शन में हुआ और स्वयंसेवकों को इसका भली-भाँति एहसास था। इसीलिए गुरुजी के इस ५१वें जन्मदिन पर उनका सम्मान करने का स्वयंसेवकों ने तय किया। लेकिन गुरुजी इसके लिए हरगिज़ तैयार नहीं थे। कर्तव्य और कार्य इनसे परे जाकर अपने स्वयं के मानसम्मान का विचार गुरुजी कर ही नहीं सकते थे। लेकिन स्वयंसेवकों की भावना का अनादर न हों, इसलिए उन्हें इस कार्यक्रम को स्वीकृति देनी ही पड़ी।

लेकिन इस कार्यक्रम को मान्यता देते हुए भी गुरुजी ने, ‘इस कार्यक्रम का उपयोग संघ की ध्येय-नीतियाँ अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचने के लिए किया जाये’ ऐसा आग्रहपूर्वक कहा। इस समारोह के ज़रिये जो कुछ भी निधि संकलित होगी, उसका संघकार्य के लिए ही विनियोग किया जायें, ऐसा गुरुजी का कहना था। उसके अनुसार, गुरुजी के ५१वें जन्मदिन के उपलक्ष्य में देशभर में १९ जनवरी १९५६  से लेकर ५१ दिनों का कार्यक्रम मनाने का संघ ने तय किया। इस उपलक्ष्य में, गुरुजी के जीवन पर, संघकार्य की जानकारी देनेवाला साहित्य बड़े पैमाने पर प्रकाशित किया गया। इस कार्यक्रम के ज़रिये तक़रीबन २० लाख रुपये से भी अधिक निधि उस ज़माने में संकलित हुई थी। यह रक़म स्वयंसेवक और समाज ने स्वखुशी से दी थी। उस ज़माने में सोने का भाव ९०  रुपये तोला था, इससे अँदाजा हो सकता है कि आज के ज़माने में यह रक़म कितनी होगी। स्वयंसेवक गुरुजी से कितना प्रेम करते थे और समाज गुरुजी का कितना आदर करता था, यह बात इससे स्पष्ट होती है।

विजया एकादशी के दिन श्रीगुरुजी के घर धार्मिक अनुष्ठान संपन्न हुआ। पूजाअर्चना, होमहवन आदि विधि पूर्ण हुए। गुरुजी के जन्मदिन के उपलक्ष्य में मनाया गया यह समारोह देखने के लिए उनके पिताजी जीवित नहीं थे, लेकिन उनकी माँ थीं। उस दिन शाम को रेशमबागस्थित डॉक्टर हेडगेवार की समाधि पर पुष्पवृष्टि की गयी। गुरुजी का पहला सार्वजनिक सत्कार समारोह 8 मार्च को नागपुर में संपन्न हुआ और इस मालिका का आख़िरी समारोह ८ अप्रैल को दिल्ली में संपन्न हुआ। नागपुर के समारोह का अध्यक्षस्थान इतिहासकार डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी ने विभूषित किया; वहीं, दिल्ली को समारोह का अध्यक्षस्थान पाकिस्तान में पूर्व भारतीय राजदूत रह चुके डॉ. सीताराम ने विभूषित किया था।

इस प्रकार पूजनीय गुरुजी के ५१वें जन्मदिन के उपलक्ष्य में देशभर में कार्यक्रम किये गये और उनमें से स्वयंसेवक एवं समाज को एक अलग ही चेतना मिली। गुरुजी समय समय पर जो अपने राष्ट्रीय महापुरुषों का स्मरण करते थे, उससे उन्हें बहुत बड़ी प्रेरणा मिलती थी। इस भारतवर्ष का मूलाधार यानी अध्यात्म। भारत के आध्यात्मिक पुनरुत्थान की आधारशिला जिन्होंने रखी, उन स्वामी विवेकानंदजी की जन्मशताब्दि सन १९६३ में थी। इस जन्मशताब्दि के उपलक्ष्य में देशभर में गुरुजी ने व्याख्यान किये थे। इसी वर्ष में गुरुजी ने एक महत्त्वपूर्ण फैसला किया। देश को अपने आध्यात्मिक संपन्नता का एहसास करा देनेवाले इस महान कर्मयोगी के यथोचित स्मारक का निर्माण करने का निर्णय गुरुजी ने लिया। संघ के ज्येष्ठ स्वयंसेवकों की बैठक गुरुजी ने नागपुर में बुलायी। उस समय एकनाथजी रानडे सरकार्यवाह थे। एकनाथजी आध्यात्मिक स्वभाव के थे। उन्हें सरकार्यवाहपद की ज़िम्मेदारी से मुक्त करके उनपर ‘विवेकानंद शिला स्मारक समिति’ की स्थापना की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी।

सन १८९२ में, कन्याकुमारी में जहाँ पर तीन सागरों का मिलन होता है, उस पत्थर तक विवेकानंदजी तैरते हुए गये थे। उस स्थान में वे तीन दिनों तक अहोरात्र ध्यानस्थ थे। इस स्थान पर, भारतमाता के उत्थान के लिए पूरी दुनिया में प्रचार करने का ईश्वरीय साक्षात्कार विवेकानंदजी को हुआ था। इसी स्थान पर विवेकानंदजी के भव्य स्मारक का निर्माण करने का निर्णय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने लिया। ‘विवेकानंद शिला स्मारक समिति’ ने केरळ के विख्यात नेता मन्मथ पद्मनाभन्जी को अध्यक्षपद विभूषित करने के लिए निमंत्रित किया। श्री. एकनाथजी रानडे इस समिति के कार्यवाह बने। इस स्मारक का निर्माण करने के लिए और विवेकानंदजी के विचारों का प्रसार करने के लिए एकनाथजी रानडे ने अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया। सन १९७० में विवेकानंदजी के बहुत ही सुन्दर ऐसे स्मारक का एवं भव्य भव्य मंदिर का निर्माण इस स्थान में हुआ। आज भारत के महान तीर्थक्षेत्रों में इस स्थान का नाम लिया जाता है। लाखों की तादात में भाविक यहाँ पर आते हैं। एकनाथजी ने इस कार्य के लिए समूचे देशभर में भ्रमण किया। हर एक राज्य में जाकर उस राज्य के मुख्यमंत्री से मुलाक़ात की और उस कार्य के लिए निधि संकलित की।

सर्वसाधारण लोग भी इस कार्य में सहभागी हो सकें, इसके लिए एक रुपये की रसीद तैयार की गयी और उसके ज़रिये दस लाख रुपये एकनाथजी ने संकलित किये। इन दस लाख लोगों को एकनाथजी ने खुद अपने हाथों से पत्र लिखकर उनका शुक्रिया अदा किया। यह एक विश्‍वविक्रम ही साबित होता है। विवेकानंद स्मारक के निर्माण के बाद एकनाथजी चुपचाप नहीं बैठे। उन्होंने देशभर में विवेकानंदजी के विचारों का प्रसार करने के लिए कार्यकर्ताओं का गुट तैयार किया। उन्हें विभिन्न प्रान्तों में भेजकर युवावर्ग में विवेकानंदजी के विचारों का प्रचार किया और सेवाकार्य शुरू किया। विवेकानंदजी के तत्त्वज्ञान के अनुसार, समाज में प्रचलित उच्चनीच भेदभाव दूर करने के लिए युवावर्ग पहल करें, उसके लिए ये कार्यकर्ता अथक प्रयास कर रहे थे। आज अरुणाचल प्रदेश से लेकर कन्याकुमारी तक जगह जगह ‘विवेकानंद केंद्र’ का कार्य जोश के साथ शुरू है।

केरळ में ‘विवेकानंद मेडिकल मिशन’ नामक अस्पताल बहुत ही दुर्गम इला़के में शुरू किया गया है। संघ की विचारधारा का कट्टरतापूर्वक विरोध करनेवाले कम्युनिस्ट और अन्य धर्मों के लोग भी संघ के इस कार्य की मुक्तकंठ से सराहना करके उसकी दाद देते हैं, इसका अनुभव मैंने स्वयं किया है। सेवाकार्य में किसी भी प्रकार का भेदभाव करना संघ को कभी भी मंज़ूर नहीं था। सेवाकार्य तो क्या, समाज में ही किसी भी प्रकार का भेदभाव न किया जायें, ऐसी संघ की धारणा है। इसीलिए हमारे समाज का बँटवारा करनेवाले – जातिपाति, उच्चनीच इस प्रकार के भेदभावों का संघ ने विरोध किया। अब बात निकली ही है, इसलिए बताता हूँ। सन १९५६  में भारत के संविधान के शिल्पकार और महान नेता डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर और गुरुजी की मुलाक़ात हुई। उस समय डॉ. आंबेडकर और उनके अनुयायियों पर हो रहे अन्याय पर चर्चा हुई। दलितों पर हो रहे अन्याय को लेकर आपके जितना मैं भी व्यथित हूँ, ऐसा कहकर गुरुजी ने इस विषय में अपनी संवेदना व्यक्त की। संघ स्पृश्यास्पृश्य भेद को नहीं मानता, संघ में सभी जातियों के स्वयंसेवक हैं, यह गुरुजी ने डॉ. आंबेडकर से कहा।

जीवन भर डॉ. आंबेडकर ने दलित बाँधवों को इन्साफ़ दिलाने के अथक प्रयास किये। लब्धप्रतिष्ठित सवर्णों ने उसकी ओर कभी भी ध्यान नहीं दिया, बल्कि उन्होंने डॉ. आंबेडकर जैसे महान व्यक्तित्त्व की उपेक्षा ही की। बहुत सालों से प्रयास करके भी दलितवर्ग को इन्साफ़ नहीं मिल रहा है, यह देखकर बाबासाहब जैसा नेता चुपचाप बैठेगा, यह मुमक़िन ही नहीं था। उन्होंने हिंदू धर्म का त्याग करने का क्रांतिकारी निर्णय घोषित किया। उसके बाद अन्य धर्मों के लोग आकर बाबासाहब से मिले और बाबासाहब अपने धर्म का स्वीकार करें इसलिए उन्होंने बाबासाहब और उनके अनुयायियों को प्रलोभन दिखाये। लेकिन सन १९५६  में बाबासाहब ने अपने लाखों अनुयायियों के साथ, भारतीय भूमि में ही जन्मे बौद्धधर्म का स्वीकार किया। आपको यह जानकर शायद अचरज होगा, लेकिन गुरुजी ने बाबासाहब को बधाई दी थी। घोर अन्याय सहन करके भी, दूसरे धर्म का स्वीकार करते समय, बाबासाहब ने इस भूमि में ही जन्मे बौद्धधर्म का चयन किया, यह बात गुरुजी को बहुत बड़ी प्रतीत हो रही थी। बाबासाहब ने यह फैसला करके देश पर बहुत बड़े एहसान किये हैं, ऐसा गुरुजी का कहना था। यह धर्मांतरण नहीं, बल्कि अपने घर के एक कमरे में से दूसरे कमरे में जाने जैसा है, ऐसा गुरुजी ने कहा था। यह फैसला करनेवाले बाबासाहब का गुरुजी ने शुक्रिया अदा किया था।

जिस भूमि में हम रहते हैं, वह हमारी मातृभूमि है। हज़ारों वर्षों से हम इस भूमि का ‘माता’ के रूप में पूजन करते आये हैं। इस मातृभूमि का हर एक कण हमारे लिए परमपवित्र है। इसी पवित्र भूमि में भगवान पुनः पुनः अवतरित होते रहते हैं। ऐसी महिमामयी भारतभूमि के हम सपूत हैं, यह भावना ही हमारी एकता, एकात्मता और संघटन का ज़िन्दादिल सूत्र है, ऐसा गुरुजी का सन्देश था। इस सन्देश में संघ के तत्त्वज्ञान का सारांश समाया है।

(क्रमश:)

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