स्वतंत्रता के बाद…

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग २३

pg12_gurujiसंस्थानों के विलीनीकरण की प्रक्रिया आसान नहीं थी। लेकिन सरदार पटेल के मज़बूत नेतृत्व के कारण यह मुश्किल, पेचींदा प्रक्रिया आसान बन गयी और देश एक हो गया। लेकिन देश के सामने रहनेवालीं समस्याएँ सुलझी नहीं थीं। पाक़िस्तान के निर्माण के बाद भी हम इस देश में वास्तव्य करेंगे, ऐसा वहाँ के हिन्दुओं को लग रहा था। वैसा आश्‍वासन भी मोहम्मद अली जीना ने दिया था। लेकिन यह आश्‍वासन खोख़ला था, यह अल्प अवधि में ही सिद्ध हो गया। पाक़िस्तान के निर्माण के बाद भी धर्मांध उन्माद कम नहीं हुआ था। पाक़िस्तान का हिस्सा बने पूर्वी बंगाल में डेढ़ करोड़ हिन्दु बान्धवों को अत्याचार के कारण, भारत आने के अलावा और कोई चारा ही नहीं था। इन हिन्दु बान्धवों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी भारत सरकार पर थी। लेकिन सरकार उस मामले में भयंकर उदासीनता ज़ाहिर कर रही थी। पश्‍चिमी बंगाल में आनेवाले इन हिन्दु बान्धवों को सरकार ने ‘इन्फिल्ट्रेटर ’ यानी ‘घुसपैंठ’  ऐसी उपाधि दी थी।

कैसा दुर्भाग है! बँटवारे का निर्णय होने के बाद पाक़िस्तान को दिये गए भूभाग में रहनेवाले हिन्दु तथा सीख बान्धवों की सुरक्षा की तथा उनकी मालमत्ता की ज़िम्मेदारी पूर्ण रूप से भारत सरकार द्वारा स्वीकारी जानी चाहिए थी। वैसा तो हुआ ही नहीं, उलटा वहाँ से आनेवाले बान्धवों को ‘घुसपैंठ’ बताकर उन्हें नीचा दिखाने का पागलपन शुरू हुआ था। यह संघ ने हरगिज़ बर्दाश्त नहीं किया। ‘हमारे इन बान्धवों को ‘घुसपैंठ’ नहीं, बल्कि ‘शरणार्थी’ कहो। इस देश में वास्तव्य करने का उन्हें अधिकार है। उन्हें सम्मान देकर इनके इस अधिकार को मान लो’ ऐसी माँग पूजनीय गुरुजी ने की। पूर्वी बंगाल में से आए इन शरणार्थियों के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ‘वास्तुहरा सहायता समिति’ की स्थापना की। पश्‍चिमी बंगाल में आनेवाले निर्वासितों को इस समिति के ज़रिये संपूर्ण सहायता दी जा रही थी। इसमें उनके आवास की व्यवस्था, नौकरी-व्यवसाय में पैर जमाने के लिए उनकी सहायता, इन बातों का समावेश था। इसके लिए संघ ने पूरे समाज को आवाहन किया।

इस प्रकार बँटवारे से पहले और बँटवारे के पश्‍चात् के समय में भी, समाज के सामने आनेवाली हर चुनौती का सामना संघ कर रहा था। लेकिन अपनी हमेशा की परिपाटि के अनुसार संघ ने अपने इस कार्य का प्रचार नहीं किया। ऐसी परंपरा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में नहीं है। समाज और देश के प्रति यह हमारा कर्तव्य ही है, इस भावना से स्वयंसेवक यह सारा कार्य कर रहे थे। उन्हें उसका श्रेय लेने की कतई आवश्यकता महसूस नहीं हो रही थी। लेकिन इस कारण – ‘बँटवारे के दौरान संघ ने क्या किया?’ ऐसा सवाल पूछने का मौका कुछ लोगों को मिला। लेकिन उसका जवाब देने की ज़रूरत संघ को महसूस नहीं हुई।

सन १९५० में जब श्रीगुरुजी प्रवास कर रहे थे, तभी उन्हें सरदार पटेल का स्वास्थ्य बिगड़ने की ख़बर मिली। गुरुजी ने फ़ौरन सरदार पटेल से मुलाक़ात की। ‘मेरे पास अब बहुत समय बचा नहीं है’ ऐसा पटेल ने श्रीगुरुजी से कहा। ‘आपका संगठन, आनेवाले समय में भी राष्ट्रभक्तों का निर्माण कर, देश की सेवा करता रहेगा’ ऐसी उम्मीद इस वक़्त सरदार पटेल ने गुरुजी के पास ज़ाहिर की। सन १९५० में ही सरदार पटेल का देहावसान हो गया। इस महान नेता ने अपने निधन से पहले अपनी पार्टी का सारा निधि, हिसाब के साथ सुव्यवस्थित रूप में रख दिया था। ‘यह २० लाख ७० हज़ार रुपयों की रक़म मेरे निधन के बाद नेहरूजी को सौंप देना’ यह सूचना उन्होंने अपनी बेटी मणिबेन को दी। सरदार पटेल की मृत्यु के दो दिन बाद ही मणिबेन ने यह सारा निधि जवाहरलाल नेहरू को सौंप दिया। सरदार पटेल के बारे में एक और बात का ज़िक्र यहाँ पर करना ही होगा। अपने बेटे डाह्याभाई पटेल को सरदार ने – ‘जब तक मैं गृहमंत्रिपद पर हूँ, तुम दिल्ली आना ही मत’ ऐसा कह रखा था। ‘डाह्याभाई दिल्ली आयें और ‘किसी मसले में मैंने अपने बेटे का पक्ष किया’ ऐसा आरोप करने का अवसर किसी को न मिलें, इस हेतु सरदार ये एहतियात बरतते थे।

मणिबेन पटेल अपने पिता की सहायता करने तथा उनकी सेवा करने के लिए ही उनके साथ रह रही थीं। उनका ज़िक्र हुआ ही है, तो बातों के सिलसिले में कुछ बातें अपनेआप याद आ जाती हैं। देश के इस महान नेता की सेवा करनेवाली उनकी सुपुत्री की ओर, सरदार के गुज़र जाने के बाद किसी ने देखा तक नहीं, यह वास्तव है। देश पर निछावर हुए ऐसे महान परिवार की हमारी यंत्रणा ने की हुई उपेक्षा वाक़ई खेदजनक बाब साबित होती है।

सरदार पटेल जैसे, देशहित के मामले में हमेशा चौकन्ने रहनेवाले नेता की मृत्यु के पश्‍चात् राजनीति में बहुत बड़ा खालीपन निर्माण हुआ है, यह प्रखर राष्ट्रभक्तों को महसूस हो रहा था। ऐसे समय डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने नागपुर जाकर श्रीगुरुजी से मुलाक़ात कर अपना मन्तव्य ज़ाहिर किया। उस समय श्यामाप्रसादजी राष्ट्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य थे। उन्हें देशहित को सर्वोच्च प्रधानता देनेवाली राजनीतिक पार्टी स्थापन करनी थी। उसके लिए उन्होंने गुरुजी से सहायता माँगी। गाँधीजी की हत्या के साथ संघ का तिनके तक का भी संबंध नहीं था। उलटे सन १९४२  में गाँधीजी की हत्या के षड्यन्त्र की जानकारी संघ ने ही उजागर की थी। ऐसा रहने पर भी संघ का पक्ष प्रस्तुत करनेवाला कोई भी नहीं था, यह बाब सभी को खटक रही थी। संघ को राजनीति में दिलचस्पी नहीं थी और आज भी नहीं है। लेकिन सत्य का पक्ष प्रस्तुत करने के लिए किसी को तो आगे आना ही होगा, उसीसे देश का जनतन्त्र मज़बूत होगा, इस बात पर संघ का विश्‍वास था।

गुरुजी ने श्यामाप्रसाद मुखर्जी को सहयोग देने का आश्‍वासन दिया। संघ के ज्येष्ठ  स्वयंसेवक रहनेवाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, बलराज मधोक, लालकृष्ण अडवाणी और अन्य कुछ स्वयंसेवकों को श्रीगुरुजी ने श्यामाप्रसाद मुखर्जी को सौंप दिया। उसके बाद २१ अक्तूबर १९५१ को नयी दिल्ली में ‘भारतीय जनसंघ’ की स्थापना हुई। श्यामाप्रसादजी जनसंघ के पहले अध्यक्ष बने। सन १९५२ में हुए पहले चुनावों में श्यामाप्रसादजी चुनकर आये थे। सन १९८० में जनसंघ का विसर्जन कर ‘भारतीय जनता पक्ष’ की स्थापना की गयी। यह सारा इतिहास संघ के साथ जुड़ा हुआ है, इसलिए उसपर ग़ौर करना ज़रूरी है।

श्यामाप्रसाद मुखर्जी जैसे नेता को यदि दीर्घायु मिली होती, तो देश को उसका बहुत बड़ा लाभ हुआ होता। सांसदपटु रहनेवाले इन प्रखर राष्ट्रवादी नेता ने, देशहित के कई मुद्दों को लेकर सरकार को खरी खरी सुनायी थी। कश्मीर के बारे में भारत सरकार के द्वारा अपनाया गोल-गोल (अस्पष्ट, दिशाहीन) रवैया श्यामाप्रसाद मुखर्जी को बिलकुल भी मान्य नहीं था। कलम ३७० का स्वीकार कर भारत ने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है, ऐसी चेतावनी स्पष्ट रूप से मुखर्जी दे रहे थे। आज शायद किसी को याद न होगा, लेकिन उस समय कश्मीर का ध्वज अलग?था, कश्मीर का राष्ट्रगीत अलग था और कश्मीर का प्रधानमंत्री भी अलग था। यानी भारत देश में एक ही समय दो प्रधानमंत्री, दो राष्ट्रगीत और दो राष्ट्रध्वज थे। भारतीयों को कश्मीर जाने के लिए अनुज्ञापत्र लेना अनिवार्य था।

यह सबकुछ श्यामाप्रसाद मुखर्जी को कतई मंज़ूर नहीं था। उन्होंने रावी नदी को पार कर, बिना अनुज्ञापत्र लिये ही कश्मीर में प्रवेश किया। हमारे ही देश के भूभाग में जाने के लिए अनुज्ञापत्र किसलिए चाहिए? ऐसा उनका कहना था। इसके लिए उन्हें गिरफ़्तार किया गया और ‘जेल में ही उनकी मृत्यु हो गयी’ ऐसा घोषित किया गया। लेकिन ‘वह उनकी मृत्यु थी या उनका खून’ यह प्रश्‍न आज भी पूछा जा रहा है। उसका निराकरण करनेवाला उत्तर कोई भी नहीं दे सका है। श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने देश के लिए आत्माहुति दे दी। लेकिन उनका यह बलिदान व्यर्थ नहीं गया। सन १९६२  में लालबहाद्दूर शास्त्रीजी प्रधानमंत्री बने और उन्होंने पहली बार कश्मीर का अलग प्रधानमंत्रीपद, अलग ध्वज और अलग राष्ट्रगीत इन्हें ख़ारिज करके कश्मीर को भारत का राज्य बनाया। लेकिन कश्मीर को भारत से अलग रखनेवाला कलम ३७० अभी तक क़ायम है। यह कलम भी उसी वक़्त ख़ारिज किया गया होता, तो शायद जम्मू-कश्मीर अधिक सुरक्षित और आर्थिकदृष्टि से समृद्ध बन चुका होता।

भारत के राजनीतिक नेतृत्व ने समय समय पर की हुई ग़लतियों की क़ीमत हम लोग अभी तक चुका रहे हैं। पहले कश्मीर की समस्या राष्ट्रसंघ में ले जाकर हमने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ही ली थी। लेकिन चीन के बारे में भी ब्रिटिशों ने दी हुई चेतावनी को हमने नज़रअन्दाज़ कर दिया। तिबेट में भारतीय लष्कर की चौकी थी। भारत को आज़ादी प्रदान करते समय, ‘इस चौकी को यहाँ से मत हटाना, उलटा यहाँ का सैनिकबल बढ़ाना’ ऐसा मशवरा पराये ब्रिटिशों ने दिया था। उसका हमारी सरकार ने स्वीकार ही नहीं किया। श्रीगुरुजी ने चीन की विस्तारवादी मानसिकता को लेकर सरकार को चौकन्ने रहने की चेतावनी दी थी। चीन की अरुणाचल प्रदेश पर नज़र है, इस बात की ओर गुरुजी ने सरकार का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया था। चीन स्वतंत्र भारत के सरहदी इला़के में से गुप्त रूप में सड़कें बना रहा है, यह जानकारी गुरुजी को अपने पूर्वांचल के प्रवास मे मिली थी। इसीलिए इस बात की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास उन्होंने किया।

तिबेट में रहनेवाली चौकी हटाने की जो ग़लती हमने की, उस ग़लती के भयंकर परिणाम अब शुरू हो चुके थे। सरकार को अब तो कार्रवाई करनी ही होगी, ऐसी माँग संघ की पत्रिकाओं में से की जाने लगी। लेकिन प्रधानमंत्री नेहरूजी ने चीन के प्रधानमंत्री ‘चाऊ एन लाय’ का भारत में स्वागत किया। ‘चीन भारत का मित्रदेश है’ इस बात को नेहरूजी के गले उतारकर उनका विश्‍वास संपादन करने में चीन सफल हुआ। आगे चलकर क्या हुआ, यह सभी को मालूम है। भारत का ६४ हज़ार स्क्वेअर किलोमीटर इतना भूभाग आज चीन के कब्ज़े में है।
चीन द्वारा भारत की यह भूमि हथियायी जाने पर नेहरूजी को बहुत बड़ा सदमा पहुँचा। चारों ओर से उनकी आलोचना की गयी। इस आक्रमण के बारे में संसद को जानकारी देते हुए नेहरूजी ने ‘यह भूमि ऊपजाऊ नहीं थी, उसमें कुछ भी ऊगता नहीं था’ ऐसी सफाई देने का प्रयास किया। उसपर, काँग्रेस के ही सदस्य रहनेवाले महावीर त्यागी ने नेहरूजी को – ‘वह ज़मीन भले ही बंजर हो, मग़र वह थी तो हमारे देश की ही’ ऐसी खरी खरी सुनायी थी।

चाहे संघ हो या अन्य कोई, वह अगर देशहित के बारे में सरकार को एहतियात बरतने की चेतावनी दे रहा हो, तो उसपर सरकार को गंभीरतापूर्वक विचार करना ही चाहिए। देशहित को मद्देनज़र रखकर ही निर्णय लेना चाहिए। स्वतंत्र भारत की सरकार को ऐसी चेतावनियाँ संघ के द्वारा दी गयी थीं, लेकिन दुनियादारी से बेख़बर ऐसे अपने ही विश्‍व में रममाण हुई सरकार ने उनपर कतई ग़ौर नहीं किया। लेकिन सन्तोषजनक बाब यह थी कि नेहरूजी ने अपनी ग़लती मान ली। सन १९६२  में चीन ने नेहरूजी का विश्‍वासघात कर किये हुए आक्रमण के बाद ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ हमारे लष्कर की सहायता के लिए दौड़ा। उस समय सरहद पर लड़ रहे सैनिकों के लिए खाने का बन्दोबस्त करने से लेकर ज़़ख्मी सैनिकों के लिए रक्तदान करने तक कई सेवाएँ स्वयंसेवकों ने कीं। उस वक़्त देश के पास अत्याधुनिक सुविधाएँ नहीं थीं। ऐसे हालातों में, सैनिकों तक यह सहायता पहुँचाना, उनके और सरहदी प्रान्त की जनता के मनोधैर्य को बढ़ाना अधिक मायने रखता था। संघ ने इस ज़िम्मेदारी का स्वीकार किया और स्वयंसेवकों ने इस काम के लिए अपने आपको समर्पित कर दिया।

‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ के इस कार्य का महत्त्व नेहरू ने भी मान लिया। सन १९६३ के प्रजासत्ताक दिन के संचलन मे सहभागी होने का सम्मान ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ के तीन हज़ार स्वयंसेवकों को प्राप्त हुआ। लयबद्ध संचलन करनेवाले स्वयंसेवक ये उस वर्ष के प्रजासत्ताक दिन का ख़ास आकर्षण साबित हुए।

(क्रमश:)

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