परमहंस-३९

ईश्‍वरदर्शन की परमव्याकुलता से रामकृष्णजी ने हालाँकि पहले जगदंबा के दर्शन और फिर बाद में सीतामैय्या के दर्शन प्राप्त किये थे, मग़र फिर भी वह व्याकुलता उनके शरीर पर असर कर ही रही थी। अहम बात यह थी कि वे उपासना के एक मार्ग से सन्तुष्ट न होते हुए, उपासना के दास्यभक्ति, सख्यभक्ति, वात्सल्यभक्ति आदि विभिन्न मार्गों पर चलने की कोशिश कर रहे थे।

उपरोक्त दर्शन होने के बाद अब वे हठयोग के पीछे पड़ गये थे। हठयोग की कठोर उपासना के कारण उनके शरीर की स्थिति अधिक ही नाज़ूक बन चुकी थी, जिसे देखकर राणी राशमणि एवं मथुरबाबू को बहुत पीड़ा हो रही थी।

साथ ही, पहले व्याकुलता से, भावावस्था में ही सही, लेकिन कम से कम कालीपूजा नियमित रूप में तो होती थी; लेकिन फिलहाल वह भी उनसे नहीं हो रही थी। इस कारण, उनके इस स्थिति में से बाहर निकलने तक तो कालीपूजा की वैकल्पिक व्यवस्था करने के पीछे राशमणि और मथुरबाबू लगे थे।

उसी दौरान सन १८५८ में दक्षिणेश्‍वर में रामकृष्णजी के एक चचेरे भाई ‘रामतारक’ का आगमन हुआ, जो अगले आठ साल रामकृष्णजी की लीलाओं के एक साक्षीदार के रूप में दक्षिणेश्‍वर में रहनेवाले थे।

इन रामतारक को लोग ‘हलधारी’ के नाम से भी जानते थे। हलधारी भगवद्गीता और वेदवेदांत के गहरे अभ्यासक होकर, श्रीमद्भागवत, अध्यात्मरामायण इन जैसे आध्यात्मिक ग्रंथों का उनका तगड़ा व्यासंग था। वे नौकरीव्यवसाय ढूँढ़ने के सिलसिले में वहाँ पर आये थे।

ईश्‍वरदर्शनरामकृष्णजी ने उनकी मुलाक़ात मथुरबाबू से करायी। राशमणि एवं मथुरबाबू को तो यह शुभशकुन ही प्रतीत हुआ और वे रामकृष्णजी के चचेरे भाई हैं यह जान जाने के बाद तो उन्होंने खुशी खुशी हलधारी को दक्षिणेश्‍वर में कालीमंदिर के पुजारी के रूप में नियुक्त किया। हलधारी मूलतः विष्णुभक्त थे, लेकिन रामकृष्णजी के कहने पर उन्होंने कालीमाता के पुजारी के पद का स्वीकार किया था।

हलधारी रामकृष्णजी की योग्यता को भली भाँति जानते थे, लेकिन वे स्वयं तो अपने ज्ञान के अहंकार में, मंत्र-तंत्रविद्या में फँसे हुए थे। मुख्य रूप से, उन्हें आसपास के गाँवों में बहुत ही गुस्सैल जाना जाता था।

कालीमाता के पुजारी ते रूप में नियुक्त हो जाने के बाद उन्होंने मथुरबाबू के पास, ‘मै मंदिर में प्रसाद नहीं खाऊँगा, मेरे लिए रोज़ के अनाज की व्यवस्था की जाये, जिसे मैं गंगाजी के किनारे स्वयं पकाऊँगा’ ऐसी माँग की।

मथुरबाबू को अचरज हुआ और उन्होंने हलधारी से कारण पूछा, ‘‘लेकिन रामकृष्णजी तो यहीं का प्रसाद भक्षण करते हैं, फिर….?’’

तब हलधारी ने बताया कि ‘रामकृष्णजी बहुत ही उच्च आध्यात्मिक स्थिति तक पहुँच गये हैं, इसलिए वे ऐसा कर सकते हैं; लेकिन मैं अभी तक उतनी उँचाई तक न पहुँचा होने के कारण, मैंने यदि वैसा किया, तो मुझे आहारदोष लग जायेगा।’

हलधारी का यह प्रामाणिक उत्तर सुनकर मथुरबाबू प्रसन्न हुए और उन्होंने हलधारी के लिए अनाज की व्यवस्था करने के लिए कहा।

लेकिन उनकी अधकच्ची, अहंकारयुक्त भक्ति के कारण कुछ ही दिनों में कालीमाता ने उन्हें दृष्टांत देकर, अपनी सेवा न करने की आज्ञा दी, ऐसा उल्लेख कई जगहों पर मिलता है।

उसके बाद रामकृष्णजी से कहकर उन्होंने अपना तबादला राधाकृष्ण के मंदिर में करवा लिया।

हलधारी हालाँकि विष्णुभक्त थे, मग़र फिर भी यहाँ भी सरल सीधी भक्ति करने के बजाय उन्होंने नित्य पूजन-उपासना में तंत्रमार्ग, अन्य अनिष्ट प्रकार लाना शुरू किया। धीरे धीरे लोगों में उस बारे में चर्चा शुरू हुई। लेकिन हलधारी के गुस्सैल स्वभाव के कारण उन्हें खुलेआम सीधे बोलने की किसी की भी हिम्मत नहीं थी। साथ ही, उनके द्वारा उच्चारित शाप सच हो जाता है, ऐसी लोगों की सोच होने के कारण भी उनसे पंगा लेने से लोग डर रहे थे। लेकिन चर्चा तो शुरू ही थी।

धीरे धीरे यह चर्चा रामकृष्णजी तक पहुँची….

Leave a Reply

Your email address will not be published.