परमहंस – ४८

राणी राशमणि की मृत्यु के साथ दक्षिणेश्‍वर कालीमंदिर का एक महत्त्वपूर्ण पर्व समाप्त हो गया था। लेकिन समय किसी के लिए भी रुकता नहीं है, यही सच है। धीरे धीरे मंदिर की सारी गतिविधियाँ पुनः पूर्ववत शुरू हुईं। रामकृष्णजी भी अपने उपासनामार्ग पर तेज़ी से मार्गक्रमणा कर ही रहे थे।

लेकिन अब इस मार्ग पर उनका पहला मार्गदर्शक उनके जीवन में प्रवेश करने की घड़ी क़रीब आ चुकी थी।

ऐसे ही एक दिन सुबह रामकृष्णजी मंदिर की बाग में पूजा के लिए फूल इकट्ठा कर रहे थे कि तभी उनकी नज़र दूर से दिखनेवाले गंगानदी के घाट की ओर मुड़ी और वे चौंक गये। गंगानदी के उस घाट पर अभी अभी एक बड़ी नैया आकर रुकी थी और उसमें से एक लगभग चालीस साल की स्त्री उतर रही थी। बहुत ही तेजःपुंज दिखनेवाली इस स्त्री के बाल खुले छोड़े हुए थे। भगवे रंग की साड़ी पहनी यह स्त्री किसी संन्यासन की तरह ही दिख रही थी। अपने थोड़ेबहुत कपड़े, कुछ पोथियाँ-पुस्तकें आदि वस्तुएँ एक गठरी में समेटकर उसने वह गठरी हाथ में ली थी। वह आकर उस विस्तीर्ण घाट पर एक कोने में जाकर बैठ गयी।

उसे देखते ही रामकृष्णजी चौंक गये और तेज़ी से अपने कमरे में लौट आये। उन्होंने अपने भाँजे – हृदय को बुलाया और वह आने के बाद दूर से ही उसे वह स्त्री दिखाकर, उस स्त्री को यहाँ पर ले आने के लिए उसे कहा।

उपासनामार्ग

हृदय अचम्भे में पड़ गया था। उसने आज तक किसी भी स्त्री के साथ बात करने के लिए इतना बेसब्र हुआ अपने मामा को कभी नहीं देखा था। और तो और, एक परायी, कोई भी पूर्वपरिचय न रहनेवाली, गाँव में पहली ही बार आयी हुई स्त्री को जाकर – ‘मेरे मामा तुम्हें बुला रहे हैं’ ऐसा कहने की उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी। हालाँकि मामा को सीधे सीधे ‘ना’ कहने की भी उसकी हिम्मत नहीं थी, मग़र फिर भी उसने इन सारीं दिक्कतों का राग अलापकर रामकृष्णजी को इससे परावृत्त करने का दुर्बल प्रयास करके देखा; लेकिन रामकृष्णजी ने उसे – ‘तुम उसे मेरा नाम बताकर, मैं बुला रहा हूँ इतना कहो, फिर वह आ जायेगी’ ऐसा निश्‍चयपूर्ण स्वर में कहा।

अपना मामा जब कोई बात करने की ठान लेता है, तो फिर वह उस बात को किये बिना चैन की साँस नहीं लेता, यह मालूम होने के कारण, मजबूरन् हृदय अपने बताये काम पर निकला।

उसने जाकर रामकृष्णजी का संदेश उस स्त्री को बताया और धड़कते दिल से यह देखने लगा कि उस स्त्री की उसपर क्या प्रतिक्रिया होती है।

लेकिन जैसा वह सोच रहा था वैसा कुछ भी घटित नहीं हुआ। ना वह स्त्री ग़ुस्सा हुई और ना ही उसपर चिल्लायी….उल्टा रामकृष्णजी का नाम सुनकर वह स्त्री झट से अपनी जगह से उठ गयी और बिना किसी शब्द का उच्चारण किये वह हृदय के साथ चलने लगी।

अब हृदय का अचंभा सभी हदों को पार कर चुका था। यह सबकुछ उसके तर्कों से परे था। ना जाने कौनसी यह अनजान स्त्री पहली बार दक्षिणेश्‍वर आती है, अपना मामा उसे दूर से देखकर उसे अपने पास लाने के लिए क्या मुझसे कहता है और रामकृष्णजी का नाम सुनकर वह स्त्री भी, बिना कोई प्रश्‍न पूछे मेरे साथ आने के लिए तैयार क्या होती है….सबकुछ अतर्क्य!

वह चुपचाप उसे अपने मामा के पास ले आया।

रामकृष्णजी अपने कमरे में ही उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। वह स्त्री हृदय के पीछे पीछे उनके कमरे में आयी। रामकृष्णजी और उसकी नज़रें मिलीं।

रामकृष्णजी को देखकर अपनी भावनाओं को रोकना उस स्त्री के लिए मुश्किल हो रहा था। उसके चेहरे पर बेहद आश्‍चर्य भी खिला था और अचानक उसकी आँखों से आनंदाश्रुओं की धाराएँ बहने लगीं। एकदम से वह बोली – ‘अरे, मेरे बच्चे! तू यहाँ है! तू गंगाजी के तट पर कहीं तो है, ऐसी जानकारी मुझे मिली थी। मैंने न जाने तुझे कहाँ कहाँ ढूँढ़ा! आख़िरकार तू यहाँ मिल गया….’

रामकृष्णजी ने उसे पूछा, ‘तुम मुझे ही क्यों ढूँढ़ रही थी, माँ?’

उसपर उसने बताया, ‘देवीमाता की कृपा से मैं तुम जैसे तीन लोगों से मिलनेवाली हूँ यह मैं जानती थी। उनमें से दो लोगों को मैं पूर्व बंगाल में पहले ही मिली और उनका आगे का मार्ग खुला कर दिया। तीसरे तुम थे, इसलिए….’

जैसे कोई माँ-बच्चे ही बात कर रहे हैं, ऐसा उन दोनों का संवाद सुनकर हृदय के मन की सारी आशंकाएँ नष्ट हो चुकी थीं!

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