परमहंस- ३५

कालीमाता के साक्षात् दर्शन के पहले अनुभव से रामकृष्णजी पर गहरा असर हुआ था…. शारीरिक दृष्टि से, मानसिक दृष्टि से और आध्यात्मिक दृष्टि से भी!

उनका भाँजा हृदय यह सब नज़दीक से देख और अनुभव कर रहा था। वह हालाँकि मामा के शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य की चिंता से, मामा की जाँच करने के लिए डॉक्टर वगैरा ले आया था, मग़र फिर भी आध्यात्मिक दृष्टि से मामा अब बहुत ही ऊँचाई पर पहुँच चुके हैं, इसका एहसास उसे हो चुका था। इतना ही नहीं, बल्कि मंदिर के वातावरण में भी बहुत फर्क़ पड़ा है, इस बात का भी वह अनुभव कर रहा था।

आध्यात्मिक दृष्टि‘मंदिर में रामकृष्णजी के पूजन-अर्चन के शुरू रहते मंदिर का वातावरण किसी प्रचंड ओजस्वी ऊर्जा से भरा हुआ प्रतीत होता था। इस घटना के बाद तो, रामकृष्णजी के मंदिर में न रहते भी मंदिर का वातावरण वैसा ही भारित लगने लगा था। इतना ही नहीं, बल्कि मंदिरस्थित कालीमाता के चेहरे पर के उग्र खलमर्दन के भाव भी कुछ सौम्य प्रतीत हुए होने का अनुभव भी कइयों ने किया था’ ऐसा हृदय ने आगे चलकर एक बार रामकृष्णजी के शिष्यों के साथ बात करते हुए कहा था।

लेकिन रामकृष्ण जी में कोई बदलाव नहीं आया था। उनकी माता के दर्शन की पिपासा क़ायम थी। इस आध्यात्मिक प्यास के चलते उनका अपने देह की ओर दुर्लक्ष हो रहा था। वे दुबलेपतले तो हो की चुके थे, साथ ही बालों की देखभान न की होने के कारण बढ़े हुए बालों में धूल वगैरा जमकर वे रूखे हो चुके थे। लेकिन रामकृष्णजी का वहाँ पर ध्यान ही नहीं था।

उसके बाद भी उन्हें कई बार दर्शन यक़ीनन ही हुए होने के लक्षण उपस्थित लोग बताते थे। पूजासाहित्य लेकर मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश करने के बाद रामकृष्णजी लगातार देवीमाता की मूर्ति के साथ इस क़दर संभाषण करते हुए दिखायी देते थे कि सामने कोई सजीव व्यक्ति ही खड़ी है और अहम बात, वह भी उनकी बातों को प्रतिसाद (रिस्पाँज़) दे रही है। बीच में कभी कभी, देवी को अर्पण करने के लिए लाये फूल वे अपने ही सिर पर रख देते थे। कभी कभी घण्टों स्तब्ध बैठे रहते थे।

इस स्तब्धतापूर्व बैठे रहने के बारे में बताते हुए स्वयं रामकृष्णजी ने आगे चलकर एक बार कहा था कि ‘जब भी कभी मेरे मन में माता का ध्यान करने की इच्छा उमड़ती थी, तब मेरे बैठी अवस्था में रहते, मेरे पैर के टखने से लेकर ऊपरी शरीर तक के सभी जोड़ एक एक करके कोई जकड़ रहा है – सचमुच ‘कट्’ ऐसी आवाज़ करके जकड़ रहा है इस बात का मैं अनुभव करता था; और फिर मैं हिल ही नहीं सकता था। मेरा ध्यान पूरा हो जाने पर उलटे क्रम से ऊपर से लेकर नीचे तक के सभी जोड़ एक एक करके, वैसी ही आवाज़ करते हुए ढ़ीले होते थे।’

नैवेद्य अर्पण करते समय भी वे मंत्रोच्चारण करना वगैरा अक़्सर भूल जाते थे। हाथ में नैवेद्य की थाली लेकर वे ठेंठ कालीमाता की मूर्ति तक चले जाते थे और सीधे हाथ में एक निवाला उठाकर माता के मुख तक ले जाकर खड़े रहते थे और ‘खाओ ना माँ’ ऐसे उसकी मिन्नतें करते थे। कभी का़फी देर तक निवाला माता के मुख के पास रखने के बाद बीच में ही उसे पूछते थे ‘‘क्या कहा तुमने? मैं पहले खाऊँ? ठीऽऽक है, यदि यही तुम चाहती हो तो….’’ ऐसा कहते हुए वह निवाला स्वयं ही खा जाते थे।

मंदिर के अन्य पुरोहितवृंद की दृष्टि से यह – देवीमाता के लिए लाया गया नैवेद्य अर्पण करने से पहले खुद उसे खा जाना, यह – यानी ‘अधर्म की हद’ थी। उनमें से कई लोग इस पौरोहित्य की ओर ‘उदरनिर्वाह के साधन’ के रूप में ही देख रहे होने के कारण उनकी दृष्टि से कर्मकांड को सर्वोच्च महत्त्व था। इसीलिए बाक़ायदा पूजनविधि के अनुसार रामकृष्णजी पूजन नहीं कर रहे हैं, यह देखकर वे गुस्सा हो जाते थे। उन्होंने मथुरबाबू के पास इस बारे में बाक़ायदा शिक़ायत की, जिसमें ज़ाहिर है कुछ मनगढ़न्त बातें भी जोड़ी गयी थीं। लेकिन पिछली बार की तरह ही मथुरबाबू ने आकर सारा वाक़या देखा और रामकृष्णजी से देवीमाता वाक़ई बोलती है और रामकृष्णजी भक्ति में तेज़ गति के साथ आगे बढ़ रहे हैं, इस बारे में उन्हें यक़ीन हो गया और उन्होंने – ‘भट्टाचार्यजी को अपनी मर्ज़ी के अनुसार पूजन करने दें। उन्हें कोई कुछ भी न कहें और उनके पूजन में किसी भी प्रकार की बाधा न उत्पन्न करें और उसके बाद यह विषय बंद!’ ऐसा हुक़्म जारी किया। पुरोहितवृंद को मजबूरन हाथ मलते हुए चुप बैठना पड़ा।

इसका अर्थ यह नहीं था कि रामकृष्णजी को हररोज़ ही माता के दर्शन होते थे। ऐसे – दर्शन न हुए दिन, मंदिर की शाम की समयदर्शक घंटाओं की ध्वनि सुनायी देने पर – ‘जीवन का एक और दिन व्यर्थ गया….आज माता के दर्शन नहीं हुए’ यह सोचते हुए रामकृष्णजी विरहवेदना से मानो पागल ही हो जाते थे।

लेकिन रामकृष्णजी का दुख, उनकी वेदना, उसके पीछे का कारण समझ लेनेवाला, कम से कम उस समय तो कोई नहीं था। वह उन्हें ही आगे चलकर दुनिया को समझानी पड़ी।

‘लोग अपनी प्रिय पत्नी, प्रिय बच्चें, संपत्ति इनका वियोग होने पर फूटफूटकर रोते हैं; लेकिन इन सबका जो दाता है, उन ईश्‍वर के वियोग से, उनके दर्शन नहीं होते इसलिए रोनेवाला कोई दिखायी नहीं देता’ ऐसा रामकृष्णजी ने आगे चलकर इस कालखंड के बारे में अपने शिष्यों से संवाद करते समय कहा था।

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