गँवाया हुआ अवसर

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग २६

pg12-Vijaya_GurujiHighResपाकिस्तान के द्वारा छेड़ा गया यह युद्ध यानी बँटवारे की ऐतिहासिक ग़लती को सुधारने का उत्तम अवसर है, ऐसा गुरुजी का मानना था। लेकिन…

… इस युद्ध में पाक़िस्तान हालाँकि परास्त हुआ, मग़र फिर  भी भारत के द्वारा इस देश की जो मरम्मत की जानी चाहिए थी, वह नहीं की गयी। इसीलिए सन १९६५ के युद्ध में पराभव होने के बावजूद भी पाक़िस्तान ने सन १९७१ में भारत के खिलाफ युद्ध पुकारने की हिम्मत दिखायी। सन १९६५ के युद्ध में भारतीय सेना लाहोर तक घुस गयी थी। कश्मीर का पाक़िस्तान के कब्ज़े में रहनेवाला अधिकांश भूभाग भारतीय सेना ने पुनः जीत लिया था। इनमें से ‘हाजीपीर पास’ यह स्थान सामरिक दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण था। इस स्थान को जीतने के लिए भारतीय सेना ने चरमकोटि का पराक्रम दिखाया। पाक़िस्तानी सेना इसके लिए बिलकुल भी सिद्ध नहीं थी। यहाँ पर पाक़िस्तानी सेना बुरी तरह हार गयी। इस स्थान के जीतने से हमारी सेना खुश थी। लेकिन जो कुछ भी हमने युद्ध में जीत लिया, वह हमारे देश ने चर्चा में गँवा दिया। इसलिए ‘हाजीपीर पास’ पुनः पाक़िस्तान के कब्ज़े में चला गया। आंतर्राष्ट्रीय दबाव के कारण इस युद्ध को रोका गया। लेकिन यह युद्धविराम किस क़िस्म का था?

हज़ारों सैनिकों का बलिदान देकर जीती हुई भूमि यदि हमें पाक़िस्तान को ही लौटानी थी, तो फिर  यह युद्ध खेलने का कोई मतलब ही नहीं था। लेकिन युद्ध के दौरान अत्यधिक मज़बूत भूमिका अपनानेवाले हमारे प्रधानमंत्री लालबहाद्दूर शास्त्री ने यह ग़लती की। सन १९४७ में पूरा कश्मीर जीतने का मौक़ा रहते हुए भी नेहरूजी ने वह मौक़ा हाथ से गँवाया। सन १९६५ में ऐसे चलकर आये मौ़के को शास्त्रीजी ने हाथ से जाने दिया। ‘हाजीपीर पास’ पर यदि भारत का कब्ज़ा रहता, तो कश्मीर प्रश्‍न भारत के पक्ष में कभी का हल हुआ होता। क्योंकि ‘हाजीपीर पास’ के कारण, पाक़िस्तान के पास बचा कश्मीर भारत आसानी से जीत सकता था।

पूरे कश्मीर पर कब्ज़ा करने के बाद ही लाहोर और सिंध छोड़कर लौट आयेंगे, ऐसी भारतीय सेना की योजना थी। लेकिन युद्धविराम के कारण यह योजना वास्तव में साकार नहीं हो पायी। आंतर्राष्ट्रीय दबाव के बारे में एक बात मैं हमेशा महसूस करता रहता हूँ। इस आंतर्राष्ट्रीय दबाव के तले दब जानेवालों पर यह दबाव हमेशा बढ़ता ही रहता है। लेकिन उसकी परवाह किये बिना आगे मार्गक्रमणा करनेवाले देशों पर आंतर्राष्ट्रीय दबाव काम नहीं करता। चीन, इस्रायल, रशिया इन देशों ने कई बार ये बातें सिद्ध की हैं। हमारा ही अधिकार रहनेवाली भूमि हमने जीती, मग़र तब भी शान्ति स्थापित करने के लिए उसका त्याग करो, ऐसा विचार इस युद्धविराम के पीछे था। लेकिन उसके बाद क्या शान्ति स्थापित हुई? क्या पाक़िस्तान अपनी हरक़तों से बाज़ आया? कम से कम इसके आगे तो, भारत यदि शान्ति के मार्ग से जाने की तैयारी प्रदर्शित करता है, तो क्या पाक़िस्तान आतंक का मार्ग छोड़कर  भारत को सु़कून से जीने देगा? हरगिज़ नहीं।

पाक़िस्तान केवल सामर्थ्य की भाषा ही समझ सकता है। इसी कारण, जब जब मौक़ा मिलें, तब तब पाक़िस्तान का ग़रूर यदि न तोड़ा गया, तो वास्तविक रूप में शान्ति के लिए ख़तरा उत्पन्न होगा। क्योंकि पाक़िस्तान को यदि सबक नहीं सिखाया जाता, तो उस देश का आत्मविश्‍वास अधिक ही बढ़ता है और उसके बलबूते पर पाक़िस्तान भारत को परेशान करने की तैय्यारियाँ करते रहता है। सन १९४८ का कश्मीर पर किया हमला, सन १९६५ में पाक़िस्तान द्वारा शुरू किया गया युद्ध, सन १९७१ में भारत पर किया हमला और सन १९९९ की कारगिल की कार्रवाई ये घटनाएँ, ‘भारत के बारे में पाक़िस्तान की क्या सोच है’ यह दर्शाने के लिए पर्याप्त साबित होंगी। इस दौरान, भारत में आतंकवाद को बढ़ावा देकर किये हुए ख़ूनख़राबे को किसी को भी भूलना नहीं चाहिए।

‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ पाक़िस्तान का विद्वेष करता है, ऐसी आलोचना हमेशा की जाती है। दरअसल संघ किसी का भी विद्वेष करना नहीं सिखाता। लेकिन ‘राष्ट्रहित को सर्वोच्च प्राथमिकता देना’ यह संघ का स्वभाव है। स्वयंसेवकों पर यही संस्कार होते आये हैं। इस कारण, पाक़िस्तान यदि हमारे देश के विरोध में निरन्तर कारनामें कर रहा हो, तो संघ से पाक़िस्तान पर प्रशंसा के फूल  बरसाने की उम्मीद रखना स्वाभाविक रूप में ग़लत ही होगा। साथ ही, यह प्रश्‍न केवल संघ का ही नहीं, बल्कि देश से प्रेम करनेवाले हर एक का है। पाक़िस्तान पर अँधा विश्‍वास रखकर, विश्‍वासघात के सिवा अन्य कुछ भी हमारे हाथ नहीं लगा है और इसके अलावा ना ही कुछ भी हमें मिलेगा। इसीलिए पाक़िस्तान के प्रति हमें सदैव चौकन्नी एवं व्यवहार्य भूमिका अपनानी होगी। ऐसी भूमिका प्रतिपादित करना यानी युद्धखोरी करना नहीं है।

विद्वेष में से जन्मे हुए पाक़िस्तान का अस्तित्व हमेशा भारत को परेशान ही करेगा, ऐसा गुरुजी का कहना था। इसी कारण, पाक़िस्तान को सबक सिखाने का मौका भारत न गँवायें, ऐसा गुरुजी को लगता था। सन १९६५ के युद्ध के दौरान प्रधानमंत्री शास्त्रीजी ने बुलायी बैठक में गुरुजी ने यही विचार सबके सामने स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किये थे। ये विचार केवल संघ के या श्रीगुरुजी के थे, ऐसा मानकर चलने का कारण नहीं है। कई देशभक्तों को ऐसा लग रहा था कि ‘पाक़िस्तान को अच्छा सबक सिखाना चाहिए’।

सन १९६५ के युद्ध की एक घटना मैं यहाँ बताना चाहता हूँ। इस दौरान स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी की तबियत बिगड़ती जा रही थी। इसलिए सभी लोग बेचैन हुए थे। सन १९६२ में, चीन द्वारा किये गए आक्रमण के बाद स्वातंत्र्यवीर को अत्यधिक दुख हुआ था। देश की सीमाएँ सुरक्षित नहीं हैं, ऐसी चेतावनी स्वातंत्र्यवीर ने बार बार दी थी। लेकिन किसीने उसपर ग़ौर नहीं किया। इसका परिणाम देश को भुगतना पड़ा। लेकिन सन १९६५ में पाकिस्तान ने आक्रमण करने के बाद स्वातंत्र्यवीर की तबियत और भी बिगड़ गयी। उस समय के राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन्जी ने सावरकरजी के स्वास्थ्य का हालचाल पूछने के लिए फ़ोन किया। उस समय, ‘युद्ध के मोरचे पर क्या चल रहा है’ यह जानने के लिए स्वातंत्र्यवीर बहुत ही उत्सुक है, यह बात डॉ. राधाकृष्णन जान गये।

उसके बाद डॉ. राधाकृष्णन ने, इस युद्ध में क्या चल रहा है इसकी जानकारी स्वातंत्र्यवीर तक पहुँचाने की व्यवस्था की। उसके बाद अचरज की बात हो गयी। भारतीय सेना पाक़िस्तानी लष्कर को अच्छीख़ासी खदेड़ रही है, यह जानने के बाद इस महान देशभक्त की तबियत में सुधार आने लगा। पाक़िस्तान और चीन से भारत को हमेशा ख़तरे की संभावना है, ऐसी चेतावनी स्वातंत्र्यवीर ने बहुत पहले से ही दे रखी थी। देश के सीमाभाग में युवाओं को ज़मीनें एवं बंदूकें दे दीजिए। ये युवक यहाँ पर ख़ेती करके अपनी उपजीविका करेंगे और दुश्मन ने यदि आक्रमण किया, तो बंदूक से उसका सामना करेंगे, ऐसा स्वातंत्र्यवीर ने कहा था। ‘राजनीति का हिंदुकरण और हिंदुओं का सैनिकीकरण’ यह सावरकरजी की विचारधारा थी। इसलिए स्वाभाविक रूप में, भारतीय सेना का पराक्रम यह स्वातंत्र्यवीर का उत्साह बढ़ानेवाली बात साबित हुई।

भारतीय सेना पाक़िस्तानी सेना की धज्जियाँ उड़ा रही थी कि तभी संयुक्त राष्ट्रसंघ ने युद्धविराम के लिए दबाव डाला। २२ दिनों के बाद, भारत की जब जीत हो रही थी, तभी इस युद्ध को रोका गया। पाक़िस्तान हालाँकि इस युद्ध में पराजित हुआ हो, मग़र फिर  भी वह चर्चा में विजयी हुआ, ऐसा ही कहना पड़ेगा। रशिया के ताश्कंद में हुईं चर्चाओं में, भारत ने जीती हुई भूमि गँवायी। प्रधानमंत्री शास्त्रीजी को भी, इस बड़ी ग़लती का एहसास हुआ होगा। इसका प्रचंड दबाव इस महान नेता पर आया होगा और उसीमें उनकी मृत्यु हुई। शास्त्रीजी ने युद्ध के दौरान जताया निर्धार और नेतृत्वगुण असामान्य थे। इनकी जितनी प्रशंसा करें, उतनी कम ही साबित होगी। लेकिन भारत के नेता आंतर्राष्ट्रीय दबाव के प्रभाव में आकर देश के हितसंबंधों के बारे में समझौता करते हैं, यह हमारे देश का दुर्भाग्य है।

राष्ट्रहित को सर्वोच्च महत्त्व दीजिए, ऐसा संघ बार बार कहता आया है। व्यक्ति आते हैं और जाते हैं, देश क़ायम रहता है। देश के हितसंबंधों के बारे में किसी भी प्रकार का समझौता नहीं करना है, यही संघ की भूमिका रही है। इसी कारण, जीती हुई भूमि पाक़िस्तान को लौटायी गयी, इस बात का संघ को बुरा लगा। सन १९६५ के युद्ध में विजय मिलने के बावजूद भी, हाथ में आयी भूमि पाक़िस्तान को पुनः मिल गयी, इस बात का स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी को गहरा सदमा लगा था।

मूलतः पाक़िस्तान का निर्माण यही सबसे बड़ी ग़लती थी। इस ग़लती को मिटाने का जो अवसर हमारे पास चलकर आया था, उसे हमने गँवा दिया; ऊपर से, जीती हुई भूमि पाक़िस्तान को लौटा दी, यह बात स्वातंत्र्यवीर सावरकर जैसे प्रखर राष्ट्रभक्त को कभी भी मंज़ूर नहीं होनेवाली थी। लेकिन इस सत्य का स्वीकार करने के अलावा और कोई चारा ही नहीं था। सावरकरजी का स्वास्थ्य इसके बाद बिगड़ता गया। आख़िरी दौर में स्वातंत्र्यवीर ने खाना, दवाइयाँ सबकुछ त्याग दिया और मानो मृत्यु को ही आवाहन किया।

अन्तिम समय में सावरकरजी की आँखों से आँसुओं की धाराएँ बहती थीं। उसे देखकर निकटवर्तियों को बहुत वेदनाएँ होती थीं। उन्होंने स्वातंत्र्यवीर से उनकी अंतिम इच्छा पूछी। निष्प्राण होते जा रहे देह की सारी शक्ति एक कर स्वातंत्र्यवीर ने कहा, ‘गये हुए पंजाब और सिंध को पुनः वापस लाना होगा। उसके बग़ैर मेरा हिंदुस्थान अधूरा है। इस भूभाग को पुनः प्राप्त करने का वादा कीजिए।’ उपस्थितों ने इस हेतु अपनी सारी शक्ति दाँव पर लगाने का वचन दिया। उसके बाद इस महान राष्ट्रभक्त ने अपना देह त्याग दिया। अखंड भारत की संकल्पना आँखों के सामने रखकर ही स्वातंत्र्यवीर ने इहलोक की आख़िरी साँस ली थी।

स्वातंत्र्यवीर श्रीगुरुजी को विशेष रूप में चाहते थे। ‘डॉ. हेडगेवार का कार्य गुरुजी आगे ले जायेंगे और डॉक्टर की संकल्पना में रहनेवाले भारत की नींव गुरुजी के हाथों ही डाली जायेगी’ इस बात का स्वातंत्र्यवीर को पूरा यक़ीन था। जब कभी भी गुरुजी स्वातंत्र्यवीर से मुलाक़ात करने उनके निवासस्थल जाते थे, उस समय उनके स्वागत के लिए सावरकरजी हाथ में हार लिये द्वार पर खड़े रहते थे। स्वातंत्र्यवीर ने देखा हुआ अखंड भारत का सपना गुरुजी कभी भी नहीं भूले। संघ भारत को पुनः एकसंघ और अखंडित बनाने के ध्येय का त्याग कभी भी नहीं करेगा।

(क्रमश:)

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