राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

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‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ की स्थापना सन १९२५ में हुई। डॉ. केशव बळीराम हेडगेवार ने नब्बे वर्ष पहले बोये हुए बीज का रूपान्तरण अब एक विशाल वटवृक्ष (बरगद का पेड़) में हो चुका है। इस वटवृक्ष की शाखाएँ कितनी, पत्ते कितने इसकी गणना करना मुश्किल है। लेकिन यह संगठन भारतीय जनमानस में बहुत ही दृढ़तापूर्वक अपनी जड़ें फैलाकर समर्थ रूप में खड़ा है और वटवृक्ष की ही गति एवं शैली में विकास कर रहा है। केवल देश में ही नहीं, बल्कि जहाँ कहीं भी भारतीय हैं, उन सभी देशों में संघ कार्यरत है ही। इतना ही नहीं, बल्कि विदेशस्थित भारतीयों को अपने देश के साथ, संस्कृति के साथ दृढ़तापूर्वक जोड़कर रखनेवाला ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ यह संगठन नहीं, बल्कि परंपरा बन चुका है।

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प्रखर देशभक्ति, जाज्ज्वल्य धर्मनिष्ठा और मूल भारतीय संस्कृति का पुरस्कार करनेवाले संघ के विचारों के साथ उत्तरदायित्व माननेवालों की संख्या बड़ी है। उसी समय, संघ की संगठनकुशलता, कार्यशैली और देश पर आये, परचक्र से लेकर नैसर्गिक आपदाओं तक के दौरान सहायता के लिए दौड़कर आनेवाले संघ का कार्य बेजोड़ है। हाल ही में, चन्द कुछ महीनें पहले नेपाल में आये भूकंप के दौरान कइयों ने इस बात का अनुभव किया। संघ के स्वयंसेवकों ने नेपाल के आपदाग्रस्त बान्धवों के लिए आगे बढ़ाया सहायता का हाथ, यह संघ के बारे में कुछ ख़ास जानकारी न रहनेवालों के लिए अचरज की बात थी। क्योंकि इनमें से कइयों ने संघ के बारे में जो कुछ सुना था, पढ़ा था, वह बहुत ही अलग था। उनके मन में रहनेवाली संघ की प्रतिमा इससे बहुत ही अलग थी।

इसका कारण यह है कि जिस प्रकार संघ पर निष्ठा रखनेवाले, संघ के साथ जोड़े गये अनगिनत लोग देश में हैं, उसी प्रकार संघ की ओर सन्देह की दृष्टि से देखनेवाले भी हैं; किंबहुना संघ का कड़ा विरोध करनेवालों का प्रस्तुतीकरण बहुत ही आक्रमक होता है। संघ की विचारधारा, संघ का तत्त्वज्ञान मान्य न रहनेवाले लोग जी-जान से संघ के विरोध में मतप्रदर्शन करते आये हैं, आज भी कर रहे हैं। संघ पर इसका कुछ भी असर नहीं होता। स्वयं पर हो रही आलोचना का संघ के द्वारा जवाब दिया गया, ऐसा प्रायः दिखायी नहीं देता। अपने विचारों एवं कार्य पर निष्ठा रखते हुए संघ आगे मार्गक्रमणा करते रहता है या ङ्गिर अपने कार्य के माध्यम से विरोधी प्रचार का उत्तर देता रहता है। यह भी संघ की परम्परा का भाग माना जाता है।

जिस तरह अपने कार्य का प्रचार करने में, उसके बारे में जानकारी देने में संघ को दिलचस्पी नहीं है, ठीक उसी तरह अपने विरोधकों को जवाब देने में संघ अपना समय बरबाद नहीं करता। संघ पर दृढ़ विश्‍वास रहनेवालों की भाषा में कहा जाये, तो ‘संघ के विरोध में लिखा जानेवाला साहित्य यह ‘विनोदी साहित्य’ (मज़ाकिया साहित्य) रहता है, उसका सत्य के साथ कोई नाता नहीं होता है।’ आलोचना पर इस तरह की प्रतिक्रिया देकर आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़नेवाले स्वयंसेवक, यह संघ की पहचान बन चुकी है। संघ के विचारों पर, परंपरा पर रहनेवाली निष्ठा यह जिनके जीवन का अविभाज्य हिस्सा है, ऐसे लोग संघ पर की जानेवाली आलोचना से विचलित हुए हैं ऐसा दृश्य दिखायी नहीं देता।

लेकिन जनसामान्य संघ के बारे में रहनेवाले इन दो मतप्रवाहों से हैरान होते रहते हैं। एक तऱफ संघ के साथ जुड़ा हुआ विशाल जनसमुदाय; वहीं, दूसरी तऱफ संघ पर बरसनेवाले, संघ की विचारधारा की कड़ी आलोचना करनेवाले लोग, ऐसा चित्र आम भारतीय गत कई दशकों से देखता आया है। संघ को देश की राजनीति में दिलचस्पी नहीं है। लेकिन संघ के दो स्वयंसेवकों ने इस देश का ‘प्रधानमंत्री’पद आभूषित किया है। ‘संघ ने मेरे जीवन को दिशा दी और इसी कारण साधारण घर से आया मैं इस सर्वोच्च पद तक पहुँच सका’ यह बात ‘प्रधानमंत्री’पद विभूषित करनेवाले ‘अटल बिहारी वाजपेयी’ एवं ‘नरेन्द्र मोदी’ इन दोनों ने भी गर्व से कही। साथ ही, संघ पर जताये जानेवाले आक्षेप और विरोध यह सारा कलुषित मनोवृत्ति का और ग़लत़फहमी का हिस्सा है। पहले विरोध में खड़े हो चुके कई लोग, ग़लत़फहमी दूर होने के बाद संघ के प्रति सम्मान की भावना व्यक्त करते हैं, ऐसे कई उदाहरण दिये जाते हैं।

मग़र फिर भी ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ – ‘आरएसएस’ पर होते रहे गंभीर आरोपों के कारण, चरमसीमा के विरोध के कारण इस संगठन के प्रति एक ही समय पर सम्मान की भावना, शक़ और अनामिक गूढ़ता का वलय निर्माण हो चुका है। मिनटमिनट को ‘ब्रेकिंग न्यूज’ देनेवाले माध्यम (मीड़िया) इस वलय को अधिक ही गहरा बना रहे हैं। लेकिन संघ के पक्ष में और विरोध में खड़े होनेवालों के बीच के वैचारिक मतभेद इतने तीव्र हैं कि उसके कारण, संघ कैसा है, संघ के ध्येय-नीतियाँ क्या हैं, अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए संघ किस मार्ग से आगे मार्गक्रमणा कर रहा है, इस बारे में नयी ग़लत़फहमियाँ निर्माण हो रही हैं। ऐसे हालात में ‘संघ अपनी भूमिका का समर्थन क्यों नहीं करता, इस बात को महत्त्व क्यों नहीं देता’ ऐसे कुछ प्रश्न आज की पीढ़ी के मन में उठ रहे हैं। इस कारण, संघ के साथ जुड़े जानेवाले लोगों की संख्या जितनी बढ़ रही है; उतनी ही, वर्तमान राजकीय-सामाजिक माहौल में अपने विरोध में हो रहे प्रचार का उत्तर न देनेवाले संघ के बारे में मन में प्रश्न उठनेवाले लोगों की संख्या भी बड़ी है।

इसीलिए आवश्यकता है, वह संघ को जान लेने की। संघ के विचार, स्थापना से लेकर आज तक ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ ने दिये हुए योगदान की जानकारी और महत्त्व निष्पक्ष रूप में जान लेना ही अधिक श्रेयस्कर साबित होगा। किसके विचारों का स्वीकार करें और किसके विचारों को ठुकरायें, इस बात की आज़ादी हर एक को रहती ही है। लेकिन विचारों का स्वीकार या इनकार करने से पहले, उन विचारों को सुचारु रूप से समझ लेने की प्रक्रिया परिपक्व लोग कभी भी नहीं टालते और ‘संवाद’ यह इस प्रक्रिया का सबसे अहम हिस्सा साबित होता है। ‘दैनिक प्रत्यक्ष’ में आज से प्रकाशित होनेवाली यह लेखमाला – ‘चालता बोलता इतिहास’ यही ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ के बारे में रहनेवाला वह संवाद है।

बचपन से ही संघ के साथ जुड़े रहे और सारा जीवन संघ के लिए समर्पित किये हुए ‘रमेशभाई मेहता’ संघ का यह इतिहास हमारे सामने प्रस्तुत करनेवाले हैं। स्वतन्त्रतापूर्व समय में सम्पन्न परिवार में जन्म हुए रमेशभाई ने बचपन में ही संघ की शाखा में कदम रखा; और उसके बाद उनके जीवन का हर एक कदम संघ के निर्देश पर ही पड़ता रहा और आज भी उनकी यह मार्गक्रमणा शुरू है। ७३ वर्ष की आयु में भी, अपने से आधी उम्र के युवाओं को भी लज्जित कर दें ऐसा उत्साह रमेशभाई के पास है। इतिहास के छात्र रहनेवाले रमेशभाई के पास इतिहास की ओर देखने की एक अलग ही दृष्टि है, यह भी उनके साथ बातचीत करते हुए हमारी समझ में आ जाता है। ‘सन १८५७ के संग्राम को ‘बग़ावत’ क्यों कहा जाता है’ ऐसा प्रश्न रमेशभाई ने छात्रावस्था में रहते हुए ही पूछा था, यह एक उदाहरण इस बात की पुष्टि करने के लिए का़फी है।

संघ के विचार, धारणाएँ अपने जीवन में उतारकर अन्यों के मन में भी उसकी प्रेरणा निर्माण करने का काम रमेशभाई जीवनभर करते आये हैं। बहुत ही व्यासंगी, बहुश्रुत और देश में ही नहीं, बल्कि विदेश जाकर भी संघ का सेवाकार्य करनेवाले रमेशभाई ने, विदेशस्थ भारतीयों को अपनी मातृभूमि के साथ जोड़े रखने का महत्त्वपूर्ण काम किया और आज भी वे अपरिमित उत्साह के साथ इस कार्य में व्यस्त हैं। ‘भारतीय चाहे दुनिया के किसी भी कोने में हों, वे भले ही सोते किसी अन्य देश में हों, मग़र उनके दिन की शुरुआत होती है, वह भारत में ही’ यह रमेशभाई का अनुभव है। विदेशस्थ भारतीयों की अपने देश के प्रति रहनेवाली आत्मीयता देश तक पहुँचाने का कार्य भी रमेशभाई बड़ी लगन के साथ करते आये हैं।

‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ ने आज तक सौंपी हुई हर एक ज़िम्मेदारी को बख़ूबी निभाने की आदत रमेशभाई ने स्वयं को डाल दी है। संघचालक, विश्व हिन्दु परिषद के मुंबई महानगर अध्यक्ष, विश्व हिन्दु परिषद के विश्व विभाग के समन्वयक ऐसे कई महत्त्वपूर्ण पद उन्होंने विभूषित किये हैं। फिलहाल संघप्रणित ‘सेवा इंटरनॅशनल’ इस, भारत के साथ तक़रीबन १८ देशों में कार्यरत रहनेवाली संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में रमेशभाई मेहता काम सँभाल रहे हैं।

रमेशभाई कलाप्रेमी हैं। ऑर्केडियन वादक के रूप में और उसके पश्चात् संगीतकार के रूप में उन्होंने काम किया है। ख़ानदानी व्यवसाय में उतरकर उस व्यवसाय को एक अलग ही बुलन्दी पर पहुँचाने की उद्यमशीलता रमेशभाई ने दिखायी। संगीत, सिनेमा और नाटकों के क़द्रदान (फॅन) होनेवाले रमेशभाई ने अपना प्रॉडक्शन हाऊस भी शुरू किया। उनके साथ बातें करते समय कई मराठी नाटकों के सन्दर्भ एकदम सहजतापूर्वक उनकी बातों में आते हैं। गुजराती नाटकों में उन्होंने अभिनय भी किया है। लेकिन यह सब करते हुए भी, संघकार्य के प्रति रहनेवाले अपने उत्तरदायित्व को वे कभी भी नहीं भुले; किंबहुना इनमें से कुछ बातें अपने कार्य में अवरोध पैदा कर सकती हैं, इसका एहसास होते ही उन्होंने खुद को उन बातों से अलग कर दिया।

संघ के लिए और संघ के माध्यम से समाज के लिए, संस्कृति के लिए, मातृधर्म के अभ्युदय के लिए प्रयास करनेवाले रमेशभाई केवल राष्ट्रीय संघ का ही नहीं , बल्कि स्वतन्त्रतापश्चात् की कई महत्त्वपूर्ण गतिविधियों का ‘चालता बोलता इतिहास’ ही हैं। इसलिए इतिहास ही जीवित होकर हमारे साथ मुक्त रूप में संवाद कर रहा है, इसका अनुभव हुए बग़ैर नहीं रहेगा। 

(क्रमश:)

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