हे गुरुवर

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ – भाग १३

pg12_Dr-Hedgewar1-1संघकार्य के प्रति अपने आपको समर्पित करने का निर्णय माधव सदाशिव गोळवळकर ने लिया। इससे पूज्य डॉक्टरसाहब बहुत ही आनंदित हो गये। संघ को मिला हुआ यह ईश्‍वरीय वरदान है, ऐसा डॉक्टरसाहब को लग रहा था। अब भविष्य में संघ का कार्य और भी व्यापक होगा और संघ का विस्तार होगा, इसका विश्‍वास डॉक्टरसाहब को था। डॉक्टरसाहब बड़े पैमाने पर संघ के विस्तार की योजनाएँ बनाने लगे। काम के सिलसिले में विभिन्न स्थानों पर जानेवाले स्वयंसेवकों को ‘वहाँ पर संघ की शाखा स्थापित करनी चाहिये’ ऐसी सूचना डॉक्टरसाहब ने की थी। इसका प्रभाव दिखायी देने लगा था। विदर्भ, मध्य भारत और महाराष्ट्र में तेज़ गति से संघ का विस्तार होने लगा। माधवराव को नागपुर में ही रहकर संघ के संगठनकार्य को संभालने की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी थी। माधवराव डॉक्टरसाहब के कंधे से कंधा मिलाकर काम करने लगे।

माधवराव ‘बनारस हिन्दु युनिव्हर्सिटी’ में प्राध्यापक थे। यहाँ पर कुछ छात्र उन्हें ‘गुरुजी’ कहा करते थे। उनकी दाढ़ी देखकर छात्र का़फ़ी प्रभावित हुआ करते थे। छात्रों ने उनसे दाढ़ी रखने की विनति की थी। ‘दाढ़ी के कारण आपका प्रभाव बढ़ता है, आप दाढ़ी मत बनवाओ’ ऐसी प्रेमपूर्ण माँग छात्रों ने की। यह सुनकर प्राध्यापक माधवराव हँसने लगे। उन्होंने आजीवन दाढ़ी बरक़रार रखी। यह दाढ़ी उनके व्यक्तित्व को बहुत ही शोभा देती थी। माधवराव को लोग भी ‘गुरुजी’ कहने लगे।

सरसंघचालक पूज्य डॉक्टरसाहब ने स्वातंत्र्यवीर सावरकर से प्रार्थना की कि ‘यदि हम दोनों ने मिलकर विभिन्न स्थानों पर प्रवास किया, तो संघ का कार्य और भी तेज़ गति से बढ़ेगा।’ डॉक्टरसाहब का यह कहना सावरकरजी ने मान लिया। संघ के अन्य स्वयंसेवकों के साथ डॉक्टरसाहब और स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने महाराष्ट्र, मध्य भारत में प्रवास किया। इसके फ़लस्वरूप बड़ी मात्रा में जागृति हुई और उसका का़फ़ी लाभ संघ को हुआ। कुछ समय बाद, स्वातंत्र्यवीर सावरकर को नागपुर की शाखा में आमंत्रित किया गया। यह सन् १९३७ की बात है। इस अवसर पर सावरकर ने अपना मनोगत व्यक्त किया। स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए स्वातंत्र्यवीर ने कहा, ‘मातृभूमि की दयनीय अवस्था को दूर करने के लिए चाहे जितना भी संघर्ष क्यों न करना पड़े, मग़र संघ के स्वयंसेवक इस संघर्ष से पीछे नहीं हटेंगे। स्वयंसेवकों में मैं हिन्दुस्थान का उज्ज्वल भविष्य देख रहा हूँ। यदि हम संघटित हो गए, तो दुनिया की कोई भी ताकत हमें झुका नहीं सकेगी।’

‘जाति-पाति के, उच्च-नीच के भेदभाव के कारण हमारे राष्ट्र का का़फ़ी नुकसान हुआ है। इसका फ़ायदा विदेशी, विधर्मी आक्रमणकारियों ने उठाया। परन्तु संघ की शाखा में, किसी भी प्रकार का भेदभाव न करते हुए लोग संघटित हो रहे हैं, यह देखकर मुझे अति-आनंद हो रहा है। मैं ऐसा ही समाज देखना चाहता था’ ऐसे प्रशंसात्मक उद्गार स्वातंत्र्यवीर ने इस अवसर पर व्यक्त किए।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ महासागर की तरह है। जिस तरह महासागर अनेकों नदियों-प्रवाहों को अपने आप में समा लेता है और साथ ही साथ, अपनी विशेषताओं को भी कायम रखता है, वैसा ही संघ के बारे में भी है। संघ की शाखा में महात्मा गाँधीजी आये थे, नेताजी सुभाषचंद्र बोस भी आये थे, काँग्रेस के नेता और सरदार पटेल के बड़े भाई विठ्ठलभाई पटेल भी संघ की शाखा में आये थे। विभिन्न प्रकार के राजनीतिक एवं सामाजिक उद्देश्यों के बारे में आग्रही रहनेवाले ये दिग्गज नेता, संघ द्वारा किये जा रहे कार्य की तहे दिल से प्रशंसा किया करते थे। गाँधीजी और सावरकरजी को, उस समय संघ के द्वारा सामाजिक समरसता के लिए किया गया कार्य बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रतीत हो रहा था, यह बात हमें ध्यान में रखनी चाहिए।

संघ की शाखा में प्रतिदिन परमपवित्र भगवे ध्वज को प्रणाम करके प्रार्थना की जाती है। शुरू-शुरू में यह प्रार्थना अलग थी।

नमो मातृभूमि जिथे जन्मलो मी।
नमो आर्यभूमि जिथे वाढलो मी॥
नमो धर्मभूमि जियेच्याच कामी।
पडो देह माझा सदा ती नमी मी॥

(जहाँ मेरा जन्म हुआ, उस मातृभूमि को मेरा प्रणाम। जहाँ मैं पला-बढ़ा, उस आर्यभूमि को मेरा प्रणाम। इस धर्मभूमि को मेरा प्रणाम और इसी के कार्य के लिए मेरा देह समर्पित हो। मैं सदैव मेरी इस मातृभूमि को प्रणाम करता हूँ।)

हे गुरो श्रीरामदूता शील हमको दीजिये।
शीघ्र सारे सद्गुणों से पूर्ण हिंदू कीजिये।
लीजिये हमको शरण में रामपंथी हम बनें।
ब्रह्मचारी धर्मरक्षक वीरव्रतधारी बनें॥
॥ भारत माता की जय॥

जहाँ-जहाँ पर भी शाखाएँ चलती थी, वहाँ यही प्रार्थना हुआ करती थी। इस प्रार्थना की पहली चार पंक्तियाँ मराठी में तथा शेष चार पंक्तियाँ हिन्दी में हैं। शुरू-शुरू में कार्यक्रम के लिए लष्कर की तरह आदेश दिये जाते थे। स्वयंसेवकों के लिए गणवेश भी पहले ही तय किया जा चुका था। खाकी हाफ़ पैंट, स़फ़ेद शर्ट, पट्टा, काली टोपी, बूट, पट्टीस् और पुंगणी। संघ का यह गणवेश स्वयंसेवकों को स्वयं अपनी जेब से खरीदना पड़ता था। समय के अनुसार इसमें कुछ बदलाव आये। वर्तमान समय में पट्टीस और पुंगणी तथा चमड़े के इस्तेमाल को रोकने के लिए कपड़े का पट्टा और अलग प्रकार के बूट, इन्हें गणवेश में समाविष्ट किया गया।

संघकार्य को बढ़ाते समय, समर्थ रामदास स्वामी, शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप और गुरुगोविन्दसिंहजी का आदर्श सामने रखा जाता था।

वर्धा ज़िले के सिंदी में सन् १९३९ में संघ की एक विशेष बैठक आयोजित की गयी थी। इसमें पूज्य डॉक्टरसाहब, पूज्य गुरुजी, बालासाहेब देवरस, आप्पाजी जोशी, विठ्ठलराव पत्की, नानासाहेब टालाटुले, तात्याराव तेलंग, बाबाजी सालोडकर और कृष्णराव मोहरीर उपस्थित थे। इस अवसर पर, संघ की सभी आज्ञाओं को संस्कृत में दिये जाने का निर्णय लिया गया।

सन् १९३९ में ही यह संस्कृत प्रार्थना तैयार हुई और तभी से आज तक संघ की शाखाओं में यही प्रार्थना की जा रही है। ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि’ इस प्रार्थना की जानकारी, संघ के साथ थोड़ासा भी संबंध आये हुए लोगों को मालूम होती ही है।

सिंदी में सन् १९३९ में हुई इस बै़ठक में, संघकार्य को बढ़ाने के लिए संपूर्ण देश में ‘प्रचारक व्यवस्था’ शुरू करने का महत्त्वपूर्ण निर्णय भी लिया गया। शुरू-शुरू में, संघ के स्वयंसेवक यदि किसी दूसरे स्थान जाते थे, तो वहाँ पर भी शाखा शुरू कर देते थे। परन्तु ‘प्रचारक व्यवस्था’ इससे पूरी तरह भिन्न थी। जो स्वयंसेवक अपना परिवार छोड़कर आजीवन संघकार्य के लिये अपने आप को समर्पित करने की तैयारी दर्शाते थे, उन्हें ही ‘प्रचारक’ के रूप में चुना जाता था। जब डॉक्टरसाहब संघ के ‘सरसंचालक’ थे, उस दौरान दादाराव परमार्थ, बाबासाहेब आपटे, काकासाहेब देवरस, भाऊराव देवरस इत्यादि लोग ‘प्रचारक’ के रूप में देश के विभिन्न भागों में काम करने लगे थे।

जाति-पाँति में बिखरे हिन्दू समाज को एकजुट करने का काम आसान नहीं था। इतने वर्षों से समाज में जड़ें फ़ैलायी हुईं इन प्रवृत्तियों को दूर करना, यह बहुत ही कठिन चुनौती थी। ‘यह बात मुश्किल ज़रूर है, लेकिन नामुमक़िन नहीं, ऐसा विश्‍वास डॉक्टरसाहब को था। उसके लिए उन्होंने अपना जीवन तो समर्पित कर  ही दिया था, मग़र दूसरों को भी उसके लिए प्रेरणा दी। डॉक्टरसाहब संघ के लिए रात-दिन प्रयासरत रहते थे। अपनी तबियत का भी खयाल ना करते हुए डॉक्टरसाहब के द्वारा किये हुए अथक कार्य के बेहतरीन परिणाम भी दिखायी देने लगे थे।

देश के विभिन्न प्रान्तों में संघकार्य तेज़ी से बढ़ रहा था और यहाँ पर संघशिक्षावर्ग भी होने लगे। प्रतिवर्ष गर्मियों की छुट्टी में स्वयंसेवक, अपने पैसे खर्च करके ‘विशेष प्रशिक्षण वर्ग’ आयोजित करते हैं। उसी को ‘संघशिक्षावर्ग’ कहा जाता है। इस वर्ग के फ़लस्वरूप स्वयंसेवकों का व्यक्तित्व सुघटित हो जाता है और राष्ट्र, धर्म और समाज के लिए सर्वस्व न्योछावर करने की भावना इससे दिल में गहराई तक दृढ़ हो जाती है। इस प्रकार के संघशिक्षावर्ग में सैकड़ों स्वयंसेवक स्वखर्च से सहभागी होने लगे। संघकार्य की इस प्रगति को देखकर कई लोग प्रभावित हुए।

लाहोर, कराची, दिल्ली, लखनऊ, पटना, कलकत्ता, पुणे, मुंबई, अहमदाबाद, जयपूर, मद्रास इत्यादि जगहों पर संघकार्य तेज़ गति से बढ़ने लगा। इस दौरान आराम ना करते हुए अखंडित रूप में परिश्रम करनेवाले डॉक्टरसाहब का स्वास्थ बिघड़ने लगा था। फ़िर भी संघ के इस विस्तार को देखकर डॉक्टरसाहब मन ही मन बहुत ही आनंदित होते थे। संघ का कार्य भविष्य में आगे बढ़ता ही रहेगा, ऐसा आत्मविश्‍वास डॉक्टरसाहब को महसूस हो रहा था।

‘यदि मैं इस दुनिया से चला भी जाऊँ, तब भी उसका संघ के कार्य पर कोई असर नहीं होगा, संघ बढ़ता ही जायेगा।’ यह विचार डॉक्टरसाहब को सु़कून देता था। परमपवित्र भगवे ध्वज की ओर देखकर, मन ही मन प्रार्थना करते हुए डॉक्टरसाहब आशीर्वाद माँगा करते थे – ‘हे गुरुवर, मेरे द्वारा शुरू किया गया यह कार्य उत्तरोत्तर बढ़ता ही रहें और हिन्दू समाज को आपका मार्गदर्शन मिलता ही रहें।’
(क्रमश:……………….)

-रमेशभाई मेहता

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