श्रीगुरुजी

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ – भाग १५

pg12_SHriGuruji2यह भारत के सभी नेताओं के नेतृत्व-गुणों की परीक्षा लेनेवाला समय था। इसी मुश्किल समय में गुरुजी ने अपनी अड़िग निष्ठा, वज्रक़ठोर दृढ़-निश्‍चय, अखंड परिश्रम और प्रखर बुद्धिमत्ता से, सभी स्वयंसेवकों में अपने स्नेहभाव के द्वारा नवचेतना और विश्‍वास का निर्माण किया। इसका तेजस्वी और रोमांचक इतिहास, संघ के विस्तार के रूप में आज पूरी दुनिया के सामने खड़ा है।

उम्र के पचासवें वर्ष में आद्य सरसंघसंचालक का देहावसान हो गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के चन्द पंद्रह सालों में ही डॉक्टर केशव बळीराम हेडगेवार की जीवनयात्रा समाप्त हो गयी। इन पंद्रह वर्षों में संघ का कार्य राष्ट्रीय स्तर तक पहुँच चुका था। लेकिन भारत जैसे विशाल देश की तुलना में, संघ का स्वरूप अभी-भी का़फ़ी छोटा था। डॉक्टरसाहब के द्वारा तैयार किये गये स्वयंसेवक अभी भी युवावस्था में ही थे। इस दौरान दुनिया भर में और देश भर में का़फ़ी उथल-पुथल शुरू हुई थी। ऐसे समय में सरसंघचालक की मृत्यु होना, यह बात संघ के सामने एक कडी चुनौती बनकर खड़ी हुई।

ऐसी परिस्थिति में, सभी चुनौतियों को मात देकर, युवा अवस्था में होनेवाले संघ को व्यापक स्वरूप प्रदान करने की ज़िम्मेदारी द्वितीय सरसंघचालक ‘माधव सदाशिव गोळवलकर’ अर्थात पूज्य ‘गुरुजी’ के कंधों पर आ गयी थी। इस समय गुरुजी महज़ ३५ वर्ष के थे। जिस समय डॉक्टरसाहब ने संघ की स्थापना की थी, उस समय वे भी ३५ वर्ष के ही थे, यह एक बहुत बड़ा संयोग साबित होता है। सन् १९४० से लेकर १९७३ तक, ३३ वर्षों के कार्यकाल में गुरुजी ने संघ को राष्ट्रीय एवं आन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहुँचा दिया। गुरुजी पर जब ‘सरसंघचालक’ पद की ज़िम्मेदारी आयी, उस समय दूसरा विश्‍वयुद्ध चल रहा था। देश में अँग्रेज़ों का राज्य था और स्वतंत्रता के लिए शुरू रहनेवाला आंदोलन, संघर्ष तीव्र होता जा रहा था। संघ और संघ के स्वयंसेवक स्वतंत्रता के आंदोलन में विभिन्न प्रकार से सहभागी हो रहे थे।

यह भारत के सभी नेताओं के नेतृत्व-गुणों की परीक्षा लेनेवाला दौर था। इसी मुश्किल दौर में गुरुजी ने अपनी अड़िग निष़्ठा, वज्रक़ठोर दृढ़-निश्‍चय, अखंड परिश्रम और प्रखर बुद्धिमत्ता से, सभी स्वयंसेवकों में अपने स्नेहभाव के द्वारा नवचेतना और विश्‍वास का निर्माण किया। इसका तेजस्वी और रोमांचक इतिहास, संघ के विस्तार के रूप में आज पूरी दुनिया के सामने है। संघ को यह स्वरूप प्रदान करनेवाले, चुनौतियों भरी परिस्थितियों में भी संघ का इतना बड़ा विस्तार सहजता से कर दिखानेवाले ये गुरुजी भला थे कौन? इसकी संक्षिप्त ज़ानकारी हम प्राप्त करेंगे। संन्यास का स्वीकार किये हुए श्रीगुरुजी को डॉक्टरसाहब ने संघ में किस प्रकार सहभागी कर लिया, इसके बारे में हम पहले जान ही चुके हैं।

गुरुजी के पिताजी का नाम ‘सदाशिवराव गोळवलकर’ था और वे नागपुर में रहते थे। बचपन में गुरुजी का घरेलू नाम ‘मधु’ था। उनके माँ-बाप की आठ संतानों की मौत हो चुकी थी। माधवराव उनकी एकमात्र जीवित संतान थे। उस समय नागपुर का समावेश आज के मध्यप्रदेश में किया जाता था। उनके पिता सदाशिवराव प्राध्यापक थे। सदाशिवराव का तबादला हिन्दी भाषीय प्रदेशों में हुआ करता था। इसके कारण उनकी मातृभाषा ‘मराठी’ होने के बावजूद, माधवराव का मराठी के साथ-साथ हिन्दी भाषा पर भी प्रभुत्व था। माधवराव की पढ़ाई ख्रिश्‍चन मिशनरियों के स्कूल में हुई थी, अत: अँग्रेज़ी पर भी उनका प्रभुत्व था। घर का वातावरण सात्त्विक और धार्मिक था।

बचपन में भक्ति-स्तोत्र गाकर ही मधु की माँ उसे नींद से जगाया करती थी। ऐसे अध्यात्मिक संस्कारों का कभी भी न मिटनेवाला प्रभाव गुरुजी के व्यक्तित्व पर हुआ था। युवावस्था में भी गुरुजी, माँ के द्वारा गाये गए इन स्तोत्रों का स्मरण समय-समय पर किया करते थे। माधवराव की तेज़ बुद्धिमत्ता की झलक उनके छात्रजीवन में ही दिखायी देने लगी थी। एक बार उनकी क्लास में उनके महाविद्यालय के प्राचार्य गार्डनर पवित्र बायबल का पाठ पढ़ा रहे थे। उस समय, उनके द्वारा उच्चारित किये गये एक वाक्य का संदर्भ ग़लत था, इस बात की ओर माधवराव ने उनका ध्यान आकर्षित किया। इतना ही नहीं, बल्कि गार्डनर के द्वारा उच्चारित उस वाक्य का संदर्भ, बायबल के किस उद्धरण के साथ मिलताजुलता है, यह भी माधवराव ने सही-सही बताया। गार्डनर ने बायबल में वह संदर्भ देखा और वे समझ गये कि माधवराव का कहना सही है। क्लास समाप्त होने के बाद गार्डनर ने बड़े कौतुक के साथ माधवराव की पीठ थपथपाकर शाबाशी दी। इस घटना से, तेज़ बुद्धिमत्ता के साथ-साथ माधवराव की निडरता और स्पष्टवादिता भी स्पष्ट होती है।

नागपुर में इंटर तक की शिक्षा पूरी होने के बाद ‘बी.एससी.’ करने के लिए माधवराव ने देशभर के विख्यात ‘बनारस हिंदु विश्‍वविद्यालय’ में प्रवेश लिया। इस विश्‍वविद्यालय का प्रचंड ग्रंथालय मानो, माधवराव जैसे ज्ञान-पिपासु, अतुलनीय बुद्धिमत्तावाले छात्र की प्रतीक्षा ही कर रहा था। यहाँ पर माधवराव ने एक के बाद एक ग्रंथ पढ़ना सातत्य से शुरू रखा। एक दिन उनका वाचन चल रहा था, तभी उनके पैर में बिच्छू ने डंक मार दिया। परन्तु माधवराव हमेशा की तरह शांत थे। उन्होंने डंक लगे पैर की उस उंगली में छेद करके खून बहाना शुरू कर दिया और पानी में पोटेशियम परमँगनेट मिलाकर उस पानी में पैर ड़ाल दिया। इसके बाद वे पुनः अपने अध्ययन में व्यस्त हो गये! यह सब देखकर अचंभित हुए एक मित्र ने पूछा कि ‘माधव, इतने भयंकर दर्द के बावजूद तुम भला अध्ययन कैसे कर सकते हो?’ माधवराव ने शांतिपूर्वक अपने मित्र को उत्तर दिया, ‘बिच्छूदंश पैर में हुआ है, मस्तिष्क में नहीं।’ ऐसा कहकर माधवराव ने अपना अध्ययन जारी रखा। आगे चलकर जीवन में गुरुजी ने अपार शारिरीक कष्टों का मुस्कराते हुए सामना किया। बहुत सारे लोग इसके गवाह हैं।

बनारस हिन्दू विश्‍वविद्यालय से ही माधवराव ने ‘एमएससी’ की परीक्षा प्रथम-श्रेणी में उत्तीर्ण की। अगस्त १९३१ से माधवराव इसी विश्‍वविद्यालय में अध्यापन का कार्य करने लगे। इस दौरान उनके व्यक्तित्व के विभिन्न आयाम प्रकाशमान् होकर सामने आने लगे। अपने छात्रों से मन:पूर्वक प्रेम करनेवाले, छात्रों की समझ में ना आनेवाली चीजों को, और अधिक परिश्रम करके समझानेवाले गुरुजी थोड़े ही समय में छात्रप्रिय बन गये। गरीब छात्रों को, उन्हें आवश्यक रहनेवालीं पुस्तकें खरीदकर देने के लिए गुरुजी अपने वेतन का का़फ़ी हिस्सा खर्च किया करते थे। ऐसा करते हुए उन्हें का़फ़ी सन्तोष मिलता था। केवल अपने विषय के छात्रों की ही नहीं, बल्कि अन्य विषयों के छात्रों की सहायता करने के लिये भी गुरुजी पहल किया करते थे। उससे पहले उस विषय को गुरुजी स्वयं समझ लिया करते थे।

गुरुजी की असाधारण प्रतिभा और छात्रों पर के उनके प्रभाव को देखकर ‘बनारस हिन्दू विश्‍वविद्यालय’ के संस्थापक पंडित मदनमोहन मालवीयजी के मन में गुरुजी के प्रति विशेष स्नेह उत्पन्न हुआ। डॉक्टर हेडगेवार के द्वारा नागपुर से पढ़ाई के लिये इस विश्‍वविद्यालय में भेजे गये स्वयंसेवक ‘भैय्याजी दाणी’ यहीं पर सर्वप्रथम गुरुजी के संपर्क में आये। भैय्याजी दाणी के माध्यम से गुरुजी संघ के संपर्क में आये और यहाँ पर चलनेवाली शाखा के संघचालक बन गये। अध्यापन का कार्यकाल पूरा हो जाने के बाद सन १९३३ के फ़रवरी महीने में गुरुजी नागपुर वापस आये। यहाँ पर उन्होंने सन १९३५ में वक़ालत की पढ़ाई पूरी की।

(क्रमश:)

-रमेशभाई मेहता

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