राष्ट्र सेविका समिति

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग २८

RSS - Rameshbhai Mehtaस्वतन्त्रता के लिए आन्दोलन शुरू हो चुका था। लेकिन इस आन्दोलन में महिलाएँ भी सम्मिलित हों, ऐसा आवाहन महात्मा गाँधीजी निरन्तर करते रहते थे। उस आवाहन को देशभर की महिलाओं से प्रतिसाद मिल रहा था। कई महिलाएँ स्वतन्त्रता के लिए, समाजसुधार के लिए घर से बाहर निकलीं और उन्होंने कार्य शुरू किया। वर्धा की लक्ष्मीताई केळकर ऐसी ही महिलाओं में से एक थीं। लक्ष्मीताई स्वयं चरखा चलाती थीं और जनजागृति के लिए वर्धा में जगह जगह प्रवास करती थीं। उनके छः पुत्र एवं दो कन्याएँ थीं। इसी दौरान वर्धा में संघ का कार्य शुरू हो चुका था। लक्ष्मीताई के पुत्र संघ की शाखा में जाने लगे। संघशाखा में जाना शुरू करने के बाद लक्ष्मीताई की समझ में आ गया कि अपने पुत्रों में बहुत बड़े बदलाव आये हैं।

‘अपने बच्चें अधिक विवेकशील एवं प्रगल्भ बने हैं, उनपर अच्छे संस्कार हो रहे हैं’ यह देखकर लक्ष्मीताई के मन को बहुत ही सन्तोष हुआ। उन्होंने शाखा में आने की इच्छा प्रदर्शित की। संघशाखा में निश्‍चित रूप से क्या कार्य चलता है, यह वे जानना चाहती थीं। अपने पुत्रों के साथ वे शाखा में आयीं और यहाँ का कार्य देखकर वे बहुत ही प्रभावित हुईं। उसके बाद उन्होंने नागपुर जाकर सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार से मुलाक़ात की। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के पीछे रहनेवाली प्रेरणा और संघ के ध्येय एवं नीतियों के बारे में लक्ष्मीताई ने जान लिया। यह अद्भुत कार्य है, ऐसा लक्ष्मीताई ने कहा। इतना ही नहीं, बल्कि इस कार्य में मैं भी सम्मिलित होना चाहती हूँ, ऐसा उन्होंने डॉक्टर हेडगेवार से कह दिया।

लक्ष्मीताई का उत्साह और आत्मीयता देखकर डॉक्टरसाहब भी प्रभावित हो चुके थे। महिलाओं के लिए कार्य करने की लक्ष्मीताई की इच्छा थी। यह सन १९३६  की घटना है। उस समय महिलाओं के विकास और प्रगति के लिए बहुत बड़े कार्य की ज़रूरत थी। उस कार्य के लिए मेरा संपूर्ण सहयोग होगा, ऐसा डॉक्टरसाहब ने लक्ष्मीताई को आश्‍वासन दिया। लेकिन इसके लिए आप स्वतंत्र संगठन का निर्माण कीजिए, ऐसा मशवरा डॉक्टरसाहब ने दिया। उसके अनुसार, सन १९३६  में ही विजयादशमी के  शुभमुहूर्त पर बुलढ़ाणा ज़िलास्थित संघ के स्वयंसेवक ‘यादव माधव काळे’ वर्धा में आये और एक मैदान में परमपवित्र भगवा ध्वज फ़हराकर उन्होंने ‘राष्ट्र सेविका समिति’ की पहली शाखा का ध्वजारोहण उत्सव शुरू किया।

इस प्रकार ‘राष्ट्र सेविका समिति’ की स्थापना हुई। इसी वर्ष ‘राष्ट्र सेविका समिति’ का ग्रीष्म वर्ग शुरू हो गया। वर्धा के, संघ के ज्येष्ठ स्वयंसेवक आप्पाजी जोशी इनके साथ अन्य लोगों का भी मार्गदर्शन एवं सहयोग इस समिति को मिलता रहा। महिलाओं की समस्याओं के लिए, महिलाओं के विकास के लिए कार्य करने उत्सुक रहनेवाले कई लोग डॉक्टर हेडगेवार से मिलने आते थे। इस संदर्भ में ‘आप ‘मावशी’ (मौसी) से मिलिए’, ऐसा डॉक्टरसाहब कहते थे। लक्ष्मीताई को ‘मावशीजी’ के नाम से जाना जाता था।

सन १९३६  से लेकर अगले दशक भर के समय में ‘राष्ट्र सेविका समिति’ के कार्य का बहुत बड़ा विस्तार हुआ। सन १९४० में ‘समिति’ ने यह निर्णय लिया कि ‘जो शाखा छः महीने तक नियमित रूप में शुरू रहेगी, उसी शाखा को ध्वजांकित शाखा का दर्ज़ा दिया जायेगा’। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरह ‘राष्ट्र सेविका समिति’ की शाखा की शुरुआत परमपवित्र भगवे ध्वज को प्रणाम करके ही होती है। सन १९४२ में ‘चले जाव’ आंदोलन की शुरुआत हुई, उसमें ‘राष्ट्र सेविका समिति’ की बहनें भी सम्मिलित हुई थीं। ‘समिति’ की नागपुर शाखा की संचालिका काकू परांजपे ने ‘सेविकाओं’ को संबोधित करते हुए एक महत्त्वपूर्ण संदेश दिया – ‘राष्ट्र की रक्षा करने से पहले हमें अपने स्त्रीत्व की रक्षा करना बहुत ही आवश्यक है।’ इसीलिए समिति की शाखा में, महिलाओं को शारीरिक दृष्टि से सक्षम करने पर विशेष रूप में ज़ोर दिया जाता है।

महिलाएँ दुर्बल नहीं होतीं, यह भारत के इतिहास ने समय समय पर सिद्ध कर दिया है। आसुरी शक्ति की ताकत बढ़ने पर असुरों का नाश करने के लिए देवताओं ने आदिमाता की आराधना की थी। मातृशक्ति को भारत की संस्कृति में अपरंपार महत्त्व है। इसीलिए हम हमारे देश को ‘मातृभूमि’ कहते हैं और ‘भारतमाता की जय’ यह हमारा जयघोष?रहता है। महिलाओं में रहनेवाली यह मातृशक्ति प्रभावी रूप में कार्यरत हों, इसलिए महिलाएँ शारीरिक दृष्टि से सबल होना अत्यावश्यक साबित होता है। ‘राष्ट्र सेविका समिति’ की शाखा में इसी कारण महिलाओं को मैदानी खेल और योगचाप, दंड, छुरी, खड्ग आदि का प्रशिक्षण दिया जाता है। इससे शारीरिक क्षमता का विकास होता है और महिलाओं का आत्मविश्‍वास भी बढ़ता है। समिति की कुछ बहनें तो विजयादशमी के दिन, घोड़े पर सवार होकर, हाथ में परमपवित्र भगवा ध्वज लेकर संचलन का नेतृत्व करती हैं।

समिति की प्रार्थना संघ की प्रार्थना से अलग है।
नमामो वयं मातृभू: पुण्यभूस्त्वां
त्वया वर्धिता: संस्कृतास्त्वत्सुता:

… इस प्रार्थना में भारतभूमि का तथा भारतीयत्व का वर्णन किया गया है। इसलिए शब्द भले ही अलग हों, मग़र फिर भी उसका भाव यह संघ की प्रार्थना जैसा ही है।

सन १९४० में डॉ. हेडगेवार का निधन हो गया। उनके बाद ‘सरसंघचालक’ पद की ज़िम्मेदारी श्रीगुरुजी ने सँभाली। उन्होंने समय समय पर समिति को मार्गदर्शन किया। समिति के विस्तार के लिए आवश्यक रहनेवाली सारी सहायता श्रीगुरुजी ने की। इस कारण, जितनी गति से संघ बढ़ता गया, उतनी ही गति से समिति का कार्य भी विकसित होने लगा। अखंड भारत के हर प्रांत में समिति की शाखाएँ थीं। मावशीजी ने सारे देश के हर प्रांत में प्रवास कर समिति का कार्य बढ़ता ही रखा। श्रीगुरुजी के बाद आये हुए ‘सरसंघचालक’ भी समिति के कार्य को संपूर्ण सहयोग देते आये हैं।

फुरति से कार्य करनेवालीं बहनों के एक समूह का निर्माण वंदनीय मावशीजी ने किया। उनमें समिति की द्वितीय प्रमुख संचालिका सरस्वतीताई आपटे, उषा चाटी, प्रमिलाताई मेढे, शांताआक्का, रुक्मिणीआक्का, बकुळाताई देवकुळे, सुशिलाताई महाजन, सुधाताई चितळे और अन्य भी कई बहनों का समावेश था। इन सबको मावशीजी ने देशभर में तथा विदेश में भी प्रवास करवाया। समिति के कार्य का प्रसार करते हुए, ‘महिलाएँ आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर बनें’ इस हेतु मावशीजी ने विभिन्न उद्यमशील उपक्रमों की शुरुआत की थी।

स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने भी महिला संगठन शुरू किया था। उसकी जानकारी लेने के लिए मावशीबाई ने स्वातंत्र्यवीर से मुलाक़ात की। उस समय स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने ‘राष्ट्र सेविका समिति’ के कार्य की यथार्थ शब्दों में प्रशंसा की – ‘आपका कार्य, शान्तिपूर्वक बरसनेवाली बरसात की तरह है। ऐसी बारिश का पानी ज़मीन में सुचारु रूप से प्रवेश करता है और उससे ज़मीन हरीभरी हो जाती है। लेकिन मेरे संगठन का कार्य चक्रवात जैसा है। इसलिए आप अपना कार्य आपकी पद्धति से करती रहिए’ ऐसी सलाह सावरकरजी ने मावशीबाई को दी।

सन १९४३ से वैचारिक दृष्टि से और संगठन की दृष्टि से समिति का कार्य व्यापक रूप धारण करने लगा। शिशुमंदिर, संस्कार केंद्र, आवास केंद्र, उद्योगमंदिर आदि प्रकल्प समिति ने शुरू किये। उनके बड़े बड़े सम्मेलन होने लगे। सन १९४६  में मिरज में समिति का बड़ा सम्मेलन संपन्न हुआ। उसमें मिरज, सांगली, कुरुंदवाड, जामखेडे यहाँ से आयीं सेविकाएँ सहभागी हुई थीं। जामखेड रियासत की रानीसाहेबा भी सम्मेलन में शरीक़ हुई थीं। समिति का कार्य भारत के सभी प्रांतों में शुरू हो चुका था। लेकिन गाँधीजी की हत्या के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर पाबंदी लगायी गयी। दरअसल संघ का इस हत्या से कुछ भी ताल्लुक नहीं था और संघ का ‘राष्ट्र सेविका समिति’ के साथ भी ठेंठ संबंध नहीं था। इसके बावजूद भी समिति के कार्य में कई बाधाएँ उत्पन्न की गयीं। इसलिए कुछ समय तक समिति के काम को रोकना पड़ा।

सन १९४९ में संघ पर लगी पाबंदी हटायी गयी और उसके बाद समिति का काम भी शुरू हो गया। अगले समय में, समिति के कार्य के साथ कई महिलाओं ने अपने आपको जोड़ लिया। सन १९५० में समिति द्वारा ‘अष्टभुजा देवीमाता’ का उत्सव मनाया गया। इस उत्सव में बड़ी संख्या में सेविकाएँ तथा अन्य महिलाएँ भी सम्मिलित हुई थीं। ‘हमें स्वराज्य तो मिल गया, लेकिन इस स्वराज्य का रूपान्तरण यदि सुराज्य में करना है, तो हमारे देश की मातृशक्ति को जागृत करना पड़ेगा। समाज को संगठित कर राष्ट्र को समर्पित करना हो, तो बार बार ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन करना पड़ेगा’ इसपर सभी का एकमत हुआ।

‘अष्टभुजा देवीमाता को नज़र के सामने रखकर हम सबको यह ध्यान में लेना चाहिए कि जगत्-जननी में प्रेरणा देने की, शासन करने की और संहार करने की भी शक्ति है। इस बात को हमें कभी भी भूलना नहीं चाहिए। हर महिला में रहनेवाले इन सद्गुणों की हमें भी रक्षा करनी होगी’ ऐसा संदेश इस समय मावशीजी ने दिया। सन १९५३ में समिति ने ‘स्त्री जीवन विकास परिषद’?का आयोजन किया था। महिलाओं की शिक्षा के लिए जीवन समर्पित किये हुए महर्षि धोंडो केशव कर्वे और स्त्री-शरीरशास्त्र के डॉक्टर मुस्कर इस परिषद में उपस्थित थे। महिलाओं के अंतर्बाह्य विकास के लिए इस समय मार्गदर्शन किया गया; वहीं, डॉक्टर मुस्कर ने शारीरिक दृष्टि से सुदृढ़ रहना महिलाओं के लिए क्यों आवश्यक है, यह बताकर उसके लिए किस प्रकार के व्यायाम करने चाहिए, इस बारे में सलाह दी।

जब जब देश पर प्राकृतिक संकट आया, तब तब ‘राष्ट्र सेविका समिति’ की सेविकाएँ, संघ के स्वयंसेवकों के कन्धे से कन्धा मिलाकर सेवाकार्य करती आयी हैं। चाहे लातूर का भूकंप हो या मोरबी की बाढ़, कांडला सागरी तूफ़ान, भोपाल में हुई ज़हरिले वायु की दुर्घटना इन सारी आपत्तियों के समय समिति की सेविकाएँ भी निरपेक्ष सेवा करने दौड़ी थीं। जम्मू-कश्मीर के धर्मांधों ने कश्मिरी पंडितों के परिवारों को बेघर कर दिया। ऐसे परिवारों को आधार देने का बहुत बड़ा कार्य समिति की सेविकाओं ने किया। निराधार बन चुकीं कश्मिरी पंडितों की बेटियों को ब्याहने की पारिवारिक ज़िम्मेदारी भी ‘राष्ट्र सेविका समिति’ ने उठायी थी।

सन १९६५ और सन १९७१ के युद्धों में ‘राष्ट्र सेविका समिति’ की सेविकाएँ सरहदी प्रांत तक पहुँचीं और उन्होंने यहाँ पर भी अपना सेवाकार्य किया। यहाँ पर तैनात रहनेवाले सैनिकों को सेविकाओं ने २०० ट्रांझिस्टर दिये थे। वंदनीय मावशीजी इस ‘राष्ट्र सेवा समिति’ की मुख्य संचालिका थीं। ‘स्त्री और पुरुष ये संसाररथ के दो पहिये हैं। पुरुष यह गृहस्थी के रथ का रथी है; वहीं, महिला यह सारथी है। महिला के पास गृहस्थी का सारथ्य रहता है। पुरुषों को दुर्व्यसनों से दूर रखने का काम स्त्री करती है। पुरुषों को यशोमंदिर तक पहुँचाने की ज़िम्मेदारी महिलाएँ निभाती हैं’ यह कहकर मावशीजी ने समाजजीवन में रहनेवाला महिलाओं का महत्त्व स्पष्ट किया। उसी समय महिलाओं को उनकी क्षमता तथा कर्तव्य का भी एहसास मावशीजी ने करा दिया।

शहरों तथा वनवासी इलाक़ों में भी समिति का कार्य शुरू है। वनवासी क्षेत्र की बालिकाओं को शिक्षा प्रदान कर, उन्हें समाज की मुख्य धारा में लाने का काम समिति फुरति से कर रही है। साथ ही, दुनियाभर के कई देशों में समिति कार्यरत है, यह बताने में गर्व महसूस होता है। विदेश में भी संघ और समिति की शाखाएँ और वर्ग स्वतंत्र रूप में आयोजित किये जाते हैं। लेकिन उनके बौद्धिक वर्ग तो एकसाथ ही आयोजित किये जाते हैं। सन १९९६ में इंग्लैंड़ में इसी प्रकार का एक शिविर आयोजित किया गया था। इंग्लैंड़ के लेस्टर में संपन्न हुए इस शिविर में, मैं संघ के शिविर में, तो मेरी पत्नी डॉ. किर्तीदा मेहता ‘राष्ट्र सेविका समिति’ के शिविर में सहभागी हुए थे। इस समय समिति की अखिल भारतीय प्रचारिका प्रमिलाताई मेढे ने अपने बौद्धिक में बहुत ही समर्पक ऐसा सन्देश दिया। उन्होंने कहा था, ‘हम जहाँ कहीं भी वास्तव्य करते हैं, उस भूमि के साथ हमें प्रामाणिक रहना तो है ही, मग़र हमारी भारतभूमि को हमें कभी भी नहीं भूलना है। इस भारतभूमि ने हमें दिये हुए मूल्यों को हमें सदा के लिए जतन कर रखना है।’

संघ में जिस प्रकार ‘प्रचारक’ व्यवस्था रहती है, उसी प्रकार ‘राष्ट्र सेविका समिति’ में ‘प्रचारिका’ व्यवस्था है। उच्चविद्याविभूषित रहनेवालीं कई बहनें आज समिति के कार्य को जोशपूर्वक आगे ले जा रही हैं। अपनी गृहस्थी तथा पारिवारिक कर्तव्य इनका पालन करते हुए भी, ये बहनें समिति के कार्य के द्वारा समाज और राष्ट्र की सेवा कर रही हैं। एक महिला जागृत हुई, तो सारा परिवार और समाज जागृत होने में समय नहीं लगता। जिस समाज में मातृशक्ति जागृत होती है, उस समाज को किसी?भी बात की कमी महसूस नहीं होती। आज हमारे रक्षादलों से लेकर पुलीसदलों तक कई महिलाएँ ज़िम्मेदारी के पदों पर उत्कृष्टतापूर्वक कार्य कर रही हैं। हमारे देश की इस मातृशक्ति को अधिक से अधिक चेतना मिलें, इस हेतु जारी रहनेवाले प्रयासों को हम सभी को प्रतिसाद देना चाहिए।

(क्रमश:)

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