परमहंस-१४०

इस प्रकार आनेवाले समय के लिए रामकृष्ण संप्रदाय की नींव रामकृष्णजी के जीवन के इस आख़िरी पर्व काशीपुर के वास्तव्य के दौरान रखी गयी।

लेकिन रामकृष्णजी का स्वास्थ्य दिनबदिन बिगड़ता ही जा रहा था। बीच में हो थोड़ासा सुकून मिलता था, कि उनके शिष्यवर्ग की उम्मीदें फिर से जाग जातीं थीं; लेकिन यह सुकून अल्प समय के लिए ही साबित होता था। ऐसे आशा-निराशा के आन्दोलनों में सन १८८५ का अस्त होकर सन १८८६ की शुरुआत हुई।

१ जनवरी १८८६। आज रामकृष्णजी की तबियत थोड़ीबहुत अच्छी थी। अतः उन्होंने बाग में थोड़ासा चक्कर लगाने की इच्छा प्रदर्शित की। उस समय उपस्थित रहनेवाले गिरीश, राम आदि कुछ पुराने पट्टशिष्य उनके साथ निकल पड़े। छुट्टी का दिन होने के कारण उनके दर्शन के लिए भी बहुत भक्तगण आये थे। उनके दर्शन के लिए आये भक्तों में से कुछ हॉल में, तो कुछ बाग में बैठे थे।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णरामकृष्णजी की मनःस्थिति आज अच्छी थी। लोगों के अभिवादन का स्वीकार कते करते वे बगीचे में धीरे धीरे चलने लगे। वहाँ आये हुए लोग उनके पीछे कुछ फ़ासला रखकर चल रहे थे। चलते चलते बीच में ही उन्होंने गिरीशजी से पूछा, ‘‘तुमने ऐसा क्या देखा मुझमें, जो तुम सबको बताते फिरते हो कि ‘रामकृष्णजी ईश्‍वर के अवतार हैं’।’’

गिरीशजी ने भावुक होकर रामकृष्णजी के सामने घुटने टेके और उन्होंने भावभीनी आवाज़ में कहा, ‘‘बड़े बड़े ऋषि-महर्षि भी जिसका वर्णन करते हुए थक गये, उसका वर्णन मैं नाचीज़ भला कैसे कर सकता हूँ!’’

अत्यधिक भावपूर्ण, लेकिन दृढ़ स्वर में उच्चारित उन शब्दों को सुनकर रामकृष्णजी अंशतः भावसमाधिअवस्था को प्राप्त हुए और उन्होंने उपस्थितों को – ‘तुम सबका कल्याण हों’ यह कहते हुए आशीर्वाद दिये। उनके वे शब्द सुनकर उपस्थित लोग आनंदातिरेक से बेभान हो गये और रामकृष्णजी को स्पर्श करने की मनाही होते हुए भी, सबकुछ भूलकर उनके चरणों में माथा रखने के लिए वहाँ भीड़ उमड़ पड़ी। उस दिन रामकृष्णजी ने शान्ति से एक एक करके उपस्थित सभी को चरणस्पर्श दे दिया। लोगों का भाव चरमसीमा तक पहुँचा था। परमभावोत्कट होकर कोई मुस्कुरा रहा था, कोई आनंदाश्रु बहा रहा था, किसी की अपने आप ही नामस्मरण की शुरुआत हुई, कोई वहीं पेड़ के तले ध्यान लगाकर बैठ गया, तो किसीको उनमें अपने आराध्यदेवता के दर्शन हुए थे। लेकिन हर एक के मामले में जो कुछ घटित हुआ, उसका वर्णन कोई भी नहीं कर पा रहा था।

रामकृष्णजी की कृपा का सभी लोग अनुभव कर रहे हैं यह देखकर उनके नित्यशिष्यों में से एक भी ललचाकर आगे आया और उसपर भी अनुग्रह करने की उसने रामकृष्णजी से विनति की। वैसे देखा जाये, तो चूँकि वह गुरु की सेवा में था, यानी दरअसल अनुग्रहित ही था। रामकृष्णजी ने उसे इसका एहसास भी कराया। उन्होंने उसे – ‘अरे, तुम तो अनुग्रहित हो ही; फिर तुम्हें और कैसा अनुग्रह चाहिए?’ ऐसा पूछा। मग़र फिर भी वह नहीं माना, तो रामकृष्णजी ने उसकी छाती को हल्के से स्पर्श किया। तभी उसका बदन रोमांचित हो उठा और उसे जहाँ देखें वहाँ रामकृष्णजी ही दिखायी देने लगे। सभी बातों में रामकृष्णजी! अब मैं भी ‘दूसरों की तरह’ ‘अनुग्रहित हुआ’, ऐसा सोचकर उसे अत्यधिक खुशी हुई। (लेकिन वह खुशी अल्प समय तक ही टिकी; क्योंकि दो दिन बीतने पर भी वह उस स्थिति से बाहर नहीं आया। इससे उसके दैनंदिन क्रियाकलापों पर, काम पर असर होने लगा। आख़िरकार तंग आकर उसने रामकृष्णजी से यह सबकुछ रोकने की प्रार्थना की। तब जाकर कहीं वह सबकुछ अपने आप बन्द हो गया।)

थोड़ी ही देर में रामकृष्णजी भावसमाधि से जागृत हो गये और धीरे धीरे चलते हुए ऊपरी मंज़िल पर स्थित अपने कमरे में चले गये। उस दिन वहाँ पर उपस्थित भक्तगणों के लिए वह दिन यानी परमानंद का खज़ाना ही साबित हुआ।

लेकिन उसके बाद रामकृष्णजी के सर्वांग में प्रचंड जलन होने लगी थी। वह जब उनके लिए असहनीय हो गया, तब उन्होंने गंगानदी का पानी लाकर उनपर छिड़कने के लिए कहा। वैसा करने के बाद वह जलन कम हो गयी।

ऐसे वाक़यों में १८८६ साल धीरे धीरे आगे बढ़ने लगा….

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