परमहंस-५५

भैरवी के मार्गदर्शन में रामकृष्णजी की तांत्रिक साधना शुरू थी; लेकिन रामकृष्णजी अपने संपर्क में आनेवाले हर एक से कुछ न कुछ ग्राह्य बातें सीख ही रहे थे, फिर चाहे वह कोई शास्त्रीपंडित हों या दक्षिणेश्‍वर में ठहरा कोई साधुबैरागी। ऐसी कोई बात सीखते हुए, जिस प्रकार कोई नन्हा बालक कोई नयी बात सीखते समय अपूर्व कौतुक के साथ सीखता है, वैसा रामकृष्णजी के साथ होता था। आगे चलकर अपने इस प्रवास के बारे में अपने शिष्यों को बताते समय भी उनकी बातों से वह कौतुक हमेशा छलकता था।

ग्राह्य बातें

एक बार उन्होंने दक्षिणेश्‍वर आये एक – दुनिया को पागल ही प्रतीत होनेवाले साधु के बारे में बात करते हुए अपने शिष्यों से कहा था कि ‘वह हालाँकि दुनिया को पागल लगता हो, लेकिन वह पागलपन आम पागलपन नहीं था, बल्कि ईश्‍वर से मिलने की आस उसे लगी थी। उसे कपड़ों तक की सूझबूझ नहीं रहती थी। कोई भी मोटाभद्दा कपड़ा वह लपेट लेता था। कई बार वह भिख़ारियों के साथ रहता था, उनकी जूठी पत्तल में ही खाता था। कभी इस जूठी पत्तल में खाते समय कोई कुत्ता भी उसके साथ रहता था। फिर वह साधु और वह कुत्ता, दोनों एक ही पत्तल से खाते थे। उसका यह आचरण देखते ही मुझे पता चला कि यह साधारण पागलपन नहीं है, यह तो ईश्‍वरदर्शन की आस है। मैंने वैसा हृदय को बताया भी। फिर हृदय ने उस साधु के पास जाकर, उसे भी ईश्‍वरदर्शन की देवदर्शनाची इच्छा है यह बताते हुए, मार्गदर्शन करने की विनति की। लेकिन उस साधु ने हृदय को कई बार भगा दिया। जब हृदय ने अपनी ज़िद नहीं छोड़ी, तब एक बार वह साधु उसे गंगाकिनारे ले गया और एक हाथ में गंगा के किनारे पर का कीचड़ और दूसरे हाथ में गंगानदी का पानी लेकर हृदय से कहा कि ‘जब इन दोनों हाथों में रहनेवाला पानी तुम्हें एक ही प्रतीत होने लगेगा, तब तुम्हें ईश्‍वर के दर्शन होंगे।’ लेकिन जब हृदय ने उसे अधिक मार्गदर्शन करने की विनति की, तब उसने रास्ते पर पड़े पत्थर उठाकर हृदय को मारना शुरू किया और उसे वहाँ से भगा दिया।’

उस दौर में रामकृष्णजी ने हासिल किये आध्यात्मिक मुक़ाम की और इतनी ऊँचाई प्राप्त करने के बावजूद भी बरक़रार रही उनकी सादगी की ख्याति देशभर में फैलने लगी थी। उस कारण, ऐसे साधुबैरागियों के साथ साथ, बाहरी जगत में शास्त्रार्थों के या अन्य विषयों के ज्ञानी पंडित के रूप में मशहूर हुए कई जन भी उनके संपर्क में आ रहे थे और उनके चरणों में लीन होने लगे थे। राजस्थान के श्रेष्ठ वेदांतज्ञानी पंडित नारायण शास्त्री, बरद्वान के राजा के दरबार के मुख्य पंडित पद्मलोचन तर्कालंकार ये उनमें से ही कुछ नाम हैं।

नारायणशास्त्री ने वेदांत में षट्दर्शन आदि बातों का गहरा अध्ययन किया था। इस अध्ययन को पूरा करने के लिए उन्होंने, जयपूर के राजा ने दी हुई मोटी तऩख्वाह और सम्मान प्रदान करनेवाली मुख्य पंडित की नौकरी भी ठुकरायी थी। लेकिन शास्त्रीपंडितों में उन्हें कितना भी सम्मान क्यों न हों, उनकी मूल बैठक भक्ति की ही होने के कारण, महज़ पढ़ाई करके अपनी प्रगति होनेवाली नहीं है, उसके लिए अनुभव ही चाहिए, इस बात को वे मन ही मन जानते थे। इसी वेदान्त के अध्ययन के उपलक्ष्य में वे बंगाल के नादिया ज़िले में कुछ साल एक गुरु के पास रहे थे। इसी दौरान उन्हें रामकृष्णजी के बारे में पता चला। पढ़ाई ख़त्म करके घर लौटते समय वे दक्षिणेश्‍वर आये, उन्होंने रामकृष्णजी को देखा और रामकृष्णजी ने उनका मन जीत लिया! इतना ऊँचा आध्यात्मिक मुक़ाम हासिल किये रामकृष्णजी की सादगी से प्रभावित होकर उन्होंने रामकृष्णजी के चरणों में ही जीवन समर्पित करने का निश्‍चय किया। आगे चलकर उन्होंने रामकृष्णजी से संन्यास की दीक्षा? भी ग्रहण की और अपना उर्वरित जीवन उन्होंने नये नये लोगों को रामकृष्णजी का परिचय देने में व्यतीत किया।

लेकिन इतनी ऊँचाई हासिल करके भी अपने आपको अभी तक प्राथमिक अवस्था के साधक ही माननेवाले रामकृष्णजी कभी कभार किसी की आध्यात्मिक ख्याति सुनने के बाद स्वयं होकर भी उसके पास जाते थे, उसके दक्षिणेश्‍वर आने की प्रतीक्षा नहीं करते थे। पंडित पद्मलोचन ऐसे ही एक पंडित थे। बरद्वान के राजा के दरबार में वे मुख्य पंडित थे और शास्त्रीपंडितों की सभाओं में उन्हें काफ़ी इज़्ज़त दी जाती थी। लेकिन उनकी भी बैठक मूलतः भक्ति की ही होने के कारण वे केवल क़िताबी ज्ञान से संतुष्ट नहीं थे, बल्कि ईश्‍वरदर्शन की भी आस उनके मन में थी। रामकृष्णजी तक उनकी ख्याति पहुँचते ही उन्होंने मथुरबाबू से कहकर, पंडित पद्मलोचन से भेंट की। पहली ही मुलाक़ात में पद्मलोचन उनके व्यक्तित्व से भारित हो गये थे। ‘मैंने इतनी बड़ी मात्रा में ग्रंथ पढ़कर जितना नहीं कमाया होगा, उससे कई गुना अधिक, किसी ग्रंथ का एक पान भी शायद न पढ़े हुए उस इन्सान ने कमाया है’ ऐसा पद्मलोचन ने उपस्थितों को बताया और वे जीवनभर रामकृष्णजी के भक्त बनकर रहे।

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