परमहंस-३३

जिस जीवन में माता के दर्शन नहीं होते, ऐसे जीवन को ख़त्म करने के निर्धार से, गदाधर कालीमाता का तेज़ धारवाला खड्ग उठाकर, उसे अपनी गर्दन पर चलाने ही वाला था कि तभी कुछ विलक्षण ही घटित हुआ!
आगे चलकर एक बार श्रीरामकृष्ण ने ही इस घटना का निम्नलिखित आशय का वर्णन अपने शिष्यों के पास किया था –

‘मेरा सब्र ख़त्म होने की क़गार पर था। इतने प्रयास करके भी माता दर्शन नहीं दे रही है, इस कारण मेरे शरीर और मन को असहनीय यातनाएँ हो रही थीं। जिस तरह किसी गीले कपड़े में से अधिक से अधिक पानी निकालने के लिए उसे पूरा ज़ोर लगाकर निचोड़ा जाता है, उसी प्रकार उस दिन मानो कोई मेरे हृदय को निचोड़ रहा है, ऐसा मुझे लग रहा था। यह बेचैनी इस क़दर बढ़ गयी कि मुझे ऐसा दृढ़तापूर्वक प्रतीत होने लगा कि मुझे मेरे पूरे जीवन में माता के दर्शन हो ही नहीं सकेंगे। ‘जिसमें माता के दर्शन नहीं होते, ऐसे निष्फल जीवन को ख़त्म करना ही बेहतर है’ इस विचार से मैंने माता का वह खड्ग हाथ में उठा लिया।

माता के दर्शनउस तेज़ धारवाले खड्ग को उठाकर मैं अपनी गर्दन पर चलाने ही वाला था कि तभी क्या हुआ पता नहीं….
….देखते ही देखते मेरे आजूबाजू का मंदिर, दीवारें, लोग….सबकुछ अदृश्य हो गया और मैं किसी अनंत अवकाश में हूँ ऐसा मुझे लगने लगा। मैं आश्‍चर्यपूर्वक आजूबाजू देखने लगा, लेकिन आजूबाजू में कुछ भी नहीं था….केवल अवकाश!

….लेकिन यह अवकाश अँधेरे से भरा नहीं था, बल्कि संपूर्ण तेजस्वी प्रकाश से भरा हुआ था।

….और सामने ‘वह’ खड़ी थी….वही, मेरी जगज्जननी माता!

….उसकी ईश्वरीय सुन्दरता के क्या कहने….मेरी माता के चेहरे पर से मातृवत्सलता ओतप्रोत बह रही थी और उसकी प्रेमार्द्र दृष्टि में से अकारण करुणा प्रवाहित हो रही थी। वह मेरी ओर ही आ रही थी। उसने मेरे पास आकर मुझे बहुत आशीर्वाद दिये और मुझसे बात कर वह अंतर्धान हुई।

निमिषार्ध में ही चकाचौंध प्रकाश के एक प्रचंड सागर ने मुझे चारों ओर से घेर लिया। जहाँ तक मेरी दृष्टि पहुँच रही थी, वहाँ तक केवल यह प्रकाश ही मुझे दिखायी दे रहा था। चारों तऱफ से इस स़फेद प्रकाश की लहरें प्रचंड आवाज़ करते हुए मुझपर लपट रही थीं, मुझे अपनी बाहों में समेटना चाहती थीं। यह प्रकाश था ज्ञान का प्रकाश….एहसास का प्रकाश….सभानता का प्रकाश!

एक प्रकार का अनामिक, अवर्णनीय आनंद मेरे शरीर में प्रवेश करके मेरा मन भर रहा है, ऐसा मुझे लग रहा था। मेरे हाथ का खड्ग कभी का नीचे गिरकर ज़मीन पर पड़ा था। उन प्रकाश की लहरों में धीरे धीरे मुझे पूरी तरह से घेर लिया। मैं उन प्रकाशलहरों में हाथपैर चलाकर तैरने की कोशिश कर रहा था; लेकिन धीरे धीरे मैं उस प्रकाश में गहराई की ओर जाने लगा। मेरे नाक-मुँह में प्रवेश करनेवाली उन प्रकाश की लहरों के कारण मुझे ऐसा लग रहा था कि कहीं मेरी साँस रुक न जाये; और मैं ज़ोर ज़ोर से साँस लेने लगा। लेकिन वैसा कुछ भी नहीं हुआ।

इस अवस्था में मैं कितनी देर तक था, मुझे पता नहीं। लेकिन थोड़ी ही देर में मैं बेहोश होकर धड़ाम से नीचे ज़मीन पर गिर गया।

ऊपरि तौर पर मैं बेहोश हुआ हूँ ऐसा लग रहा था, लेकिन भीतर से मैं पूरी तरह सभान था….मानो तुर्यावस्था में ही था!

….आख़िरकार ‘उस’ ईश्वरीय प्रकाश में मैंने डुबकी लगायी थी!’

जगन्माता के प्रत्यक्ष दर्शन करने की गदाधर की तीव्र इच्छा आख़िरकार पूरी हुई थी। उसके ‘अगले प्रवास’ का मार्ग खुला हुआ था!

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