परमहंस-२२

स्वप्नदृष्टांत के अनुसार दक्षिणेश्‍वर में कालीमाता का मंदिर बनाने का ध्यास ही राणी राशमणि ने लिया था और लगभग आठ साल निर्माण का काम चल रहा और उस ज़माने में (उन्नीसवीं सदी में) पूरे नौं लाख रुपये खर्चा हुआ वह दक्षिणेश्‍वर कालीमंदिर आख़िरकार सन १८५५ में बनकर पूरा हुआ था।

योजना के अनुसार मंदिर का निर्माण तो हुआ, लेकिन दैवगति कुछ अजब ही थी!

इस मंदिर के उद्घाटन का योग जमकर नहीं आ रहा था। वह हुआ यूँ –

कालीमाता

वह दौर यानी समाजमन पर जाति-वर्ण भेद पूरी तरह हावी रहनेवाला था। इस कारण एक, उस ज़माने के अनुसार उच्चवर्णीय मानी न जानेवाली स्त्री ने बनवाये मंदिर में कदम तक रखने के लिए उस समय के पुरोहित तैयार नहीं थे। राशमणि के सेवकों ने बहुत दूरदराज़ के गाँवों में जाकर खोज की, लेकिन वह व्यर्थ ही साबित हुई! राणी राशमणि के प्रति मन में सम्मान की भावना रखनेवाले पुरोहितों ने भी, उसकी मदद करने के हेतु से अपनी अपनी क्षमता के अनुसार विभिन्न ग्रँथों में झाँककर शास्त्राधार ढूँढ़ने की कोशिशें कीं, लेकिन किसी को भी – ऐसी परिस्थिति में क्या करना चाहिए, इस विषय में मार्गदर्शन प्राप्त नहीं हो रहा था। यहाँ तक कि उस समय के ज्ञानी माने जानेवाले पुरोहितों ने भी – ‘तुमने बनाये मंदिर में हम पुरोहित पूजापाठ कर सकें इस विषय में हमें कुछ भी शास्त्राधार नहीं मिल रहा है’ ऐसा कहकर उसे विदा किया।

लेकिन राशमणि ने हार नहीं मानी। ‘देवी माँ ने मंदिर बनवा लिया है, उसका पूजन वही करवाके लेगी, इसलिए पूजन का प्रबंध भी वही करेगी’, यह उसका दृढ़ विश्‍वास था

….और ज़ाहिर है, वह व्यर्थ साबित नहीं हुआ!

इसी दौरान, उसके पास रहनेवाले एक सेवक ने, इस पेंचींदा परिस्थिति का हल ढूँढ़ने हेतु मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए उसे, उनकी पहचानवाले रामकुमार का नाम सूचित किया और ‘एक ये ही हैं, जो तुम्हें उचित मार्गदर्शन कर सकते हैं’ ऐसा यक़ीन दिलाया।

‘कालीमाता अपनी इच्छानुसार सब कराके लेगी’ यह दृढ़ विश्‍वास होनेवाली राशमणि को यह शुभशकुन ही प्रतीत हुआ और उसने रामकुमार को पत्र लिखा, जिसमें उसने सारी पेचींदा स्थिति बयान करके, उसे मार्ग दिखलाने की नम्रतापूर्वक विनती की।

संस्कृत ग्रंथों का गहराई से अध्ययन किया हुआ रामकुमार दक्षिणेश्‍वर आकर राशमणि से मिला और उसे ‘मार्ग’ सूचित किया…. ‘उसने यदि यह मंदिर किसी पुरोहित को ही दानस्वरूप दे दिया, तो फिर वह उसकी मालिक़ियत का हो जायेगा और फिर उस मंदिर में पुरोहितों ने प्रवेश न करने का प्रश्‍न ही नहीं उठेगा।’

यह मंदिर जल्द से जल्द आम जनता के लिए खुला करने के लिए उत्सुक होनेवाली राशमणि को, ‘यह मार्ग कालीमाता ने ही दिखाया है’ ऐसा प्रतीत हुआ और उसने फ़ौरन रामकुमार के कहेनुसार उसी के घर के देवताओं का पूजन-अर्चन तथा अन्य धार्मिक अवसरों पर पौरोहित्य करनेवाले मुख्य पुरोहित को, बाक़ायदा दस्तावेज़ों में दर्ज़ करके वह मंदिर दान में दे दिया।

अब उलझन सुलझ गयी थी….नहीं, रामकुमार ने उसे सुलझाया था! ‘विद्या विनयेन शोभते’ इस सुभाषित की मानो जीतीजागती मिसाल रहनेवाला, पवित्र मन का रामकुमार यह राशमणि के सम्मान का विषय बन गया था। इसलिए राशमणि ने कृतज्ञतापूर्वक इस मंदिर के उद्घाटनसमारोह की तथा कालीमाता के प्रतिष्ठापन की ज़िम्मेदारी का स्वीकार करने की रामकुमार से विनति की, जिसे रामकुमार ने मान लिया।

३१ मे १८५५ को, स्नानपर्व के पावन अवसर पर इस मंदिर का उद्घाटन करने का तय हुआ। इस पूजन के लिए राणी राशमणि ने कोई भी क़सर बाक़ी नहीं छोड़ी थी।

देशभर के बड़े बड़े तीर्थस्थलों में से लगभग एक लाख पुरोहित इस समारोह के लिए आमंत्रित किये गये थे। देश की पवित्र मानी जानेवालीं सभी नदियों का जल तीर्थ के लिए मँगाया गया था। पूजन के लिए दूर दूर से सभी प्रकार के सुगंधित फूल गाड़ियाँ भर भर के लाये गये थे। पंचामृत के नैवेद्य के लिए कई गागरें भरकर दूध-दही आदि पदार्थ सिद्ध रखे गये थे। विभिन्न प्रकार के सुगंधित अत्तर, धूप आदि से वातावरण महक उठा था। आये हुए अनगिनत भक्तों के प्रसाद का प्रबंध करने में मुदपाकखाना दिनरात व्यस्त था। उस उद्घाटन समारोह के दिन पुरोहितवृंद की तथा समारोह के लिए आये हज़ारों भक्तों की अनेक पंक्तियाँ एक के बाद एक खाना खाकर तृप्त हो रहीं थीं।

….और गदाधर? वह इस सारे क्रियाकलाप में कहाँ था?

Leave a Reply

Your email address will not be published.